१) एक बड़ा हानिकारक मंत्र हमारे कान में फूंक दिया गया है कि जीवन अभी नहीं है, जीवन कहीं और है, कहीं बाद में है। हम एक आभासीय माध्यम से, जो यथार्थ है, जो उपलब्ध ही है, उसको देखना चाहते हैं। हमारे अंदर यह भ्रम पैदा हो गया कि कुछ होने के बाद जीवन हमें उपलब्ध होगा, किसी विशेष दृष्टि या ढंग से जब हम देखेंगे तब हमको दिखाई पड़ेगा। यानी जीवन में खुशी तब आएगी जब हमको कुछ मिल जाएगा। इस तरह से आंतरिक दरिद्रता दृढ़ होती चली जाती है।
गरीबी जैसी कोई चीज होती ही नहीं है, गरीबी आयोजित है। यदि हम कोई भी साथ या संबंध निर्धारित करते हैं, तो वह माध्यम प्रथम हो जाता है। संबंध जीवंत रूप में अभी घट रहा है, पर हम आप साथ इसलिए हैं, क्योंकि हम एक ही गर्भ से पैदा हुए हैं। नैसर्गिक संबंध के बीच में हम कोई माध्यम या कारण लेकर के आ जाते हैं। इसी तरह से हम जीवन को कहीं और समझ लेते हैं कि कोई पद मिल जाएगा, कहीं और पहुंच जाएंगे वह जिंदगी है। अभी जिंदगी नहीं है बाद में कभी जिंदगी होगी, यह हमारे कान में फूंका गया, सबसे बड़ा षड्यंत्र है। यानी जहां अभी हम हैं वहां गरीबी है, जहां हम होना चाहते हैं, वहां जाकर के समृद्धि आएगी।
२) हम समझते हैं कि जितना ज्यादा संसाधन, प्रतिष्ठा हम इकट्ठा कर लेंगे, उतना ही ज्यादा हम जीवित हो जाएंगे। हमारी छीना झपटी उस चीज के लिए होती है, जो हम निर्मित करते हैं और जो सीमित होती है। कुछ हासिल होने के बाद हम अच्छे से जी पाएंगे, तो जीना दोयम हो गया, वह चीज महत्वपूर्ण हो गई जिसको हासिल करना है। माध्यम महत्वपूर्ण हो गया, जिंदगी से हम महरूम हो गए, यही सबसे बड़ी आंतरिक दरिद्रता है। माध्यम बनावटी चीज है, यांत्रिक चीज है, और माध्यमों का कोई अंत नहीं है। ब्रह्म अनंत है, और माया भी अनंत है।
जो कुटिल, चालक है या संयोग से, उसने बहुत सारे संसाधन इकट्ठे कर लिए। जिनके पास बहुत संसाधन हैं, और जिनके पास नहीं है, इन दोनों की दृष्टि एक ही बात पर है, कि जीवन में प्रचुरता संसाधनों से ही आती है। यह अंतर्दृष्टि विलक्षण है कि माध्यमों से जीवन नहीं चलता है, माध्यमों से कभी जिंदगी प्रचुर नहीं हो सकती है। हम नहीं जानते, पर इतनी अथाह संपदा हमारे पास है, जो कभी खर्च नहीं करी जा सकती है; वह संपदा माध्यमों पर निर्भर नहीं है।
३) कुछ संतों ने माध्यमों या साधनों से मुख ही फेर लिया, कि पहले उसका तो उत्सव मना लिया जाए, जो मिला ही हुआ है। मौलिक दरिद्रता भ्रम के कारण है। यदि कहीं पर भौतिक रूप से विपन्नता है, तो उसके लिए हम और आप ही जिम्मेदार हैं। जो गीत चारों तरफ फैला हुआ है, हम उस गीत की तरफ नहीं देखते हुए, कोई नया ही गीत तलाश रहे हैं। जो लोग चीजों पर कब्जा जमाए बैठे हैं, उनसे लड़ने की जरूरत नहीं है, आप अपने अंदर आनंदित होकर के रहना सीखिए, फिर आप पर कौन कब्जा जमा सकता है।
बस इतना भ्रम टूटना ही काफी है कि जिन चीजों पर कब्जा जमाया जा सकता है, उन चीजों से खुशी नहीं मिल सकती है। आप किसी की रोटी छीन सकते हैं, पर किसी की तृप्ति नहीं छीन सकते हैं; आप किसी से शरीर छीन सकते हैं, पर जीवन छीना नहीं जा सकता है, जीवन तो अमृत है।
४) एक संन्यासी ने सिकंदर से कहा कि जिसको तुम मेरा होना समझते हो, वह तो मैं हूं ही नहीं। यदि तुम मेरा सर भी काटोगे, तो जैसे तुम उस सिर को कटते हुए देखोगे, वैसे मैं भी उस को कटते हुए देखूंगा। यदि आपके पास खाना उपलब्ध है, और सर पर छत है, तो आप बिल्कुल भी गरीब नहीं हैं, इसके बाद की सारी गरीबी आंतरिक दरिद्रता है। धन, पद, प्रतिष्ठा, संबंध यह समृद्धि नहीं है, बल्कि यह समृद्धि के नाम पर गरीबी का पोषण है। समृद्धि तब पैदा होती है, जब आप स्पष्ट देख पाते हैं कि सारी गरीबी प्रायोजित है। यदि वृक्ष को पोषण मिल जाता है, पक्षी का पेट भर जाता है, तो कोई भी गरीब नहीं है।
