top of page
Image by NordWood Themes
Image by NordWood Themes

ध्यान संवाद - सिद्धार्थ एवं धर्मराज



ध्यान संवाद।

 

हंस रहे हैं उतना ही तो काफी है, यह जानने की जरूरत ही क्या है कि वह क्यों हंस रहे हैं, अगर वह मजाक उड़ाने वाली हंसी ना हो। यदि कुछ कारण पर निर्भर है, तो क्या वह हंसना वह जीना नैसर्गिक है, या वह आयोजित है? यदि हम खुश होने के लिए कारण ढूंढते हैं, तो वह आयोजित ही है कि जब तक मुझे कुछ मिल नहीं जाता, तब तक मैं खुश नहीं होऊंगा। यह खुश होने की चाहत ही हमें खुशी से दूर कर रही है, खुशी नैसर्गिक रूप से उपलब्ध है, यदि हम उसका विरोध ना करें जो वर्तमान में वह आपके सामने है। मैं और बेकरारी एक साथ आते हैं कि जो यह अभी है वह नहीं कुछ और चाहिए, या जो पहले था वह ज्यादा अच्छा था। जैसे हम आयोजन करने चले जाते हैं, उसी समय हम घर से बाहर निकल जाते हैं, या खुशी से दूर हो जाते हैं।

 

कोई अनजान यदि गिर जाए तो हमें हंसी आती है, और यदि कोई अपना गिर जाए तो हमें दुख होता है। यदि कोई पद मिल जाए, लॉटरी लग जाए, शादी हो जाए आदि, आखिर किस धरातल पर हमें यह खुशी मिलती है, क्या वह धरातल वास्तविक है? खुशी जहां हमें मिलती है, उस धरातल पर खुशी मिलने के पूर्व वहां पर क्या होता है? खुशी हमारा स्वभाव है, इससे क्या आशय है?

 

जब आप खेल से बिना जुड़े खेल को सिर्फ खेल की तरह देख रहे हैं, तो आपके चित्त की दशा क्या है, और किस धरातल पर वह खेल देखा जा रहा है? जिस धरातल पर पक्ष विपक्ष या मैं बनता हूं, वह धरातल क्या है? गेंद जो है वह पूरे मैदान में घूम रही है लोग मैदान में भाग रहे हैं, पर वह धरातल कहां है, जहां पर मैं बनता हूं, एक पक्ष लेकर के? क्या वह विचार का, विभाजन का, धरातल नहीं है? लोग एक ही धरती पर चल रहे हैं, पर उसी में विभाजन हो गया है, पार्टी बंदी हो गई है। इसी धरातल पर सुख और दुख पैदा होते हैं, और यदि यही धरातल सुख दुख पैदा कर रहा है, तो आखिर उस सुख-दुख की वैधता ही क्या है?

 

विचार नहीं तो मैं नहीं, और मैं नहीं तो वह धरातल भी नहीं, जिस पर सुख दुख पैदा होते हैं। आप कोई जमीन का टुकड़ा बेचिए, या ताजमहल बेचिये, उसका उस धरातल पर कोई भेद थोड़ी ही है, दोनों बुद्धि और विचार के ही खेल हैं। इस धरातल पर जितनी भी खुशियां या दुख संभव हैं, सब मिथ्या हैं, क्योंकि विचार एक आभासीय धरातल है, एक आभासीय प्लेटफार्म है।

 

उत्तेजना को हम खुशी मान लेते हैं, तो स्वाभाविक है कि जो उसके विपरीत है, यानी दुख, वह अपने आप वहां आ जाता है। जिसको हम खुशी मान रहे हैं, असल में वह खुशी नहीं है, वह वही चीज है जिसका नाम दुख है; और जिसको हम दुख समझ रहे हैं, वह वही चीज है जिसका नाम सुख है। किसी भी आभासीय धरातल पर जीवन समझना दुख है। शरीर दुख नहीं है, पर शरीर के साथ एक आभासीय सत्ता पैदा होती है कि मैं हूं, और ये शरीर मेरा है, ये दुख है। ये आभासीय संस्था कंप जाती है, यदि इस शरीर में कुछ होता है तो।

 

शरीर को दुख नहीं है, ना ही शरीर दुख है, पर यह जो एक काल्पनिक संस्था है जो अपना आधिपत्य इस शरीर पर घोषित करती है, और उसको सताती रहती है, उसका होना ही दुख है। यह जो स्वर्ग पर आधिपत्य जमाने का प्रयास है, वह नर्क है; यह समझ होने से संसार और निर्वाण में कोई भेद नहीं रह जाता है।

 

