top of page
Image by NordWood Themes
Image by NordWood Themes

बिनु अक्षर सुधि होई - कबीर उलटवासी का मर्म (अरण्यगीत) - धर्मराज




बिनु अक्षर सुधि होई।

 

१) रामुरा झीझी जंतर बाजे,

कर चरण बिहूना नाचे।

 

कर बिनु बाजै, सुनै श्रवण बिनु,

श्रवण श्रोता सोई।

 

पाटन सुबस सभा बिनु अवसर,

बूझो मुनिजन लोई।

 

इन्द्रि बिनु भोग, स्वाद जिभ्या बिनु,

अक्षय पिंड बिहूना।

 

जागत चोर मंदिर तहाँ मूसे,

ख़सम अक्षत घर सूना।

 

बीज बिनु अंकुर, पेड़ बिनु तरिवर,

बिनु फूले फल फरिया।

 

बाँझ की कोख पुत्र अवतरिया,

बिनु पग तरिवरि चढ़िया।

 

मसि बिनु द्वाइत, कलम बिनु कागद,

बिनु अक्षर सुधि होई।

 

सुधि बिनु सहज, ज्ञान बिनु ज्ञाता,

कहहिं कबीर जन सोई।

 

२) रामुरा झीझी जंतर बाजे, कर चरण बिहूना नाचे।

 

मील का पत्थर या सूचना देने वाला मंजिल नहीं है। जिसको बड़े प्रेम से बुलाया जाता है उसको कबीर साहब रामुरा से संबोधित कर रहे हैं, जिनको थोड़ी-थोड़ी सुधी आनी शुरू हो गई है। झीझी एक वाद्य यंत्र है, जो हम सबके अंदर सतत बज रहा है। श्रवण के माध्यम से उन्होंने उसकी तरफ इशारा किया है, जो सत्य है, जो रहस्य है। आगे वह कहते हैं कि ना हाथ है ना पैर है, और उसके बिना ही नृत्य हो रहा है। हमारे अंदर रास रंग, गाना बजाना, गीत, नृत्य चल रहा है, जिसका हमको पता नहीं है।

 

३) कर बिनु बाजै, सुनै श्रवण बिनु, श्रवण श्रोता सोई।

 

वह अनहद नाद रूपी गीत जो है वह बिना बजाने वाले के ही बज रहा है, इसलिए उसे सिर्फ बिना कान के ही सुना जा सकता है। बिना कान के सुनना यानी कि सुनने वाला नहीं रहा, और सुनने वाला ही मैं है। उस वाद्य को, सुनने वाले के होते हुए सुना नहीं जा सकता है, क्योंकि वहां कोई बजाने वाला नहीं है। हमारा कान का उपकरण अपनी क्षमता के अनुसार, उस वाद्य को सुन सकता है, जो किसी उपकरण से उत्पन्न होती हो। जो बिना कान के सुन सकता है, वही उसका श्रोता है, यानी जहां पर मैं नहीं है, वहीं उस धुन को सुना जा सकता है। कबीर साहब उस तरफ इशारा कर रहे हैं, जो मैं के आयोजन से परे है, जिसमें मेरी कोई भूमिका नहीं है। मेरी भूमिका से वही सुनना हो सकता है, जो की आयोजित हो।

 

कबीर साहब असंभव प्रश्न की तरह इस कीमिया को प्रस्तुत कर रहे हैं कि वह सुनना क्या है जिसमें कोई सुनने वाला नहीं है? देखने के लिए देखने वाला होना ही चाहिए, इस बात को ही कबीर साहब खंडित कर रहे हैं। जबकि हम समझते हैं कि बिना मेरे कुछ नहीं हो सकता है।

 

४) पाटन सुबस, सभा बिनु अवसर,

बूझो मुनिजन लोई।

 

पाटन का अर्थ होता है नगर, सुबस यानी अच्छी तरह से बसा हुआ, सभा यानी समूह। कोई नगर है ही नहीं, पर फिर भी वह भली भांति बसा हुआ है। हमारे भीतर कुछ ऐसा भी बसना है, जहां कोई नगर नहीं है। हम समझते हैं कि हमें यदि कुछ भी प्राप्त हुआ है, तो उसकी महिमा तभी है, जब लोग या सभा उसको जानें। हम उसके ऊपर निर्भर होते हैं जो उसको महत्व देता है, जो हमारे पास है।

