हमन है इश्क मस्ताना
कबीरा इश्क का मारा
हमन है इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या?
रहें आजाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या?
जो बिछुड़े हैं पियारे से, भटकते दर-ब-दर फिरते,
हमारा यार है हममें, हमन को इंतजारी क्या?
खलक सब नाम अपने को, बहुत कर सिर पटकता है,
हमन गर नाम साँचा है, हमन दुनिया से यारी क्या?
न पल बिछुड़े पिया हमसे, न हम बिछड़े पियारे से,
उन्हीं से नेह लागी है, हमन को बेकरारी क्या?
कबीरा इश्क का मारा, दुई को दूर कर दिल से,
जो चलना राह नाज़ुक है, हमन सिर बोझ भारी क्या?
कबीरा इश्क का मारा।
कबीरा इश्क का मारा, दुई को दूर कर दिल से।
हम इंसान इश्क के मारे हैं, यानी जिसके जीवन में इश्क नहीं है। यदि इतनी बात समझ में आ गई तो द्वैत को हृदय से दूर कर दो, ऐसे गलो की दो ना बचें। जीवन में दुख इश्क के अभाव की वजह से है, और समाधान है हृदय से द्वैत को मिटा देना, दो के एहसास को दूर कर देना। जिनको भी हम समझते हैं कि वह जीवन में दुख का कारण है, वह सब बहाने हैं, मूल कारण है कि व्यक्ति में इश्क का अभाव है।
हमन है इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या?
यदि हमें हमन शब्द समझना है तो उपनिषदों का मैं शब्द समझना होगा। जिससे हम मैं समझते हैं वह खंडित है, टूटा हुआ है, जिसमें तू भी आता है। हमारे 'मैं' में द्वैत है, मैं हूं और अनेक 'तुम' हो। यह उपनिषद का मैं नहीं है, क्योंकि उपनिषद के मैं में तू नहीं बचता।
कबीर साहब जब कहते हैं हमन, तो वह यह नहीं कहते कि मैं इश्क हूं, या मुझे इश्क है। मैं प्रेम करता हूं सबसे निचली बात है, मैं प्रेम हूं, यह उससे थोड़ा सा ऊपर का स्तर है। कबीर साहब ने जब हमन शब्द का उपयोग किया है, तो उसमें सब कुछ शामिल है।
मस्ताना यानी वह इश्क जो झूमता हुआ हो, जिसमें रचनात्मकता है, जिसमें अंकुर फूट रहे हों, जो सतत फैल रहा हो। पहले ध्यानी को शून्य पता चलता है, और आगे जाने पर वहां बहुत कुछ घटना शुरू हो जाता है, जो की अव्याख्य है, उसे कबीर साहेब इश्क मस्ताना कह रहे हैं। जिसे मैं, तू, वह, यह, किसी भी नाम से संबोधित किया जा सकता है, वो हमन या इश्क है। जहां भ्रामक शैली का अतिक्रमण हो गया है, वह है इश्क मस्ताना।
रहें आजाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या?
यह प्रेम अपने में ही आजादी है, मुक्ति का कोई अलग से प्रयास करने की आवश्यकता नहीं है। मुक्ति या फिर इश्क जो मस्ताना है, यह एक ही बात को कहने के दो ढंग हैं। दुनिया से यारी का अर्थ है जहां मैं और तू हैं। हम भीतर दीन, दरिद्र हैं, तो बाहर से यारी करते हैं रूपए पैसे से, किसी ऐसे व्यक्ति से जो हमारे स्वार्थ या भय के अनुसार हमसे जुड़ता है, ताकि हमारी दरिद्रता, अकेलापन मिट सके। हम यारी करते हैं उनसे जिनके पास ज्यादा बड़ा पद, प्रतिष्ठा है, ताकि हमारे अंदर की दीनता मिट सके। यह सब तब होता है जब हमारे भीतर जो मस्ताने इश्क का ढंग है, उसको उघाड़ा नहीं गया हो।
अपने अंदर इश्क के अभाव को, खोखलेपन को, भरने के लिए हम स्वार्थ की यारी करते हैं। हम दूसरे का शोषण कर रहे हैं, और दूसरा हमारा शोषण कर रहा है। जो भी संबंध हम बनाते हैं, वह भय या स्वार्थ पर आधारित होते हैं। हम चाहे जितना दूसरे को सम्मोहित करें, या जितना आत्म सम्मोहित हों, पर सच्चाई यही है। कबीर साहब कहते हैं जब भीतर का इश्क मस्ताना उद्घाटित हो गया, तो फिर दुनिया से यारी क्या?
