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बिटिया ब्याहिल बाप - कबीर उलटवासी का मर्म (अरण्यगीत) - धर्मराज

Ashwin


१) बिटिया ब्याहिल बाप।

 

जो चरखा जरि जाये बड़ैया ना मरे,

मैं कांतों सूत हजार चरखुला जिन जरे।

 

बाबा मोर बियाह कराव अच्छा बरहि तकाये,

ज्यौ ल्यौ अच्छा बर ना मिले त्यो ल्यौ तुमहि बिहाय।

 

प्रथमे नगर पहुँचते परीगौ सोग संताप,

एक अंचम्भ हम देखा जो बिटिया ब्याहिल बाप।

 

समधी ले घर लमधी आये आये बहू के भाय,

गोड़े चूल्हा दै दै चरखा दीयौ दृढ़ाय।

 

देव लोक मरि जाएँगे एक न मरि बड़ाय,

यह मनरंजन कारणो चरखा दियो दृढ़ाय।

 

कहहीं कबीर सुनो हो संतों चरख़ा लखे जो कोय,

जो यह चरखा लखि परे ताको आवागमन ना होय।

 

२) जो उस तरफ गया है, वो बड़े अनूठे तरीके से उस तरफ का संकेत दे सकता है। इस पद में कबीर साहब ने चरखे और ब्याह का रूपक लिया है।

 

जो चरखा जरि जाये बड़ैया ना मरे,

मैं कांतों सूत हजार चरखुला जिन जरे।

 

कोई स्त्री है जो अपने पैरों को चूल्हे में डाल कर के चरखा चलाकर सूत कात रही है। चरखा जल जाने से भी जो चरखा चलाने वाला, बड़ैया यानी जुलाहा है, वो नहीं मरता है। चरखा यानी जीवन चक्र, शरीर जन्म लेता है और मर जाता है, पर अहंकार का ढंग नहीं मरता।

 

हमारे जीने का ढंग यही कहता है कि जैसे मेरी मृत्यु कभी नहीं होगी। मैं शरीर से तादात्म्य रखता हूं आकांक्षा पूर्ति के लिए, और साथ ही यह भी समझता हूं कि यह कभी नहीं मरेगा।

 

३) बाबा मोर बियाह कराव अच्छा बरहि तकाये।

ज्यौ ल्यौ अच्छा बर ना मिले त्यो ल्यौ तुमहि बिहाय।

 

एक बेटी अपने पिता से कह रही है कि अच्छा वर ढूंढ करके मेरा ब्याह करवा दो। और यदि कोई अच्छा वर ना मिले तो तुम्हीं शादी कर लो मुझसे।

 

इस पद का एक मर्म भी है उसको समझते हैं। जब कोई बच्चा पैदा होता है, तो एक शुभ संभावना के साथ पैदा होता है, कि वो सत्य को तलाशे। जीव यह निवेदन करता है कि जो श्रेयस्कर है, शुभ है, उससे गांठ जुड़ जाए। यदि हमारी उस श्रेय की तरफ गति नहीं हो पाती है, तो हम अपनी ही रचना से विवाह कर लेते हैं। हमारी जो वृत्तीयां हैं, वो जिसको पैदा होती हैं, उसी से विवाह कर लेती हैं।

 

जैसे एक संस्था हमने निर्माण करी, जिसका नाम है परिवार, राष्ट्र या संगठित धर्म, हम पिता हैं इनके। इनका हमने निर्माण किया है, और अब उसी से हम सुरक्षा की आकांक्षा करते हैं। परिवार संस्था में होकर के हम अपने आप को सुरक्षित महसूस करते हैं। यानी यह अपनी ही पैदा की हुई किसी चीज से ब्याह कर लेने जैसा है। हमने बनाया राष्ट्रपति का पद, पुरस्कार, ओहदा और उसे ही पाने के लिए हम लालायित रहते हैं, यह एक दुश्चक्र है। चरखा जहां से शुरू करता है, घूम घूम कर फिर वहीं पहुंच जाता है।

 

जिस चीज को हमने बनाया, उसी को हासिल करके हम फूले नहीं समाते हैं। और हम समझते हैं कि हमने कोई बड़ी चीज हासिल कर ली, यह सम्मोहन बहुत ही गहरा है। हम यह सब बातें सुनते हैं, पर जब तक हमारे अंदर प्रचंड अंतर्दृष्टि पैदा ना हो जाए, तब तक इस सम्मोहन से मोह भंग नहीं हो पाता है। हम बात समझते हैं पर लालायित, उसी तरफ रहते हैं; यह पिता का अपनी ही बेटी से मोह हो जाना है, या बेटी का पिता से मोह हो जाना है।

 

जब यह वृत्तियां सम्यक दिशा में नहीं जातीं, तो जो इन वृत्तियों को पैदा करता है, वो उसी की तरफ लौटना शुरू हो जाती हैं। हम अपनी ही बनाई चीज से ब्याह करने लगते हैं।

 

४) प्रथमे नगर पहुँचते परीगौ सोग संताप,

एक अंचम्भ हम देखा जो बिटिया ब्याहिल बाप।

 

जीवन के प्राथमिक तल पर ही दुर्घटना घट जाती है, वहीं शोक संताप, बनावटीपन पैदा हो जाता है। बड़े आश्चर्य की बात है कि बाप ने अपनी बेटी से ही शादी कर ली है। हम अपनी ही बनाई हुई चीजों से ब्याह कर बैठे हैं, उसी में भूले भटके हुए हैं। असल वर नहीं आया है, यथार्थ पनिग्रहन यहां नहीं हुआ है। भीतर मैं और मेरी वृत्तियां, यह दोनों एक ही हैं। Observer is the observed, बाप दृष्टा और बेटी दृश्य, दोनों एक ही हैं। हम अपनी ही बनाई चीजों के गुलाम होते चले जाते हैं।