 

पहले हम गाय को लेकर चलते हैं, बाद में हम गाय के पीछे भागते हैं, यानी जिसे हम पकड़ते हैं वह हमें पकड़ लेता है। जिस सभा के समक्ष हम प्रस्तुत होते हैं, वही सभा फिर हमें तय करने लगती है। कबीर साहब कहते हैं कि एक ऐसा भी फूल सा जीवन जीने का अवसर है, जिसमें सभा की कोई जरूरत ही नहीं है। जिसे हम बस्ती कहते हैं, वह कहां बसती है? यदि हम सब मरने ही वाले हैं तो यहां कोई बस्ती है, यह बात ही झूठ है। यह सीधी सी बात समझ में नहीं आती, फिसल जाती है, क्योंकि हमारी बुद्धि बहुत चिकनी हो गई है।

 

कबीर साहब कहते हैं कि उस नगर में भली भांति बसा जा सकता है, जिसमें मैं कोई भूमिका अदा नहीं करता हूं। उस तरफ दृष्टि का पड़ना जो बोधगम्य नहीं है, और उसको देखकर के अपने को आहुत करने के लिए तत्पर हो जाना; तब हम कह सकते हैं कि वहां भली भांति हम बस गए। उस नगर में बसना ही होता है, वहां से उजड़ना संभव ही नहीं है। कबीर साहब कह रहे हैं कि इस बात के मर्म को पकड़ो कि वह कौन सा नगर है, जहां एक बार बस गए तो फिर बस ही गए। हम जहां बसते हैं वहां तो कब उजड़ जाएं, कुछ पता ही नहीं है। एक ऐसा भी नगर है, जहां बसने पर फिर सभा की आवश्यकता नहीं पड़ती है। यानी वह दूसरे से आपूर नहीं होता, वह अपने से खिलकर प्रस्फुटित होता चला जाता है।

 

५) इन्द्रि बिनु भोग, स्वाद जिभ्या बिनु,

अक्षय पिंड बिहूना।

 

बिना इंद्रियों के उपयोग के भी भोग हो सकता है। जिस स्वाद को हम जानते हैं, वह इंद्रियों के माध्यम से बस जरा सा प्रकट होता है; जो अप्रकट है वह वहां पहले से ही सदा विराजमान है। इसको थोड़ा ढंग से समझना चाहिए कि स्वाद कहां से आता है, जिव्हा से, उस वस्तु से जो जिव्हा पर रखी गई है, या इनके मिलन से? या फिर स्वाद जो है वह स्वयंभू है, और वह जो खुशी स्वाद से प्राप्त होती है, वह कहां से और किसको आती है? वास्तव में हमारा आपका होना उस पर प्रकट होता है, जो सदा ही विराजमान है। और जो प्रकट होता है वह समाप्त भी हो जाता है, इसी तरह से स्वाद घटता है, और स्वाद समाप्त भी हो जाता है।

 

कबीर साहब जो प्रकट होता है उसका उपयोग करके उस तरफ इशारा कर रहे हैं, जिसमें यह सब प्रकट होता है, जो सबका मूल आधार या स्रोत है। उसकी व्याख्या करने में हमारी बुद्धि असक्षम है, कबीर साहब उसी तरफ इशारा कर रहे हैं। उसमें वह सुख जो इंद्रिय भोग के माध्यम से प्रकट होता है, वह पहले से ही अनुस्यूत है। वह स्वाद क्या है जो बिना जिव्हा के भी हो सकता है? इससे वह ऊर्जा जो प्रकट की तरफ बह रही थी, वह उस तरफ मुड़ने लगी जो अप्रकट है, जिस पर यह सारी चीजें प्रकट हुई हैं।

 