इसका अर्थ यह नहीं है कि संसार को छोड़कर के भाग जाना है। जब सारा संसार ही इश्क जैसा दिखाई पढ़ रहा है, तो फिर यारी वाले दांव पेंच की कोई जरूरत नहीं रह जाती है। वह सारी जो ऊर्जा, चतुर बुद्धि, हम लगाये रखते हैं, संबंधों को व्यवस्थित बनाए रखने में, उसकी आवश्यकता नहीं रहती।
हमारा यार है हममें।
- जो बिछुड़े हैं पियारे से, भटकते दर-ब-दर फिरते।
जो इश्क या प्रेमी से बिछड़ जाते हैं, उनके लिए और कोई सुकून देने वाला आश्रय बचता नहीं है। मौलिक जीवन जो प्रेम है, उससे जड़ उखड़ गई है, इसलिए हम दरबदर भटकते फिर रहे हैं। प्रेम के अभाव में चाहे किसी भी दर पर चले जाएं, हाथ में रेत ही आयेगी। इश्क के मारे को केवल इश्क ही तृप्त कर सकता।
- हमारा यार है हममें, हमन को इंतजारी क्या?
जब बूझ पैदा हो गई, तो जो दर दर जाकर हम इंतजार करते हैं कि शायद कोई दरवाजा खुल जाए, वो सब भागदौड़ अब बंद हो गई। हम पैसे, पद, प्रतिष्ठा, के दर पर इस उम्मीद से बैठे हैं कि कोई और बड़ा दरवाजा खुल जाए। कबीर साहब बाहर किसी दरवाजे पर नहीं जाते, वो कह रहे हैं कि हमारा यार है हममें। वो कला पाई है कि जो इश्क का दरवाजा अंदर ही है, वह खुल जाता है, तो जो यार है वह मिल जाता है। इंतजार बाहर होता है, भीतर कोई इंतजार नहीं है। जो इश्क का मारा है, उसी को मैं का ढंग कहते हैं।
मैं जो भी करूंगा उसमें इश्क का अभाव ही होगा, वो दुख ही लेकर के आएगा, और यहीं पर बात खत्म हो जाती है। जिसको मैं की सीमा समझ में आ गई, उसको इंतजार करने की जरूरत नहीं है। वो भटकते हैं दूसरी जगह, जिनको लगता है कि खुशी कहीं बाहर से मिल सकती है, या दुख कहीं बाहर से दूर हो सकता है। कबीर भी भटके होंगे, पर अब नहीं भटक रहे, क्योंकि उनका यार उनके अंदर ही है।
नाम सांचा है।
- खलक सब नाम अपने को, बहुत कर सिर पटकता है।
खलक यानी दुनिया। वही मैं अपनी जीवंतता के भ्रम को, अपने नाम को कायम रखने के लिए सारी दुनिया में भटकता रहता है, अपना सिर पटकता रहता है। सारी दुनियादारी, रिश्ते नातों में, हम केवल सिर पटक रहे हैं, कि हम बने रहें, हम जीते रहें, कि मरने के बाद भी मेरा नाम बचा रहे।
- हमन गर नाम साँचा है, हमन दुनिया से यारी क्या?
