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एकै साधे सब सधै - ध्यानशाला भोर का सत्र, 21 मई 2024

ध्यानशाला भोर का सत्र, 21 मई 2024


एकै साधे सब सधै, सब साधै सब जाय।

रहिमन मूलहिं सींचिबो, फूलै फलै अघाय॥


रहीम साहब कहते हैं कि मूल को ही सींचिए।


लाओत्से एक बार मछली पकड़ने गए। ज्यादा जोर से खींचा तो कांटा टूट गया, और धीरे-धीरे खींचा तो मछली भाग गई। तीसरी बार उन्होंने उतना ही बल लगाया जितना बल मछली लगाती थी, तो मछली थक गई और पकड़ में आ गई।


मैं की संस्था में फूलना, फलना और अघाना होना संभव ही नहीं है। मैं जो बार-बार आदत, अनुभव दोहराता रहता है, वही मन का बल है। हमने मैं को इतनी बार दोहराया है कि यह जिंदा सा लगने लगा है। मैं अपने आप को कितना भी मजबूत समझता हूं, पर उसमें फलना फूलना अघाना संभव नहीं है, मैं सिर्फ एक आदत मात्र ही है।


मेरे अंदर जितने संकल्प विकल्प हैं, अच्छे बुरे के बारे में धारणाएं हैं, इनका कोई मोल नहीं है। यह सब खुद को अच्छा दिखाने के लिए, हमारे द्वारा ही गढ़े गए उपाय हैं। मैं क्या दान दूंगा, जिसके पीछे मैं खड़ा हुआ हूं, वह दान अपवित्र हो गया। इस अस्तित्व ने संपूर्ण दान हम सबको पहले से ही दिया हुआ है, और कोई आकर के कहता नहीं है कि तुम्हारे अंदर जो सांस चल रही है, वह मैं चला रहा हूं, इसका कोई दावेदार नहीं है।


देनहार कोई और है, देवत है दिन रैन।

लोग भरम हम पर करें, याते नीचे नैन॥


देने वाला तो कोई और है, जो दिन रात दे ही रहा है। लेकिन लोग समझते हैं कि मैं दे रहा हूँ, इसलिये मेरी आँखें अनायास ही शर्म से झुक जाती हैं।


जीवन में जो भी शुभ है, वह तब होता है जब हमारी भूमिका समाप्त हो जाती है। उतना ही बल लगाइए जितना कि यह मन खींच रहा है, यानि यहीं जागरण को अवसर दे दीजिए।


जब जीवन उलझा हो तो गौर से देखना चाहिए कि हो क्या रहा है? हम अपने जीवन की कील उलटी ठोक रहे हैं। मैं जीवन का, फलने फूलने अघाने का आधार नहीं है। मैं को यदि आप सामने रखेंगे, तो आप उलटी कील ठोक रहे हैं। गोल गोल उलटा घूमने से इसका दोहराव बना ही रहता है। बस यहीं पर हमें उसको पलट देना है, कि मुझसे फलना फूलना अघाना नहीं सध सकता है। फलना फूलना अघाना तब सधता है, जब मैं अपनी पूरी भूमिका के साथ निष्क्रिय हो जाता हूं।


एक घातक आत्मविश्वास हमारे अंदर पैदा हो गया है कि मैंने यह सब कर लिया है, इसलिए मैं अध्यात्म में भी सफल हो जाऊंगा, एक दिन मैं इनलाइटन हो जाऊंगा, यह कभी नहीं होगा। जब यह अच्छी तरह से समझ आ गया, तो जो जीवन ऊर्जा है, उसके समक्ष आप निष्क्रिय हो जाइए। इससे जो अनुचित ढंग से आप बने हुए हैं, वह सहज ही विसर्जित होने लगता है। भाषा की सीमा को किनारे रखकर के, मर्म को जीवन में उतरने दीजिए, इसके लिए आपस में मैत्री और प्रेम होना आवश्यक है, नहीं तो आप उन्हीं चीजों को पकड़ेंगे, जिनको पकड़ने की जरूरत नहीं है।


बस इतने बल को जगह देना कि मैं निष्क्रिय होता चला जाए। यानी जीवन में जैसे ही कुछ आए, वहीं पर अपनी भूमिका को अवलोकन में उतार दिया जाए। जिंदा रहने का अर्थ और कुछ नहीं हो सकता, सिवाय जागरण को अवसर देने के। विपरीत स्थिति हो या अनुकूल स्थिति हो, आप जिंदा हो, वहां जागरण को अवसर दे दीजिए; वही जागरण को अवसर देना, जीवन का शुभारंभ है।


