बिना किसी गुण, बिना किसी शक्ति के जीना क्या है?
इमाम गजाला एक बड़ा विद्वान था, उसने बहुत सारी किताबें इकट्ठी कर रखी थीं, जिससे उसको जीवन का हल मिल जाता था। एक डाकू ने उसकी सारी किताबें छीन लीं, जिससे वह बहुत परेशान हो गया कि अब मैं जीवन कैसे जी पाऊंगा। वह डाकू के पास जाकर के गिड़गिड़ाया कि मुझे यह वापस कर दो, इनके बिना मैं जी नहीं पाऊंगा। डाकू हंसा और बोला की इन बैसाखियों की तुम्हें जरूरत ही क्या है यानी कि तुमने अभी तक कुछ सीखा ही नहीं, अभी तक ये ज्ञान तुम्हारे जीवन का हिस्सा नहीं बन सका है, उसका मर्म जीवन में उतर नहीं पाया है। इस बता से गजाला में सुधि जागी कि मैं किताबों पर निर्भर ही क्यों हूं?
हमारे भीतर भी ज्ञान के बहुत सारे पन्ने खुले पड़े हैं। चित्त एक बड़ी किताब के सिवा और क्या है? संकलित अनुभव एक किताब की तरह हैं, वो जीवन नहीं है, यानी जीवन का शउर हमने सीखा ही नहीं है। हम बात-बात में धर्म या अच्छाई की दुहाई देते हैं, उसकी बैसाखी उठा लेते हैं। सोच विचार से जो भी आ रहा है, या आ सकता है, वो जीवन का नैसर्गिक ढंग नहीं है।
मन किताब के पन्नों का इधर उधर हो जाना है, और बुद्धि यानी उनका थोड़ा व्यवस्थित हो जाना है, पर ये दोनों किताबों में लिखी हुई बातों की तरह ही हैं। यदि कुछ जीवन का हिस्सा हो जाता है, तो उसे पढ़ने या याद रखने की आवश्यकता नहीं पड़ती है, वह तो हर क्षण सहज ही उपलब्ध है।
जिसे हम जानते हैं उसे ही हम गुण का नाम दे सकते हैं, पर जो नैसर्गिक है उसमें सोचने की जरूरत नहीं पड़ती है। जो भी शक्ति या गुण इकठ्ठे किए गए हैं, वो एक बुराई है, एक जबरजस्ति है।
एक व्यक्ति ध्यान सीखने के लिए एक साधु के पास गया, जो की शतरंज का अच्छा खिलाड़ी था। साधु ने उससे कहा कि मैं तुम्हें ध्यान सिखा सकता हूं पर पहले तुम्हें मेरे साथ शतरंज का खेल खेलना पड़ेगा, और साधु ने कहा कि यदि मैं हार गया तो मैं ये सारा आश्रम छोड़कर के चला जाऊंगा और यदि तुम हार गए, तो मुझे तुमसे कुछ नहीं चाहिए। जब उन्होंने खेल खेलना शुरू किया तो वह व्यक्ति समझ गया कि इनको तो शतरंज खेलना नहीं आता, तो वह जान बूझकर हारने का प्रयास करने लगा। उसने सोचा शक्ति इनके हाथ में शोभा देती है, उसके अंदर सहज रूप से करुणा का जन्म हुआ, जिससे धर्म प्रवेश कर सकता है। साधु ने उसके बाद वह खेल बंद कर दिया और उसे आश्रम में ले लिया। वह करुणा या धर्म उसमें सहज प्रवेश किया था, उसमें कारण हम बाद में डालते हैं।
हम चाहते हैं कि जो कुछ भी अच्छा हो, वो मुझे ही मिले, हम आप ताकत, हुनर, ज्ञान ही इकट्ठा करते रहना चाहते हैं। ताकत गुण जो हम जानते हैं वो असल नहीं हैं, असली सद्गुण जीवंत होते हैं। वास्तव में तो सद्गुण हमें होने भी नहीं चाहिएं, वह हमें, यानी मैं को शोभा नहीं देते।
अमृता प्रीतम को समझ आया कि वह गुण जो उपहार के लिए लालायित हैं, वह निरर्थक हैं। आपसे कुछ शुभ हुआ, और वो जान गया जहां से वह शुभ प्रकट हुआ है, तो इसके अलावा आप और क्या चाहते हैं?
गुण और शक्ति जो हम अपने लिए जुटाते हैं, वो हमें उस अखंड जीवन से वंचित करती है, जो अटूट है। हम सब सीखाए गए हैं कि सामर्थ्य से ही जीवन सफल होता है, जो की बिल्कुल गलत बात है।
यदि हम गुण और शक्ति इकट्ठा करते हैं, तो हम अशेष की ऊर्जा से वंचित हो जायेंगे। इस गाती हुई चिड़िया में सद्गुण है, उसमें नैसर्गिक प्रेम प्रस्फुटित हो रहा है।
ताकत गुण अपने पास रखना मुझे बहुत विराट से वंचित कर रहा है, क्योंकि हम वाहवाही लूटने के लिए गुण इकठ्ठा करना चाहते हैं। सागर सामने है और हम कुछ छींटें पकड़ कर बैठे हैं। जबकि सही समझ से ध्यान सहज घटता है। सही समझ है कि मेरा जीवन में अनाधिकृत हस्तक्षेप, जीवन को घात पहुंचा रहा है। वैसे भी यहां आपका है भी क्या, और यहां कुछ भी गैर नहीं है, यह निसर्ग का जीवन है।
मेरे सामर्थ्य की घोषणा मुझे ही बल देती है, जैसे अभिनेता सब कुछ बेचता रहता है, ये दिखाने या सिद्ध करने के लिए कि मैं कुछ विशिष्ट हूं।
गुण आपको भ्रष्ट कर देंगे। अगर आप दान देखकर के अंदर से खुश हो रहे हैं कि मैं बड़ा दानी व्यक्ति हूं, या किसी का गिरा हुआ बटुआ उसको लौटा करके खुश हो रहे हैं, तो वो ऐसा है कि एक बेईमान व्यक्ति ईमानदारी का नाटक कर रहा है।
बिना किसी गुण, बिना किसी शक्ति के जीना क्या है?
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Ashu Shinghal
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