नाम जप के चार चरण होते हैं, बैखरी, मध्यमा, पश्यति, और अपरा। बैखरी जब कोई भी नाम बोलकर के लिया जाए, जैसे राम, शिव, ॐ आदि। मध्यमा में मुंह से नहीं बोला जाता है, पर भीतर मन में लगातार वह नाम चल रहा है। पश्यति में नाम जप को सिर्फ देखा जा रहा है, वो सांसों में ढल गया है, और उस देखने में ही नाम जप चल रहा है। पश्यति तक प्रयास किया जा सकता है, पर अपरा तक कोई प्रयास नहीं जा सकता है। पश्याति में देखने वाला अलग है, और नाम लेने की प्रक्रिया अलग है। नाम सांसों में ढल करके चल रहा है और हम उसे साक्षी की तरह देख रहे हैं। अपरा में देखने वाला, जो चीज देखी जा रही है, उसमें डूब जाता है, यानी दुई का अंत हो जाता है।
नाम का कौशल अपने चरम पर ले जाकर के, समाप्त हो जाता है। धीरे-धीरे नाम जप पीछे छूट गया, सांस पर ध्यान बना हुआ है, केवल देखा जा रहा है, यानी इस तरह सांस को देखे जाने में जो सोच विचार का सारा क्रियाकलाप है, वह भी दिख रहा है। सांस गहरे में हमारे विचारों से जुड़ी हुई है, यदि हम सांस के साथ कुछ छेड़छाड़ करते हैं तो विचारों के साथ भी छेड़छाड़ होने लगती है। इस तरह की साधना में बात सुधर तो गई है, पर अभी भी बनी नहीं है।
अपरा मैं हम कुछ नहीं कर सकते हैं, वह प्रसाद की तरह उतरती है, वह कारण प्रभाव में काम नहीं करती है। यानी वह देखना जिसमें कोई देखने वाला नहीं है, वह जीना जिसमें कोई जीने वाला नहीं है। पश्यति या साक्षित्व की स्थिति चाहे कितनी भी परिपक्व हो जाए, उसमें द्वैत बना ही रहता है। असंभव प्रश्न उठाने के बाद हम कुछ नहीं कर सकते, यदि उसके उत्तर की भी प्रतीक्षा करी जा रही है, तो हम उस कीमिया के साथ छेड़छाड़ कर रहे हैं।
अपरा यानी ऐसा दर्शन जिसमें हम समाप्त हो जाते हैं, केवल एक सीसीटीवी कैमरे की तरह रिपोर्टिंग बची रह सकती है। वह घटना जिसमें केवल उपस्थिति पाई जाती है बिना हमारे कुछ किए। यह उपस्थिति प्रसाद की तरह उतरती है, वह भी यदि हम सौभाग्यशाली हुए तभी। असंभव प्रश्न में बाकी तीनों स्थितियों को सरका करके सीधे अपरा को जीवन में उतरने का अवसर दिया जा रहा है। आजकल मन बहुत कुशल हो गया है, हो सकता है राम राम जपते हुए हम सारी जिंदगी बिता दें, फिर भी कभी मध्यमा या पश्यति तक नहीं पहुंच पाएं।
वह नाम जो बैखरी से शुरू हुआ था, मध्यमा से गुजरा, पश्यति में परिपक्व हुआ, और वह अपरा में आकर के सांचा हो गया, सिद्ध हो गया। सौभाग्य से अपने ऊपर किसी कीमिया से काम हुआ, और अपरा में आकर के वह नाम सांचा हो गया। दुनिया के लोग बाहर अपना नाम सिद्ध करने में लगे हुए हैं, जो कि संभव ही नहीं है। नाम बाहर सिद्ध नहीं हो सकता, नाम भीतर ही सिद्ध होता है, जैसे कबीर साहब का सिद्ध हुआ। नाम ने सत्य को उघाड़ दिया, सत्य को उतरने का अवसर दे दिया।
अगर भीतर वह नैसर्गिक जागरण, वह इश्क, सांचा हो गया, तो किसी की लल्लो चप्पो करने की जरूरत नहीं है, फिर हमन दुनिया से यारी क्या? फिर किसी को छलने या छलाने की जरूरत नहीं है। जब भीतर सिद्धि है, तो फिर क्या किसी से झूठ बोलना या चालाकी करना। जब भीतर असिद्धि होती है, तो बाहर हम कुछ सिद्ध करना चाहते हैं। भीतर यदि समाधान हो गया, तो बाहर तथाकथित रूप से लल्लो चप्पो वाली यारी या किसी तरह के प्रपंच की जरूरत नहीं है। अब कारण प्रभाव, लेनदेन वाली यारी की कोई जरूरत नहीं रही। कबीर जैसा यार कौन होगा, जो बिल्कुल दूसरी कोटि के, इश्क करने वाले यार हैं।
हमन को बेकरारी नहीं।
