साधु!
एक रिक्त व्यक्ति, क्षण में सर्वदा उपलब्ध व्यक्ति।
'हाँ' में राजी, उतना ही 'न' में राजी।
स्वागत के अपने बांह खोले, जब, जहाँ, जैसे है, निर्लेप हो ले।
बालक सा निर्दोष, साधक सा होश।
चित्त प्रेम लबालब, स्व में पूर्ण आज और अब।
इनके हेतु शब्द कहाँ से लाऊँ?
इन पर हृदय अपना वारी जाऊँ...
स्वार्थ से हटकर इस साधु की प्यास देखी कुछ पाने की
वह प्यास अपना उत्थान नहीं, जगत कल्याण है।
जन्मते हैं कहीं ही ऐसे लोग, खोज जो लें आप लोक-लोक।
एक विद्यालय की परिकल्पना लिए हुए यह साधु,
अब खोज में हैं उन साधुओं के जो स्वयं को इस जगत कल्याण हेतु यज्ञ में समर्पित कर दें।
एक बालक की सभी संभावनाओं को सहज पंख देने की एक मात्र मांग है इस साधु की, जिससे पंखों को बोझमुक्त एक नई उड़ान मिल सके।
यह व्यक्ति जागरण के साथ हर एक को जागने के अवसर देता है।
हार कर अपना सब कुछ, यह स्थिर दृष्टा विजेता है।
हमारे आत्मन #धर्मराज जी🙏
इतना शांत, स्थिर और उदासीन मैंने देह में यदि कुछ देखा था, तो वह था एक निष्प्राण देह!
प्राण के होते भी उदासीन, शांत और उतना ही स्थिर यदि देख सकी अपने जीवन काल मे, तो यह हैं उपलब्ध हमें सदेह🙏
जिनके भीतर न चाह है, न अचाह।
न खोने का भय है, न कोई डाह।
अपनी उपस्थिति से वह उपस्थिति हम सबमें भरते हैं।
न करके उद्यम कोई, सिखाते हैं, स्वयं सीखते हैं।
इन्होंने प्रेम से अपना घर सौंप दिया, कहते हुए "सब आपका है"
भोजन ऐसे बालक के भांति ग्रहण करते हैं जैसे वह स्वयं ही भोजन हो चले। प्रशंसा ऐसे करते हैं भोजन करते हुए,
यह सुन"और क्या बेहतर दे दूँ", यही भाव मुझमें हर बार उतरा है।
चार के बीच चल रही वार्तालाप के मध्य भी गहन शांति भीतर उतारे, नींद भर लेते हैं। हम होते तो शांत कक्ष ढूंढते शयन हेतु।
शब्द नहीं हो सके जो आपकी व्याख्या कर सके, प्रभु।
यह साक्षात्कार आपका मेरे दर्शन को नई दिशा दे रहा है।
आपके इस निस्वार्थ संकल्प और यज्ञ का हिस्सा होना मेरा सौभाग्य है, बाबा🙇
आभार इस अवसर हेतु, कोटि कोटि आभार🙏
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माया
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