पिंड यानी आकृति, जैसे यह शरीर है। सारे पिंड का क्षय होता है, पर वह अक्षय है जिसपर सारे पिंड बनते और बिगड़ते हैं। ऐसे ही हमारा शरीर, मन, मैं आदि बनता और बिगड़ता रहता है; लेकिन जो पिंड नहीं है जो बनता नहीं है, उसका कभी क्षय भी नहीं होता। वह अक्षय अभी भी है, आप असंभव प्रश्न उठाइए और उसमें दृढ़ रहिए, ना मानिए ना इनकार कीजिए, पता लगने दीजिए, कि वह क्या है जो मेरे होने से पूर्व है, जिस पर मैं बनता हूं और जिस पर मैं गिर जाऊंगा। यहीं आप पाएंगे कि जो आपकी निष्ठा पिंड पर थी, वो पुरी की पूरी जो पिंड के परे है उस तरफ घूम गई।

 

६) जागत चोर मंदिर तहाँ मूसे,

ख़सम अक्षत घर सूना।

 

मंदिर का अर्थ है घर, मूसे का मतलब है लूटना। जो सदा ही जागा हुआ है, उसका घर चोर लूट करके ले जा रहे हैं। आपको लगता है कि आप दीन हीन हैं या फिर आप कुछ संग्रहित कर लेते हैं जिससे आपको लगता है कि आप दीन हीन नहीं हैं। जो भी कुछ आपको आयोजन से मिला है, वह निश्चित ही छूट सकता है, इसलिए उसके पीछे आपको भय होगा। जहां पर अथाह संपदा है, जागरण है, उसकी तरफ नहीं देखकर के, वहां पर आप लुटे हुए बैठे हैं।

 

ख़सम यानी मालिक, अक्षत का अर्थ है उपस्थित होना, आंखों के सामने कुछ होना।  स्वामी घर पर हैं, जो परम सत्य है वह यहीं उपस्थित है, फिर भी घर सूना है। हमने सारे रिश्ते बड़े सतही, सम्मोहित रूप में जुटाए हुए हैं। स्वामी जो है वो घर पर बैठा हुआ है, उसे नहीं जानते हुए, हमने सारे उपद्रव जीवन में पाले हुए हैं।

 

७) बीज बिनु अंकुर, पेड़ बिनु तरिवर,

बिनु फूले फल फरिया।

 

कोई बीज नहीं है, फिर भी अंकुर खिल रहा है। मतलब उसका कारण कोई भी नहीं है, फिर भी वह है, उसकी खिलावट अकारण है, वह स्वयंभू है। वह कहीं और नहीं है, यहीं है, उसी की उपस्थिति में हम कुछ कह और सुन पा रहे हैं। उसके लिए कोई घोर साधना की आवश्यकता नहीं है, अभी ही हम यदि अपने को आहुत करने के लिए तैयार हैं, तो वह उपस्थित ही है। बिना तने के, या बिना जड़ के, पूरा का पूरा वृक्ष फैला हुआ है। जो परम सत्य है, उसका कोई कारण नहीं है।

 

कबीर साहब कह रहे हैं कि उसको पाने के लिए हम कुछ भी प्रयास या साधना करेंगे, वह निरर्थक है। जो अकारण है वह किसी भी कारण से नहीं मिल सकता, बल्कि जितने भी कारण हम जुटाएंगे, वह उतना ही दूर होता चला जाएगा। जैसे ही आप प्रश्न उठाएंगे कि वह क्या है जो बिना कारण के है, तो कारण प्रभाव से चलने वाली यह बुद्धि तुरंत ही गिर जाएगी। यदि उत्तर आ गया तो प्रश्न कारण है, और यदि उत्तर नहीं आता है और प्रश्न विद्यमान रहता है, तो आपके अंदर जो भी कारण प्रभाव की प्रक्रिया चल रही है, वह ध्वस्त हो गई। अब जो अकारण है वह प्रकट है, पर यह बात हमें नहीं पता चल सकती, क्योंकि हम और आप कारण का भाग हैं।

 