- न पल बिछुड़े पिया हमसे, न हम बिछड़े पियारे से।
यहां कोई कंपन नहीं है कि पिया हमसे बिछड़ जाएंगे, कि पिया हमको छोड़ करके किसी अन्य के साथ चले जाएंगे। बाहर के पिया झांसा दे सकते हैं, पर यहां पिया नहीं बिछड़ते। यहां सुहाग सेज सजी, तो सज गई, फिर उसमें बिछड़ने का या दुई का कोई उपाय नहीं बचा। जब दुई का झांसा खत्म हुआ तब काव्यात्मक रूप से ऋषि, या कबीर साहब कहते हैं, न पल बिछुड़े पिया हमसे, न हम बिछड़े पियारे से।
हमारे संबंधों में तो थोड़ा सा मिलन होता है, और बाद में बिछोह की कोई सीमा नहीं है। कबीर साहब कहते हैं कि एक ढंग ऐसा है जहां मैं समाप्त हो जाता हूं केवल इश्क मस्ताना शेष रह जाता है। जब देखने समझने में, मैं ही समाप्त होता चला गया, तो यहां अब कौन बिछड़ेगा, या किससे बिछड़ेगा? यह मुर्दा इश्क नहीं है, यह मस्ताना इश्क है, जिसमें पांव झूम झूम जाते हैं।
कबीर साहब जब प्रेम कहते हैं, तब उनका पूरा जीवन एक जीवंत प्रेम का गीत है, वो जिंदा उपनिषद हैं। साहेब जब चलते हैं तो जीवित ऋचा चलती है, जीवंत नृत्य चलता है। वह नृत्य नहीं जो शुरू हुआ है और जिसका अंत है, साहब का जीवंत नृत्य पाया जाता है, और उसका कोई अंत नहीं है, वह नाचता हुआ जीवन है।
- उन्हीं से नेह लागी है, हमन को बेकरारी क्या?
बेकरारी उसको होती है जिसको पिया के छिन जाने की संभावना है, उनका चैन, सुकून छिन जाता है। हाड़ मांस की देह में, बगुले जैसे फूटते हुए मन में, कैसे हम किसी के प्रति आश्वस्त हो सकते हैं? थोड़ी सी देर में ही देह से रुचि समाप्त हो जाती है, तो कैसे उसमें सुकून मिलेगा? कबीर साहब कहते हैं कि अब ऐसे पियारे से प्रेम हुआ है, जिनसे बिछड़ने का कोई उपाय ही नहीं है। कबीर साहब पियारे को कम कह रहे हैं, पर अपने को कह रहे हैं कि अब वह नहीं रहे। कबीर साहेब कहते हैं -
प्रेम पियाला जो पिए, सीस दक्षिणा देय।
लोभी सीस न दे सके, नाम प्रेम का लेय।।
पहले मैं रुपी सिर को दक्षिणा में दिया है, उसके बाद प्रेम का प्याला पिया है। ये बात वो कह रहा है जिसने अपने सिर की आहुति दे दी है, कि न पल बिछुड़े पिया हमसे, न हम बिछड़े पियारे से। यहां अब ऐसा कुछ नहीं बचा है, जो बिछड़ सकता है, ऐसी कोई डोर नहीं है जो टूट सकती है। जब मैं के ना होने से सब तरह के करार के आधार ही खत्म हो गए हैं, तो बेकरारी की जगह ही कहां बच सकती है? बड़े सुंदर तरीके से कबीर साहेब अपनी स्थिति को प्रस्तुत कर रहे हैं।
हमने जीवन दांव पर लगाया तो हम जान सकते हैं, पर उसकी महिमा कुछ और हो जाती है जो जना देता है, जो दूसरे में भी उसकी धुन बजा देता है। तीर्थंकर कोई कोई होता है, कबीर साहेब अवतारों के अवतार हैं। अब ऐसा नेह लागा है कि बेकरारी की कोई जगह बची ही नहीं है, अब सिर्फ रास है। एक ऐसा हनीमून चल रहा है जिसका कोई अंत नहीं है।
दुई को दूर कर दिल से।
- कबीरा इश्क का मारा, दुई को दूर कर दिल से।
जो इश्क से बिछड़े हैं, उनसे कबीर साहेब कह रहे हैं कि दुई को दूर कर दिल से। द्वैत को दिल से दूर किए बिना, इश्क में डूबने का कोई और उपाय नहीं है। हम सबसे ऊपर होकर के दूसरों को अपने से दूर नहीं कर सकते हैं, इस तरह कोई सफल नहीं हो सका है। दुई यानी इस मैं को मिटाया जा सकता है, दूसरे को नहीं। यह बात तर्क में उतरती भी है, और तर्क में समाती भी नहीं है। एक ही उपाय है, मैं को विसर्जित हो जाने दीजिए, तो इश्क में भीगा जीवन वहां पाया जाता है।
- जो चलना राह नाज़ुक है, हमन सिर बोझ भारी क्या?