सुख-दुख जब आभासीय स्तर पर हैं, उसको जब हटा दिया, तो खुशी क्या है, क्या खुशी जैसी कोई चीज होती भी है? निश्चित होती है, अन्यथा हम आप यहां बात नहीं कर रहे होते। जैसे ही आप उस पर आधिपत्य जमाने का प्रयास करेंगे कि मैं खुश हूं, तो उस पर आपके होने का पर्दा पड़ जाएगा। जैसे ही आपने कहा कि मैं आपको प्रेम करता हूं, तो प्रेम के उजाले पर आपका अंधेरा पड़ गया। जब तक कोई व्यक्ति है, तब तक प्रेम नहीं हो सकता है। Krishnamurti says that there is beauty, when you are not. When there is love me is not, when there is me love is not. खुबसूरती, सुंदरता, प्रेम तब ही है, जब आप नहीं हैं।

 

एक प्रश्न उठता है कि हमारी निष्ठा इस सुख दुख के झांसे से भंग क्यों नहीं होती, हमारा मोह भंग क्यों नहीं होता? क्या हम आप यह चीज अभी देख पा रहे हैं कि मन सही उपकरण नहीं है, इस जीवन को जीने के लिए। यदि हम आप अभी यह देख पा रहे हैं, तो हम आप तत्क्षण भंग हो गए। मैं के भंग होने का मतलब की ऐसी चीज का खत्म होना है, जो कभी थी ही नहीं। आपने टंगे हुए कुर्ते को एक इंसान समझ लिया, पर वहां कभी इंसान था ही नहीं। मैंने खुद के विचारों के टंगे हुए कुर्ते को, खुद का होना समझ लिया था, बस यह भ्रम भंग हो गया।

 

मैं के भंग होने पर भी जो सत्य है, वह कारण और प्रभाव के परे है, और हम आप कारण प्रभाव में ही गति करते हैं। कारण प्रभाव नहीं है, तो समय भी नहीं है। गरम या ठंडा जैसा भी कुछ नहीं है, बस एटम तेज या धीमी गति से स्पंदन करते हैं। इसी तरह कारण और प्रभाव की गति को हम समय की तरह देखते हैं, और उससे हम तादात्म्य भी कर लेते हैं। जब तक गति है तभी तक समय है, गति रुक जायेगी तो समय भी रुक जायेगा। इसी तरह जब तक सोच विचार की गति है, तभी तक मानसिक समय है। सोच विचार या मैं बाहर की और अंदर की गति में भेद नहीं जान पाता है। मैं बाहर के बदलाव से तादात्म्य बना कर के एक अंदर की गति बना देता हूं, वहीं मानसिक समय का निर्माण होता है।

 

इसी के आधार पर करने और भोगने वाले का एक केंद्र बन जाता है, और इस केंद्र और समय में कोई भेद या विभाजन भी नहीं है। वो केंद्र एक बवंडर जैसा ही होता है। बवंडर की अपनी कोई अलग सत्ता नहीं होती है, वह हवा के ही दबाब का परिणाम होता है, और उसका एक आकार भी दिखाई पड़ता है। अगर हम किसी चीज के अंदर हैं, तो उसका आकार मुझे नहीं पता चलेगा; जैसे कोई घड़े का कण है तो उसे घड़े का आकार नहीं पता चलेगा। आकार का निर्माण तभी होता है, जब विभाजन होता है।

 

मन ने एक बहुत बड़ा षड्यंत्र खड़ा कर लिया है अध्यात्म, ध्यान, साधना, गुरु शिष्य, संगठित धर्म का। इन सब संस्थाओं से, व्यवस्था से गुजरे बिना, क्या एक बार में हम यह समझ सकते हैं कि यह जो मैं की एजेंसी है, उसका सत्य क्या है, जो सुख और दुख अपने ऊपर ओढ़ करके चल रही है। सम्यक बोध है कि जिसको भी आपने साधना आदि करके हासिल किया है, उसका खोना निश्चित है; हम हासिल वही कर सकते हैं जो मेरा स्वभाव नहीं है।

 

सम्यक बोध समय में नहीं घटता है, पर उससे पहले जो समय लगता है, वो हट सकता है क्या? जब वो समय से नहीं मिलता है, तो क्या सारे प्रयास व्यर्थ हैं? वो प्रयास से नहीं मिल सकता यदि यह बात समझ में उतर गई तो क्रांति हो जाएगी, फिर तो ध्यान उतर गया। पर यदि आपने इसको केवल बौद्धिक रूप से समझ लिया, तो एक तो आप कुछ करोगे नहीं, और जुमला ये आ जायेगा जुबान पर कि करने से तो बोध होता नहीं है, वह तो कारण प्रभाव के परे है। मतलब आपने न करने को ही एक कारण बना दिया, जबकि वह करने या न करने के कारण, दोनों के पार है। हम आप चाहे करें या चाहे ना करें, दोनों स्थितियों से उसे नहीं पाया जा सकता है।

 