 

५) समधी ले घर लमधी आये, आये बहू के भाय,

गोड़े चूल्हा दै दै चरखा दीयौ दृढ़ाय।

 

समधी यानी जिसकी बेटी है, और लमधी यानी समधी के पिता। बाहर से कुछ आया ही नहीं, इसी घर में सब समधी लमधी बनना शुरू हो गए। सब घचर पचर हो गया है। लमधी का मतलब है अतीत, यादाश्त, स्मृति और भाई जो अब बेटा बन गया है, वो है भविष्य। मैंने अपने विचार को पैदा किया है, और मैं अपने विचार का ही भोग कर रहा हूं। मैंने ही कोई पद बनाया है, और मैं उसी पर बैठ कर अपने आप को धन्य समझ रहा हूं।

 

पिछले समय से मैं पैदा हुआ हूं, जो अतीत में घटा हुआ है उसी से विचार पैदा होता है, अतीत उपस्थित है हमारे जीवन में। जैसे ही मैं अपने विचारों का वरण करता हूं, भविष्य पैदा हो जाता है।

 

गोड़े चूल्हा दै दै चरखा दीयौ दृढ़ाय - पैर के नीचे जो वर्तमान है, वह जल रहा है जैसे चूल्हे में आग जलती है। हमने जिन चीजों को गढ़ा है, उनके ही इर्द गिर्द घूमता हुआ जीवन धधक रहा है। जो असल नहीं है, उस दुख में व्यक्ति जल रहा है, दुश्चक्र चल रहा है। छोटे में ही हमें संस्कारित कर दिया जाता है कि जीवन कैसे जीना है। इस पूरे चरखा चलाने की प्रक्रिया में अहंकार नहीं मरता है। यहां झूठा ब्याह चल रहा है, इसलिए हमारे सारे संबंध झूठे हैं। सोचने की घटना के बिना जो संबंध बनता है, वही सच्चा ब्याह है।

 

खुद जल रहे हैं पर फिर भी लगे हुए हैं कि जिंदगी में कुछ साबित करके दिखाएंगे। सब अपने आप को ही साबित करने में लगे हुए हैं, दूसरी तरफ कौन देखता है। हम नाम नहीं हैं, पर हम नाम जीते हैं, और बाद में भी चाहते हैं कि हमारा नाम बना रहे।

 

६) देव लोक मरि जाएँगे एक न मरि बड़ाय,

यह मनरंजन कारणो चरखा दियो दृढ़ाय।

 

देवताओं के लोक भी समाप्त हो जाते हैं, पर अहंकार समाप्त नहीं होता है। कबीर साहब की उलट बांसियों का व्यंग्य, एक दर्पण की तरह है। कबीर साहब व्यंगात्मक रूप में कह रहे हैं कि खेल-खेल में सोच विचार का चरखा बड़ा मजबूत हो गया है। खेल-खेल में सोच विचार ने हमारे जीवन को हैक कर लिया है। कोई कुछ कह देता है और जीवन भर के लिए शत्रुता पैदा हो जाती है।

 

जिस दिन चरखा घूमना रुक गया, तो फिर उसे चरखा नहीं कह पाएंगे, और तब बड़ैया भी नहीं बचेगा। बड़ैया और चरखा, दोनों एक दूसरे को निर्मित करते हैं, और दोनों एक साथ ही समाप्त हो जाते हैं। चरखा चलता है तो बड़ैया निर्मित होता है, और बड़ैया चलाता है तो चरखा चलता है। चरखे के रुकते ही बनावटी जीवन, जो उल्टी सीधी गति यहां चल रही है, वो समाप्त हो गई।

 

७) कहहीं कबीर सुनो हो संतों चरख़ा लखे जो कोय,

जो यह चरखा लखि परे ताको आवागमन ना होय।

 

कबीर साहब कहते हैं कि यह दुश्चक्र, यदि कोई देख लेता है, सिर्फ देखता है कुछ करने की जरूरत नहीं है, कि मैं चरखा चलाता हूं, और जितना चरखा चलता है उतना ही मैं निर्मित होता जाता हूं। चरखे का एक हिस्सा मैं हूं और चरखे का एक हिस्सा विचार हैं। मैं जो भी कुछ करता हूं, वह बनावटी है, वह दुश्चक्र को निर्मित करता है। मैं जितना अच्छा बनने का, अपने को सुधारने का प्रयास करता हूं, उससे उतना ही मैं ही पुष्ट होता जाता हूं। जितना ही मैं पुष्ट होता हूं, उतना ही मैं अव्यवस्थित होता हूं। जो इस तथ्य के प्रति जाग जाता है, फिर उसका आवागमन नहीं होता, इस चरखे का घूमना ही आवागमन है।

 

लाओत्से कहते हैं कि यहां आप कोई सुधार नहीं कर सकते हैं, यहां आप कोई विकास नहीं कर सकते हैं। आप बस गोल-गोल घूमते हैं, वह चरखे की तरफ ही इशारा कर रहे हैं। जब आप पेंडुलम में एक तरफ जाते हो, तो दूसरी तरफ आने की ताकत साथ ही साथ इकट्ठा हो रही है। जो इस तरह चरखे की गोल गोल घूमते की गति को देख लेता है, तो मैं या दुख की संरचना वहीं समाप्त हो जाती है; फिर आवागमन नहीं होता, इसी को मोक्ष कहा गया है।


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