ये राह बड़ी नाजुक है, क्योंकि मैं का अंत होना कोई सामान्य बात नहीं है। हम ऐसी चीज को मिटाने चले हैं, लाखों साल से जिसने अपनी जड़ जमा रखी है। बड़ा संभल कर चलना होगा, जैसे कोई पहाड़ी नदी पार कर रहे हैं, जो रास्ता फिसलन भरा है, तो आप बोझ नहीं ले सकते हैं। राग, द्वेष, मान्यता, ज्ञान, ऐसा हो सकता है, बैर, यारी, विराग, संपत्ति का आग्रह आदि यह सब बोझ हैं। जिसको प्रेम को खोजना है उसको सारे बोझ फेंक देने होंगे। जैसे किसी ऊंचे पहाड़ की चोटी पर चढ़ने में बहुत थोड़ा सा भी वजन उठाना बहुत मुश्किल हो जाता है।
प्रेम नैसर्गिक रूप से खोजना है, और जितनी भी व्यर्थ की चीजें हैं चित्त से, उनको निकाल फेंकना है। जो मस्ताना प्रेम जांचने, परखने, शोध के लिए निकला है, उसको प्रेम के लिए जो उपयुक्त नहीं है, वह नैसर्गिक रूप से छूट जाना चाहिए। जो प्रेम के लिए अपनी आहुति तक देने के लिए भी तैयार है, उसे उन सब चीजों से मुक्त हो जाना चाहिए, जो प्रेम नहीं है। बड़े से बड़ा जो बोझ है, वह मैं है, ये सभी भारों का आधार है।
साहिब का घर कहुँ ऊपरे, जहाँ सुलहली गैल।
पाँव न टिके पिपीलिका, ज्ञानी बाँधे बैल।।
उस तक पहुंचने का रास्ता बहुत ही फिसलन से भरा है, जहाँ चींटी के पैर नहीं टिकते, वहाँ ज्ञानी लोग बैल पर सामान लादकर पहुंचना चाहते हैं। जब राह नाजुक है तो यह जो बड़ा बोझ है इसको जांचें, समझें, और इसको विसर्जित करें, कीमिया हमारे पास उपलब्ध है ही। असंभव प्रश्न या खुद की तरफ सवाल उठाना, और उत्तर की बिल्कुल भी अपेक्षा नहीं रखना, इससे कीमिया सिद्ध हो जायेगी और जो प्रेम हमारा स्वभाव है वो जीवन में पाया जायेगा।
शुरुआत अपने से करें, हम बाहर कुछ सुधारने जा रहे हैं तो हम कबीर साहेब के विपरीत जा रहे हैं। साहेब कह रहे हैं कि इश्क मस्ताना भीतर है, दुनिया से यारी क्या, या दुनिया को सुधारना क्या? सुधरना अपने से शुरू होता है, हम अपने अंदर गहरे उतरेंं, देखें, और मैं को समझें। इस मैं को समझने में यदि मस्ताना इश्क झनक उठता है, तो अपने आप हमसे यथार्थ के धरातल पर, पूरी मनुष्य चेतना में एक अभिनव क्रांति जन्म ले सकती है।
Comments