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हंसा सुधि करो आपन देश - कबीर उलटवासी का मर्म (अरण्यगीत) - धर्मराज



हंसा सुधि करो आपन देश।

 

१) हंसा सुधि करो आपन देश।

 

जहां से आयो सुधि बिसराये,

चले गयो परदेश।

 

वही देशवा में जोते न बोवे,

मोती फरे हमेश।

 

वही देसवा में मरे न बिगड़े,

दुख ना पड़त कलेश।

 

चलो हंसा बसों मानसरोवर,

मोती चुगो हमेश।

 

कहत कबीर सुनो भाई साधो,

अजर अमर वह देश।

 

२) कबीर को दोहराते हुए भी हम वही के वही रहते हैं। क्या हम सच में कबीर को समझ रहे हैं, या उसी धोखे में कबीर को भी ले कर के आ रहे हैं। यदि झांसा नहीं है तो मोह भंग हो जायेगा, यदि मोह भंग नहीं हुआ तो समझ लें कि कबीर को भी हम झांसे में ले आए हैं। रूपक के स्तर पर हंस दूध को पी लेता है, और पानी को छोड़ देता है।

 

साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय।

सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।।

 

इस संसार में ऐसे सज्जनों की जरूरत है जैसे अनाज साफ़ करने वाला सूप होता है, जो सार्थक को बचा लेंगे और निरर्थक को उड़ा देंगे।

 

जो पार निकल गया उसे परमहंस कहते हैं, जिसको पार निकलने की प्यास हो, उसे हंस कहते हैं, जो कचरा नहीं खाता है। वह वही सेवन करता है, जिससे जीवन में क्रांति उत्पन्न हो सके, जिससे दुख का झांसा भंग हो सके। सुधी मतलब याद करो, पहचानो या जागो। यहां जो प्रमाद फैला हुआ है, उसके प्रति जागना सुधि है। जो आपका अपना होना है उसके प्रति जागो।

 

जो भी चीज छिन जानी है, वो अपना देश नहीं हो सकता है। वह कौनसा देश है, जहां से हमको हटाया नहीं जा सकता है। जब हम एक जगह से भंग होते हैं, तभी दूसरी जगह स्थित होते हैं। क्यों यहां दर दर ठोकर खाते फिरते हो, वहां चलो जहां से आए हो, जहां से हटने का कोई उपाय ही नहीं है।

 

जोते ना बोए, यानी हम यह सोचते हैं कि हम कुछ करेंगे तभी कुछ होगा, हमें जीवन में कुछ हासिल करना है। कहा जाता है कि "सेवा करने से पुण्य मिलता है", पर कुछ भी करने से जो भी मिलता है, वह तुच्छ है; मौलिक रूप में जीवन कुछ करने से नहीं मिला है। जीवन कारण प्रभाव से नहीं आता है; जीवन प्रसाद के रूप में मिला ही हुआ है। जो अकारण मिलता है वही जीवन हो सकता है, जो कुछ करने से मिले, वो जीवन या संबंध नहीं हो सकता है। शत्रुता तो जीवन है ही नहीं, मित्रता भी जीवन नहीं है। कुछ निवेश करने से फल आता हो, ऐसा भी कुछ नहीं है। फल की कामना करेंगे तो जो अभी है उसे जीने से चूक जायेंगे, क्योंकि आपका निवेश भविष्य में हो गया।

 

पहले संसार में कोई लक्ष्य होता है, फिर अध्यात्म में कोई लक्ष्य बन जाता है। वहां मोती तो हमेशा उपलब्ध हैं ही; प्रसाद स्वरूप जो परम श्रेष्ठ है, वह वहां पर उपलब्ध है ही। रुपया कमाना है तो श्रम करना ही पड़ेगा। जहां पर प्रेम या जीवन जीना घट रहा है, वहां पर आप कुछ भी यदि करते हैं, तो आप चूक जायेंगे। जहां पर मैं नहीं हूं, वहां पर बसंत ही है।

 