बिना फूल के लगे फल निकल आया है, यानी तत्क्षण बोध उपलब्ध है। आप अभी इस क्षण इस चीज को अपनी पूरी त्वरा से उठने दें, कि वह क्या है जो बिना फूल के फला हुआ है, यानी जो बिना किसी कारण के है; तत्क्षण आपकी बुद्धि स्थगित हो जाएगी। बुद्धि और शरीर कारण हैं मैं का, यदि मुझसे बुद्धि छीन ली जाती है तो मैं नहीं बचूंगा। जब यह अन्वेषण किया कि वह क्या है जो अकारण है, तो मैं नहीं रहूंगा, पर वह अकारण शेष रह जाएगा। अकारण सम्मुख हो जायेगा, मैं समाप्त हो जाऊंगा।

 

जिसने भी अपनी आहुति देने का साहस किया, उसे परम सत्य तत्क्षण मिल गया; लेकिन यदि कोई खुद को बचाकर के परम सत्य हासिल करना चाहता है, यह कदापि संभव नहीं है। यदि आप खुद को ही दांव पर लगा दें, तो हारने की संभावना ही नहीं है, क्योंकि कौन है जो हारेगा।

 

८) बाँझ की कोख पुत्र अवतरिया,

बिनु पग तरिवरि चढ़िया।

 

हमारी बुद्धि कहती है कि नहीं वहां तो कुछ भी नहीं है, हम झट से कहते हैं कि कारण प्रभाव के बिना कुछ भी कैसे हो सकता है; यानी ऐसी स्थिति आने पर बुद्धि बांझ हो जाती है। जहां असंभव प्रश्न उठाया जाता है वहां पर कुछ अभिनव पाया जाता है, वहां कुछ सृजन हो जाता है। उसके आगे जो गति है, वह बिना पैरों के हैं, जहां कोई चलने वाला नहीं है। कोई पैर नहीं है, पर पेड़ पर चढ़ना हो रहा है। यानी जीवन में उत्थान, ऊंचाइयों की तरफ उठना अपने आप हो रहा है। बिना चलने वाले के जीवन में ऊंचाई की तरफ गति हो रही है। हम सोचते हैं कि यदि हम जीवन को नहीं संभालेंगे तो जीवन बिखर जाएगा, और संभाल करके जीवन को हम कहां पहुंचाते हैं वह हम अच्छी तरह से जानते हैं।

 

कबीर साहब कहते हैं जब आप नहीं संभालते हैं, जो जैसा हो रहा है उसे होने देते हैं, बस वहां जागरण को अवसर देते हैं, यानी जो है जैसा है उसके साथ बिना छेड़छाड़ किए बस उपस्थित हो जाते हैं; तो बिना आपके चले, जीवन में जो श्रेष्ठतम है, वह घटता चला जाता है।

 

९) मसि बिनु द्वाइत, कलम बिनु कागद,

बिनु अक्षर सुधि होई।

 

बिना दवात के स्याही, यानी कोई दवात या बोतल है नहीं पर फिर भी स्याही है; वह कहां टिकेगी, कैसे टिकेगी। जो हमारे मन में लिखा जाता है, उसके पीछे कुछ कारण होता है। हमारे पास जो स्मृति का भंडार है, वह दवात है, जिसमें सब तरह के विचार संकलित हैं। इसका उपयोग करके हम जीवन में लिखते हैं कि यह जीवन का सही ढंग है, ऐसा होना चाहिए या ऐसा नहीं होना चाहिए। कबीर साहब कहते हैं जीवन की गति तो है और कोई कोष नहीं है जिससे पूर्व अनुमान लगा करके, उसको आगे बढ़ाया जा सके। यानी जीवन की गति बिना मन या बुद्धि के उपयोग के आगे बढ़ रही है। जीवन के जो पहाड़, नदी, इंसान लिखे गए हैं, ये जो अनेक रंग हैं, उनका आधार कोई स्याही या बुद्धि नहीं है।

 

बिना कागज के कलम है, यानी परम  सृजन जो घट रहा है, पर उसका कोई पटल या पृष्ठभूमि नहीं है, जिस पर कुछ लिखा जा सके, पर फिर भी लिखा जा रहा है। हम कुछ भी रचते हैं तो उसका जो पटल है, वह चित्त होता है। धरती और आकाश का कोई पटल नहीं है, यानी हम और आप भी बिना किसी पटल के लिखे गए हैं। बिना कागज के वह कलम चली है, जिसका प्रकट रूप, यह चर अचर जगत है।

