दूसरे चरण से मुक्त जीना क्या है? मैं या मेरा होना ही दूसरा चरण है, ऐसा नहीं हो सकता है कि मैं भी रहूंगा और पहला चरण भी बना रहे।
मस्तिष्क का निचला हिस्सा है वो सारी ज्ञानेंद्रियों और कर्मेंद्रियों को नियंत्रित करता है, और वो एक मशीन की तरह काम करता है। किसी भी चीज का अनुभव होने में कम से कम ०.२ सेकंड का समय लगता है।
यदि माथे के बीच में गोली मारी जाती है, तो गोली इतनी तेज गति से आती है कि उसका पता चलने से पहले ही, मस्तिष्क की पता चलने वाली क्षमता, या जो अनुभवों का आधार है, वह ही समाप्त हो जाता है।
जैसे हमारे शरीर के दूसरे अंग हैं, वैसे ही अनुभव भी एक प्रक्रिया है। गड़बड़ ये हुई है कि जो अनुभव करने वाली एजेंसी है, वह हमारे जीवन का आधार बन गई है। हम कहते हैं कि जो बात मेरे अनुभव में नहीं आ रही है, वो है ही नहीं, या वो बात सच नहीं है। इसलिए हम कहते हैं कि हमें पता नहीं है की अज्ञेय, आत्मा है भी कि नहीं है। यदि अनुभव की सीमा हमने समझ ली, तो जो अनुभव से परे है, उसपर हमें संदेह नहीं होगा।
पूरे अस्तित्व में कुछ भी ऐसा नहीं है जो सत्य से आपूर नहीं है, यानी सब कुछ संबोधि से भरा ही हुआ है। जीवन का स्वभाव ही अमृत है, दुख से परे है, अकाल है, अमृत है। जिस एजेंसी से आप जीवन को समझते हैं वो पूरी तरह से संस्कारित है। यदि आप विचार के माध्यम से जीवन को समझने जाएंगे, तो आप जिस निष्कर्ष पर आएंगे, वह एक मृत निष्कर्ष होगा। बुद्धि की बनावटी एजेंसी क्लोन को ही समझ सकती है, सत्य या निसर्ग को नहीं समझ सकती है।
आप अनुभव से सत्य या परमात्मा को नहीं जान सकते हैं। यदि आपको कृष्ण का या जीसस का अनुभव हो रहा है, तो यह एक गहरा सम्मोहन है। अक्सर आपने जो सोचा है, वही आप को दिवा स्वप्न की तरह अनुभव हो रहा होता है।
सत्य के सम्यक बोध के लिए यह एजेंसी सक्षम ही नहीं है। अस्तित्व का कण कण प्रसाद से आपूर है, अमृत से भरपूर पसरा हुआ है। कोई संबोधि को प्राप्त हुआ, इसका अर्थ है कि जो जीवन के प्रति असम्यक व्याख्याएं हैं, वो समाप्त हो गईं।
सत्य का बोध हमेशा नया ही होता है, ऐसा नहीं है कि आपको कोई नया बोध होता है, इसलिए आपको उसका पता ही नहीं चलता है। बुद्धि को केवल बासी का ही पता चलता है। मस्तिष्क किसी भी चीज को थोड़ी देर बाद प्रोसेस करता है, तो वो चीज जो घटी ही हुई है, उसे बुद्धि प्रोसेस ही नहीं कर सकती है। मन उसको पकड़ नहीं सकता है जो बदलती नहीं है, जो सतत विद्यमान है, जो पहले से ही है। मन समय में चलता है, जो समय के पहले है, मन उसको पकड़ ही नहीं पाता है।
मैं अनुभवों से बनता हूं और क्योंकि मैं सत्य को जांच नहीं सकता हूं, इसलिए मैं कहता हूं कि वो है ही नहीं। जो झूठ है, बनावटी है, वो टिप्पणी देता है कि सच नहीं है। जो मृत है, वो अमृत के संदर्भ में टिप्पणी दे रहा है कि वह नहीं है।
मिथ्या समझ का अवसान ही था, जो ज्ञान बुद्ध को प्राप्त हुआ। बुद्ध ने कहा कि मैंने कुछ नया नहीं जाना, जो जाना ही हुआ था, उसपर जो झूठी समझ थी, बस उसका अंत हुआ है। आपको सच नहीं खोजना है, सच घटा ही हुआ है, हमें बस मन बुद्धि अनुभव की सीमा समझनी है। जब आप कहते हैं कि क्या कुछ ऐसा है जो दूसरे चरण से मुक्त है, तो आप विचार शैली के ढंग को भंग कर रहे हैं। आप अनुभव यानी उसके बासीपन पर सवाल उठा रहे हैं, उसको उसकी सीमित जगह पर ले कर के जा रहे हैं। अनुभव की अपनी एक जगह है, उपयोगी है, पर वो सत्य नहीं है।