ज्ञान से भी नहीं पाया जा सकता है और अज्ञान से भी नहीं पाया जा सकता है। अकर्मण्यता आ जाती है कि मैं तो नहीं करता हूं, और जो कुछ करता हुआ दिखता है वो पतित है, भटका हुआ है। यदि नहीं करना होता तो कृष्णमूर्ति जगह जगह घूम करके बोलते नहीं रहते। करना है, और नहीं करना ऐसा भी नहीं है, यह बोध या प्रेम की बात है, जो खून में उतर जाए।

 

प्रेम जो समझ गया वो ज्ञानी हो गया। कबीर जब सदगुरु कहते हैं तो उनका आशय वो नहीं है, जो हम सद्गुरु शब्द से समझते हैं।

 

सतगुरु हम सूँ रीझि करि, एक कह्या प्रसंग।

बरस्या बादल प्रेम का, भीजि गया सब अंग॥

 

सद्गुरु ने मुझ पर प्रसन्न होकर एक ऐसी कीमिया बताई, जिससे प्रेम रस की वर्षा हुई और मेरे अंग-प्रत्यंग उस रस से भीग गए। कुछ ऐसी बात कही गई कि बस हो गया, रोआं रोआं प्रेम से भीग गया।

 

नागार्जुन बुद्धि की सीमा तक ले जाते हैं, कि कारण और प्रभाव अलग नहीं हो सकते हैं। अगर दो चीज बिलकुल अलग हैं तो एक दूसरे पर उनका कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। रसायन भी रिएक्ट तभी करते हैं, जब सिमिलर चीजों का आदान प्रदान होता है, जैसे एलक्ट्रॉन। ऊष्मा में भी गति का आदान प्रदान हो रहा है। कारण प्रभाव यदि अलग अलग रहेंगे, तो उनके बीच कोई संबंध हो ही नहीं सकता है। यदि आप कहेंगे की कारण प्रभाव एक ही हैं, सेम हैं, तो वो भी गलत है। यदि एक ही हैं तो प्रतिकृति का अर्थ ही क्या है? दूध से दही बन जाती है, जब एक ही हैं तो बदलाव कैसे होता है? कारण प्रभाव एक नहीं हैं, और अलग भी नहीं हैं।

 

तीसरी बात कह सकते हैं कि दोनों एक साथ हैं, अलग भी हैं और एक भी हैं। यह भी नहीं है, जब एक गलत है, दो भी नहीं हैं, तो साथ साथ भी नहीं हैं। साथ साथ होने से त्रुटियां खत्म नहीं हो जाती हैं, वही तर्क इसमें भी आ जायेंगे।

 

चतुष कोटि तर्क यानी चारों बातें सही नहीं हैं, १) है, २) नहीं है, ३) है और नहीं दोनों साथ हैं, और ४) नहीं है और नहीं नहीं है। जैसे आत्मा है; आत्मा नहीं है; आत्मा है भी और नहीं भी है; और नहीं है और नहीं नहीं भी है।

 

कुछ करना, कुछ नहीं करना, दोनों का एक साथ होना, या दोनों का अभाव, ये तीनों बातें सही नहीं हैं। जब पहली तीन बातें नहीं हैं तो चौथी बात है कि सब कुछ रैंडम, आर्बिटरी है, निरूदेश्य चल रहा है, पर ऐसा भी नहीं है। कारण प्रभाव समय है कि नहीं है, यह बुद्धि से सोच विचार करके किसी भी परिणाम पर नहीं पहुंच सकते हैं।

 

नागार्जुन ने ये सिद्ध कर दिया की कोई गति है ही नहीं। गति कहां पर हो रही है? जहां पर आप हैं क्या वहां पर गति हो रही है, जहां से आप निकल चुके हैं, या जहां जा रहे हैं? आप कहेंगे की जहां पर आप हैं वहीं गति हो रही है। लेकिन जहां पर तुम हो, यदि वहां पर यदि गति हो रही है तो वहां पर तुम हो नहीं। गति भ्रम है, और अगति या विश्राम भी भ्रम है, दोनों सापेक्षिक हैं। इस तरह सारी बौद्धिक मान्यताओं को उन्होंने विधिवत खारिज किया है।

 

बुद्ध ने सापेक्षिक होने की बात कही है। जैसे पिता पुत्र एक साथ पैदा होते हैं। पिता के कारण पुत्र है, और पुत्र पिता को जन्म देता है; दोनों एक दूसरे के कारण हैं। वस्तु है तभी आकाश है, और आकाश है तभी वस्तु है; दोनों एक साथ एक दूसरे को जन्म देते हैं, तो है क्या फिर? बुद्धि को बुद्धि के माध्यम से उसकी ही सीमा को दिखाया है, और इसी को नागार्जुन ने शून्यता कहा है।


0 views0 comments

Comments


bottom of page