 

बिनु अक्षर सुधि होई, यानी जो हम अपने अंदर जुगाली करते हैं, जो पढ़ते हैं, जो सोचते हैं, हम समझते हैं कि उससे हमें सुधी या होश होता है। यानी हमें शब्दों से समझ में आता है, पर कबीर साहब कहते हैं कि अक्षर के बिना ही सुधि होती है। सोच विचार की वहां कोई भूमिका नहीं है, और सुधि भरपूर है। हम उन चीजों के प्रति बहुत जागरूक होते हैं जहां पर हमारे सोच विचार चलते रहते हैं, जैसे रुपया पैसा संबंध आदि, जहां विचारों के आधार पर उसकी कीमत तय करी गई है। कबीर साहब कहते हैं कि कोई तर्क नहीं है, सोच विचार नहीं है, पर होश भरपूर है, यानी वह जागरण जिसमें कोई जागने वाला नहीं है।

 

कबीर साहब जिस सुधि की बात करते हैं वहां कोई तर्क नहीं है, सोच विचार नहीं है। और जहां पर कोई तर्क नहीं है कोई सोच विचार नहीं है पर होश है, तो वह होश स्वयंभू है, अनंत है। वह सुमिरन या जप क्या है, जो बिना अक्षर के है? कबीर साहब कहते हैं जो सुधि अक्षर से होती है वह सुधि, सुधि नहीं है। जहां पर अक्षर है वहां पर विभाजन होगा, वहां पर सीमा, यांत्रिकता, मन, बुद्धि, चित्त होगा। कबीर साहब कहते हैं कि बिना अक्षर के भी, सुधि या जीवन भरपूर है।

 

१०) सुधि बिनु सहज, ज्ञान बिनु ज्ञाता,

कहहिं कबीर जन सोई।

 

हम सहज तब होते हैं जब सुधि होती है, कोई खतरा देखकर के हम बेसुधि से सुधि में आ जाते हैं। कबीर साहब कहते हैं कि एक ऐसी भी सहजता है, जिसमें की सुधि की आकांक्षा भी नहीं है। यहां पर होश का भी अतिक्रमण है, यानी अगर होश की भी खबर है, तो कहीं ना कहीं बेहोशी अभी बाकी है। यानी ऐसी सहजता जिसमें कोई सुधि या होश भी नहीं है, इसका अर्थ यह भी नहीं की वहां बेहोशी है। यह जागरूकता की पराकाष्ठा है, क्योंकि जब आप होश साधते हैं, तो वह होश नहीं है। यानी जब ऐसी सहजता है की सुधि के होने का भी पता नहीं चलता है।

 

ज्ञात कोई नहीं है पर इस पूरे मसले का ज्ञान भरपूर है, इस पूरे जीवन के रहस्य का बोध भरपूर विद्यमान है। वह जानना क्या है, जिसमें कोई जानने वाला नहीं है? इसका उत्तर यदि आता है, तो जानने वाला बचा हुआ है। इस प्रश्न के साथ यदि आप बने रहे, तो आप भस्म हो जाओगे, और आपका भस्म होना उस ज्ञान का उघड़ना है, जिसमें ज्ञाता कोई नहीं है। ज्ञान तो सदा ही विद्यमान है, ज्ञाता की वजह से उस पर पर्दा पड़ा हुआ है।

 

जहां बिन ज्ञाता के ज्ञान की सरिता बह रही है, वही इंसान है, वही कहने योग्य है, जिसके पास ऐसा बोध है, और उस बोध का पता नहीं है। यानी वहां पर पता होने, और पता नहीं होने, दोनों का अतिक्रमण है। जब तक ऐसा बोध नहीं घटता है जिसमें कोई जानने वाला ना हो, तब तक तथाकथित अध्यात्म के नाम पर बड़े धोखे हैं। यह धोखा तब तक रहेगा जब तक आप जिंदा रहते हुए ही भस्म नहीं हो जाते हैं। जब तक ज्ञाता का भ्रम भली भांति भंग नहीं हो जाता, तब तक ये झांसा बना रहेगा।

3 views0 comments

Bình luận


bottom of page