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द्वार बिनु दीवार (साप्ताहिक संवाद)

Ashwin


द्वार बिनु दीवार।


कोई दीवार नहीं है केवल एक दरवाजा है, जिस पर एक ताला लगा हुआ, और हम अपनी नासमझी में उस ताले को खोलने में लगे हुए। जीवन की गुत्थी को सुलझाने के क्रम में हम उसको और उलझा रहे हैं। अपने जीवन में एक झूठे अभिमान की रेखा हम निरंतर खींचते चले जाते हैं। बैर भी हम अपने अंदर ही जमा करके रखते हैं, उसका दुष्प्रभाव भी हम पर ही पड़ता है।


श्रेय के मार्ग में साथ वही चल सकता है, जो श्रेय को अपने जीवन में अवसर दे चुका हो। किसी के साथ षडयंत्र करने में जैसे प्राण ही चले जाते हैं, षड्यंत्र ही षड्यंत्र व्याप्त हो जाता है। बुद्ध ने अंगुलिमाल से कहा कि यदि तुम जोड़ नहीं सकते हो तो तोड़ क्यों रहे हो, यदि तुम संधि के आधार नहीं बन सकते हो तो खंड क्यों कर रहे हो?


शिक्षा प्रणाली में सुधार।


हमें अंत संभावनाओं से मुक्त होना पड़ेगा जो हमारे ऊपर थोपी गई हैं। अनंत संभावना को हम नहीं जान सकते, पर हम यह सवाल उठा सकते हैं कि वह क्या है जो अंत संभावना से मुक्त है? अंत संभावना पर यदि हम प्रश्न लगाएंगे तो वह सब जो बुद्धि के द्वारा रचा गया है, जो समय से आबद्ध है, वह सब गिरने लग जाएगा। अंत संभावना के विसर्जन में ही, अनंत संभावना वहां व्याप्त है। जो झूठ है उसको झूठ की तरह देखने में ही सत्य का वहां अवतरण है।


प्रश्न - मैं अपनी नौकरी से खुश नहीं हूं क्या करूं?


हम अपने आप को एक विशेष सांचे में देखना चाहते हैं जिसके लिए हमने नौकरी को एक माध्यम बनाया हुआ है। क्या हमारे अंदर यह सवाल उठ सकता है कि नैसर्गिक रूप से जीना क्या है, और उसके लिए क्या आजीविका अपनाई जा सकती है? जब हम अपनी मौलिक ज़रूरतें पहचान लेते हैं, तो उसी के अनुसार ऊर्जा प्रकट होती है। तब बाहर किसी आरोपन से जीवन निर्धारित नहीं होगा, जीवन अपनी मौज में खिलना शुरू हो जाता है।


सत्य अद्वैत है।


प्रश्न - सब कुछ मेरे हाथ में है, या मेरे हाथ में कुछ भी नहीं है, इन दोनों में से क्या बात सही है?


जब भी हम सत्य की ओर जाते हैं तो सत्य ठीक अपने विपरीत को आत्मसात कर लेता है। तभी सत्य को अद्वैत कहा गया है, क्योंकि सत्य में दो नहीं हैं। जहां भी हम दो देख सकते हैं, फिर वह सत्य नहीं है। पुराने धर्मों ने ईश्वर के स्वरूप को विध्वंसक और रचनात्मक दोनों कहा है। शिव के साथ देवता भी चलते हैं, और पिशाच भी चलते हैं। विष गले में धारण किया हुआ है, और चंद्रमा को सिर पर धारण किया हुआ है।


जो भी ज्ञात का क्षेत्र है उसमें जो कुछ भी हम कर रहे हैं, उसके लिए हम ही जिम्मेदार हैं। ज्ञात को यदि हमने सच माना हुआ है, तो उसको सच मानना, यह हमारी ही जिम्मेदारी है। ज्ञात के क्षेत्र को उसकी वस्तुस्थिति में नहीं देखना यह हमारी गैर जिम्मेदारी है। अपनी सीमा को सम्यक रूप से देखना फिर आगे कुछ नहीं करना है। सम्यक रूप से अपने को देखना ही आत्यंतिक समर्पण है।


कविता - रहस्यदर्शी।


कविता - रहस्यदर्शी।


जो असीम को उपलब्ध है, वो सबके बीच ऐसा रचा बसा है कि उसको कुछ दिखने, देखने, दिखाने में कोई रुचि ही नहीं है। समझ सब कुछ है, पर कौतूहल बालवत है। ऐसे रहस्यदर्शी की उपस्थिति निमित्त मात्र है।

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