कोई आपको पहले अनुकूल लगता था आप प्रतिकूल लगता है, इन दोनों ही परिस्थितियों में निर्णय कर्ता तो मैं बना ही हुआ हूं। साथ-साथ चलने का अर्थ है कि आपके अंदर दिया हुआ जागरण का अवसर, और मेरे अंदर दिया हुआ जागरण का अवसर, वह अटूट हो गया। जो भी अभी हमारे सामने बन रहा है, हम उसको यथावत देख रहे हैं, तो हम और आप एक ही धरातल पर हैं, यह मौलिक धरातल है। यह है सच्चा सत्संग, दिखाई अलग-अलग पड़ रहा है, पर दिखाई पड़ने की घटना अनुस्यूत है, क्योंकि दिखाई पड़ना मौलिक है।


यह मेरे ही निष्कर्षों का परिणाम है कि पहले आप बुरे लगते थे, अब आप अच्छे लगने लगे। इन दोनों ही परिस्थितियों में मेरी ही ऊर्जा काम कर रही है, अब यह ऊर्जा देखने में नहीं, तय करने में नहीं, वहीं पर होश को अवसर देने में, दिखाई पड़ने में उतर गई, और नैसर्गिक दिखाई पड़ना घटने लगा।


फूलना फलना अघाना तो उपस्थित है ही, हम जो उसमें जद्दोजहद कर रहे हैं, वह सच नहीं है। हमारा ना होना, तो उसका होना वहीं पर पाया जाता है। जैसे यह सूरज यहीं पर है, हम उसके बारे में कुछ भी सोचें या ना सोचें, उससे कुछ फर्क नहीं पड़ता है। फलना फूलना अघाना घटा ही हुआ है, हम उसके बारे में क्या सोच रहे हैं, उससे कुछ फर्क ही नहीं पड़ता है।


एक व्यक्ति गुरु के पास आया कि मुझे आपसे ध्यान सीखना है। गुरु ने कहा मैं सीखा तो दूंगा पर एक शर्त है कि तुमको मेरे साथ शतरंज का खेल खेलना होगा, और यदि मैं हार गया तो मैं यह सब आश्रम छोड़ दूंगा। उस ने जब खेलना शुरू किया तो देखा कि गुरु को तो बिल्कुल खेलना नहीं आता, तो उसके अंदर एक करुणा का जन्म हुआ, और वह जान कर खराब चाल चलने लगा ताकि वो हार जाए। गुरु ने जब यह देखा तो उन्होंने खेल वहीं समाप्त कर दिया, और कहा अब इसकी कोई जरूरत नहीं है। जिसमें तुम्हें महत्व दिखे उसके लिए हारने के लिए तुम तत्पर हो जाओ, यही जीवन का मूल रहस्य है।


आपका विजय घोष महत्वपूर्ण नहीं है, विजय उसके माथे सुहाती है, आपके माथे नहीं सुहाती है। यहां मैं क्या अनुभव कर लूंगा, जितने भी मैं अनुभव करता हूं, उसके लिए तो मुझे सिखाया गया है। यह जानना कि मुझसे फलना फूलना अघाना नहीं होता है, तो आप उसको जिताने के लिए तैयार हो गए ना। प्रभु या अज्ञेय की जीत महत्वपूर्ण है कि तुम जीतो, मैं गलने के लिए राजी हूं। जो मिटने के लिए राजी है, वो फिर प्रभु ही हो गया; पर यदि मन कहता है कि मिटो ताकि प्रभु हो सको, तो फिर आप चूक गए।


क्या जीवन फल फूल रहा है, या फिर आप किसी झांसे में जी रहे हैं? क्या आप किसी उम्मीद में जी रहे हैं कि भविष्य में कभी फल फूल जायेंगे? हर मोड़ पर जागरण को जीतने दीजिए, मैं को नहीं। किसी ने आपके अनुसार व्यवहार नहीं किया, तो जीतिए मत, होश को अवसर दीजिए, हम क्या ही करेंगे जीतकर? क्या हमने कोई ठेका ले कर रखा है कि मैं गलत को बर्दाश्त नहीं कर पाता हूं? गलत सही का निर्णय करने वाले हम होते कौन हैं, जबकि जीवन अबाध है।


सारे उपाय आपके पास हों जीतने के, फिर भी मैं से, सामने वाले से हार जाइए। सारे संबंध तो जाने अनजाने संयोग की घटनाएं हैं; उससे हार जाइए जो नैसर्गिक है, जो बेशर्त है। चुपचाप बार बार अवलोकन को अवसर दे दीजिए, अवलोकन को जीतने दीजिए, जल्दी ही आप पाएंगे की जीवन में केवल अवलोकन ही बचा रह गया है।

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Ashu Shinghal

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