उस स्थान पर ना कुछ बनता है ना बिगड़ता है, पैदा ही नहीं होता तो मरेगा कैसे? यह क्या है, जो बनता भी नहीं है और बिगड़ता भी नहीं है? जो भी हम संबंध बनाते हैं, या महत्वकांक्षा पैदा होती है, वह मरती भी है; यही सनातन धर्म है जिस तरह से अस्तित्व चलता है। यदि आपने शरीर के आधार पर कोई तृष्णा बनाई है, तो एक शोक वहां पर हमेशा बना रहेगा। हम समझते हैं कि दोषारोपण के कारण संबंध बिगड़ रहा है, पर वास्तव में वह दूसरी तरफ जाता हुआ पेंडुलम अपना कोई कारण खोज रहा है। यदि आप ध्यान से देखेंगे तो अपने ऊपर हसेंगे की इतनी छोटी सी बात से किसी से संबंध टूट गया, पर मन इस बात को देखने नहीं देता। मन कहता है कि एक छोटी सी कोई घटना हो गई और अब वह व्यक्ति बुरा हो गया। बहाने हम बाद में खोजते हैं, गति पहले हो जाती है; कबीर साहब कहते हैं कि यह प्रपंच, क्लेश, बनावटी सुख आदि उस देश में नहीं है।

 

कोई इच्छा पूरी हो जाए, यह एक झांसा है, मन उस स्थिति की बस एक कल्पना मात्र करता है। हमें लगता है कि सम्राट बड़ा सुखी होगा, पर सुख आयोजन से नहीं मिल सकता है। सुख किस धरातल पर घटता है, यदि उन संस्कारों को आप हटा दें तो जिसको आप सुख कहते हैं, वो सुख नहीं रहता।

 

मानसरोवर में एक ऐसे रूपक की कल्पना है जहां पर हंस रहते हैं, और वो हंस सब कुछ पार कर चुके हैं। वह जिसने मन के पार जाने की कीमिया सीख ली है, उसे मन का सरोवर डूबा नहीं सकता है। कबीर साहब कहते हैं कि उस पार चलो जिसके पार कुछ भी नहीं है; जिसके पार कुछ होता ही नहीं, बस वह ही वह होता है। चलो मानसरोवर के पार बसते हैं, जो निर्दोष, अकलुषित है, जहां कोई दोष नहीं है; वहां फिर मोती ही चुगने को मिलता है। वह मन के पार का जो देश है वहां गए तो गए, उस पार उतरे तो उतरे। एक बार उसमें छलांग लगाने की कीमिया आ गई, तो फिर वह छीनी नहीं जा सकती है। फिर मन कैसी भी स्थिति लेकर के आए, ऐसे मन को फिर कभी दुखी या सुखी नहीं किया जा सकता है।

 

उस देश में ना कुछ जरा है, ना मृत्यु है, मतलब वह समय से परे है; समय में ही कोई बूढ़ा होता है, या किसी की मृत्यु होती है। शरीर ही नहीं, यह जो काल्पनिक मैं है, यह बिल्कुल ही बूढ़ा है, सड़ गल गया है, फिर भी वो मर नहीं पाता है; क्योंकि वह बनावटी है, और मरने से डरता है। क्या कोई जीना ऐसा है, जो मन के धरातल से मुक्त है? इसका उत्तर हमें कभी नहीं आएगा, पर जीवन में वह सब भंग हो जाता है, जो की झूठ है। क्या कोई जीना ऐसा है, जिसकी तरफ कबीर साहब इशारा कर रहे हैं, जिसको हम भूल गए हैं। जैसे कोई नाटक करने वाला कलाकार यह भूल ही गया कि वह केवल सावित्री का चरित्र कर रहा है, वो वास्तव में सावित्री नहीं है, और इसीलिए सत्यवान की मृत्यु पर रो रहा है।

 

जब कबीर साहब कहते हैं कि उस देश चलो, तो उनका रुझान इस देश की मिथ्या को भंग करने की तरफ ज्यादा है। इसके झूठेपन को देखने का ज्यादा महत्व है, और उसके पार जो है वह तो हाजिर हजूर है ही। वहां मानसरोवर के पार, तो सब कुछ फलता फूलता रहता है, मोती ही चुगने को मिलता है, वहां ना दुख है ना क्लेश है, अजर अमर वह देश है।


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