गरीबी के नाम पर हमें आपको, हमारे ही मन के द्वारा धोखा दिया गया है, जीवन से महरूम रखने के लिए। जीवन के संदर्भ में रोजगार का कोई अर्थ नहीं है। आप क्या काम करते हैं, जीवन उससे परिभाषित नहीं हो सकता है, जीवन सब जगह परम वैभव में विद्यमान है। जीवन जहां पर घट रहा है, माध्यमों की वहां पर बात करना ही मूढ़ता है।
५) किसी ने यदि कुछ पकड़ के रखा हुआ है, छीना हुआ है, हम अपने अंदर होने वाले परिवर्तन से उस पकड़ी हुई चीज के महत्व को ही समाप्त कर सकते हैं। महत्व है तो छीना झपटी शुरू हो जाती है, नाम, प्रतिष्ठा को महत्व हम देते हैं। यदि आप इन सब को महत्व देते हैं, तो किसी संत या फकीर के सामने, आप अपने आप को हीन महसूस करेंगे। कबीर के वैभव, ऐश्वर्य के सामने, सारी मनुष्यता दीन दरिद्र मालूम पड़ती है।
हम व्यवहार, घर, गाड़ी, चाल चलन, को महत्व देते हैं, यह ओछापन है, क्योंकि हृदय नहीं है हमारे पास। हृदय हो तो कुछ और भी दिखाई पड़ेगा, किसी बच्चे की मुस्कुराहट, किसी स्त्री की चितवन में भी अपार वैभव दिख पड़ेगा। एक छोटा सा खिला हुआ फूल, किसी सम्राट से ज्यादा वैभवशाली होता है। हृदय है तो ऐश्वर्य चारों तरफ बिखरा हुआ नजर आएगा, हम थोड़े से लोग अपने रुख को बदलें। बहुत ओछी चीजों पर छीना झपटी हुई, अब जो हमें मिला ही हुआ है, उसमें डुबकी लगाई जाए। एक बार उसमें डुबकी लग जाने के बाद, बाहर जो कुछ भी है, वह महत्वहीन हो जाता है। वैसे भी हमने जो कुछ भी अर्जित किया हुआ है, वह एक दिन महत्वहीन हो ही जाता है।
भीतर की संपदा में डुबकी लग जाने के बाद, कभी कुछ छिनता नहीं है, छीनने का कोई उपाय ही नहीं है।
६) जब यह जान लिया कि मैं कल में ही जीता हूं, तो यह मत सोचना शुरू कर दो कि अब से मैं कल मैं नहीं जियूंगा, बल्कि वर्तमान में ही जियूंगा। यह देखो बस कि मैं कल मैं जी रहा हूं, उससे छेड़छाड़ मत करो। वह छेड़छाड़ की वृत्ति ही है जो आपको कल, गरीबी, या बनावटीपन में ले जाती है। जो है जैसा है यदि मानसिक रूप से उसमें छेड़छाड़ समाप्त हुई, तो नैसर्गिक रूप से उसमें गति होगी, जो यथार्थ है, जो हमें मिला ही हुआ है।
जो श्रेष्ठतम बात है, वह यही है कि, चाहे विपदा हो या संपदा हो, गरीबी हो या समृद्धि हो, उससे कतई छेड़छाड़ मत कीजिए। आपके द्वारा उपस्थिति को दिया गया अवसर, जो नैसर्गिक संपदा है, उसमें सहज ही डुबकी लगवा देगी। यह बात ही बिल्कुल गलत है कि कुछ आपको मिल जाएगा, तो जीवन में संपूर्ण समाधान आ जाएगा। समाधान कभी भविष्य में घटेगा, यह बात ही बेमानी है, समाधान तो घटा ही हुआ है।
पहिले दही जमाइए, पीछे दुहिए गाय। वह तो मिला ही हुआ है, उसके बाद भी यदि मौज है कुछ करने की, तो करिए। अस्तित्व, बुद्धि और तर्क की पकड़ से, बाहर है। जो मिला ही हुआ है, यदि कोई उसमें उत्सव मनाने लगता है, तो अस्तित्व भांति भांति से उसके सामने अनेकों द्वार खोलने लगता है। इस तरह आपके जीवन में शोक, दुःख नहीं होगा, कभी भीतर से अभाव नहीं होगा, हृदय आनंदित रहेगा। भीतर यदि दही जमी ही हुई है, तो यदि कुछ आता भी है करने के लिए, तो वह आप कर भी सकते हैं। फिर यदि कुछ नहीं भी है तब भी, आप अपने आप को कभी दरिद्र नहीं समझोगे। रोजगार की आड़ में, हम पता नहीं कितने मंसूबों को पूरा करते हैं, जो हमारे ऊपर बाहर से आरोपित किए गए हैं।
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