सत्य के अन्वेषण करने वाला, सत्य का प्यासा, सभी तरह के अनुभवों से, सोच विचारों से मुक्त हो जाता है।
माइकल फराडे ने एक अविष्कार के बारे में कहा था, ये अभी बच्चा है पर ये हमेशा छोटा थोड़े ही रहेगा। ये भी एक सूत्र है कि क्या कोई जीना ऐसा है जो सभी तरह के दूसरे चरण से मुक्त है, ये एक बहुमूल्य सूत्र है।
सभी व्याख्याओं का समाप्त हो जाना, जो सम्यक है उसकी तरफ नजर घूम जाना, संबोधि है। जो अनुभवों से बना है उसपर निष्ठा का भंग हो जाना, और जो अनुभवातीत है, बोधातीत है, उसपर निष्ठा आ जाना, संबोधि है। सभी अंधविश्वासों का भंग हो जाना, और जीवन के अडोल स्वभाव का प्रसाद स्वरूप में पाया जाना, संबोधी है। जो कहा जा रहा है, वह पूरे बोध से जांच कर कहा जा रहा है, उसे गौर से परखिए की क्या ऐसा है कि नहीं है।
कभी मन जब शांत होता है तो जो देखा जा रहा है उसके पार की चीज को आने का अवसर मिल जाता है, नैसर्गिक चीजें प्रवेश कर जाती हैं हमारे अंदर। जीवन की जो व्याख्या करने वाली संस्था है, वो बुरी तरह से संस्कारित है। आप और हम प्रेम की जब व्याख्या करते हैं, तो वो उस संस्था से करते हैं, जो एक बहुत ही पुरानी मशीनरी है। जैसे ही आप ईश्वर कहते हैं, तो आप बहुत पुरानी स्मृतियां उसके साथ ले आते हैं।
क्या हम आप समझ रहे हैं कि हम एक तरफ अमृत के प्रसाद से आपूर हैं, और दूसरी तरफ कितने बड़े खतरे में हैं। लाओत्से कहते हैं कि विकसित होना सबसे बड़ा भ्रम है। विकास के नाम पर, हम आप चालाक, कुटिल, और शोषण करने में सक्षम हो गए हैं।
संबोधि यानी इस हैविली कंडीशन्ड मन का अनकंडीशंड होना है। जितना आप चुनाव रहित होते हैं, उतना ही यह मन धुलता जाता है, अनकंडीशंड होता जाता है। जैसे ही आप चुनाव करते हैं, मन और बलवान होता जाता है।
चुनने में ही मन दो बना लेता है, और गति करना शुरू कर देता है। जब आप राम राम या बुद्ध को भी दोहराते हैं, यही मन और भी बलिष्ठ हो रहा है। बिना चुने इस मन का दिखाई पड़ना शुरू हो, वही निदान है। इस यथाभूत दर्शन से, सत्य के नाम पर आप जो खुद एक भ्रामक व्याख्या हो, मैं जो एक असम्यक बोध हूं, वह असम्यक व्याख्या विसर्जित हो जाती है।
जैसे ही यह भ्रामक व्याख्या पुछी, तो जो यह दुखात्मक स्थिति है हमारी, उसमें प्रेम का महासागर उमड़ आता है। जो ऊर्जा आभासीय आयामों में गति करती थी, वह समाप्त हो जाती है। समाधि निर्वाण आत्मज्ञान संबोधि एक तरह से आपको हमेशा ही उपलब्ध है, और दूसरी तरफ से आपको संबोधि कभी भी उपलब्ध नहीं हो सकती है। अपने सारे अनुभवों, सोच विचार के साथ जब आप नहीं होते हैं, तो जो है, वह सदा जागा हुआ है।
अपने जीवन की पूरी ऊर्जा समेटिये, और जो आप हैं जैसे आप हैं, उसकी बिना निंदा और स्तुति के उपस्थित हो जाइए; आपके जीवन से भ्रम समाप्त हो जाएगा। किसी की भी नकल मत करिए, किसी को प्रमाण मत मानिए, यदि किसी के जीवन में नहीं हुआ, तो फिर उसने अपने आप को समेटा नहीं होगा। यदि आप देखेंगे अपने आप को, तो चाहे जितना भी आपके पास शोक हो दुख हो धन हो या आप गुणवान हों; यदि सत्य की सही प्रत्यभिज्ञा नहीं उतरी है, तो सब बेकार है कचरा है, जब तक उस अविनाशी को जानकर स्वयं की आहुति उसमें ना दे दी गई हो।
जैसे ही आप जस का तस यथाभूत देखने के लिए उपस्थित होंगे, नासमझी से निकलेंगे, अथाह प्रसाद जीवन में पाया जाएगा।
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Ashu Shinghal
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