top of page
Image by NordWood Themes
Image by NordWood Themes

हरि ने अपना आप छिपाया (कबीर उलटबासी - धर्मराज)

Ashwin


प्राण हि तजूँ हरि नहीं बिसारूँ


हरि ने अपना आप छिपाया

हरि ने नफीज कर दिखराया

हरि ने मुझे कठिन विध घेरी

हरि ने दुविधा काटी मेरी


हरि ने सुख-दुख बतलाए

हरि ने सब दुंद मिटाए

ऐसे हरि पै तन-मन बारूँ

प्राण हि तजूँ हरि नहीं बिसारूँ


हरि ने अपना आप छिपाया


जब रुमाल में गांठ लगी थी तब भी वह रुमाल ही था, और जब रुमाल से गांठ खोल दी गई, तो गांठ का वजूद समाप्त हो गया। जीवन का मसला भी कुछ ऐसा ही है, ये कोई बहुत गंभीर आयोजन नहीं है। जो जानने जैसा है, वो बहुत सरल है, उसको जानने की चेष्टा ही हमको उससे दूर करती है।


हरि ने अपना आप छिपाया - रुमाल ने कुछ ऐसा आवरण प्रस्तुत किया है, जिसमें उसका वजूद छिप गया है। जैसे गांठ लगने के बाद भी रुमाल ही उपस्थित रहता है, वैसे ही अपने को छुपा कर के भी हरी उपस्थित रहता है। गांठ लगने से रुमाल का यथार्थ समाप्त नहीं हो जाता, पर गांठ का आभासीय वजूद जरूर पैदा हो जाता है। हरि के एक ढंग ने अहंकार का अलग-अलग स्वरूप पैदा कर दिया, पर अहंकार के पैदा हो जाने से हरि नहीं छिपता है। छुपाने का मतलब है कि होकर के भी वह नहीं दिख रहा है। यदि गांठ की तरफ दृष्टि है, तो रुमाल को देखा नहीं जा रहा है।


हरि ने नफीज कर दिखराया - यह सारी सुंदरता या शोभा हरि ने या रुमाल ने ही पैदा की है। कुछ कलाकार रुमाल को ऐसे आकार देते हैं कि वह गुलाब के फूल जैसे लगने लगता है, पर वास्तव में वहां पर गुलाब का फूल नहीं है। जो सुंदरता दिख रही है, वह वास्तव में हरी का ही होना है, वह असल नहीं है।


लीला का अर्थ होता है जो जैसा दिख रहा है, वह वैसा है नहीं। वह हमारे देखने के कारण वैसा दिख रहा है, यदि हमारी दृष्टि बदल जाए, तो कुछ और दिखेगा। यदि हमारी दृष्टि गांठ पर है, तो हमारी दृष्टि लीला पर है, और यदि हमारी दृष्टि रुमाल पर है, तो हमारी दृष्टि हरि पर है। गांठ एक संयोग है, असल वजूद रुमाल का ही है।


हरि ने मुझे कठिन विध घेरी, हरि ने दुविधा काटी मेरी - जब तक जो दुख है जीवन में उसका कारण कोई और है, तब तक वो लीला है। जब यह समझ आ गया कि मेरे दुख का कारण मैं ही हूं, तो वहां से लीला समाप्त होने की तरफ गति करने लगती है। और इस समाप्ति के लिए दो उपाय किए गए हैं, बेशर्त समर्पण या बेशर्त होश।


जब कण कण में भगवान हैं, तो वह कौन है जो दुख और भय पैदा कर रहा है? और यदि शैतान हमको भटका रहा है, तो शैतान ईश्वर से ज्यादा ताकतवर हो गया। पूर्व के धर्म में इसका उत्तर है कि यह सब लीला है। यहां हम कुछ भी अच्छा करने चलेंगे, तो साथ ही कुछ बुरा भी होगा। यदि हम कुछ शुभ करने चलेंगे, तो हमें अशुभ भी मिलने शुरू हो जाएंगे। शुभ काम में जो होश में होगा वह बैरी नहीं होगा, पर कमजोर लोग बैरी हो जाएंगे। यहां जो भी कुछ घट रहा है, वह वस्तुतः नहीं है, यहां बस एक आभासीय क्रम है। एक आभासीय सत्ता है, जिसको अच्छा या बुरा घटता हुआ सा प्रतीत हो रहा है।


यहां जो भी दुख, दुविधा या संताप है, वह भी उस हरि का ही होने का एक ढंग है। बस इस बात को ढंग से समझा नहीं गया है। उसी रुमाल के द्वारा कभी कोई ऐसी आकृति बन रही है जिससे मैं नहीं चाहता हूं, जो दुख पैदा करती है। यदि गांठ को किसी पतले पाइप से निकलना हो, तो वह फंस जाएगी, गांठ भी रुमाल का ही एक ढंग है, जिससे वह पैदा हुई है।


गांठ खोलने का तरीका भी वही है कि जिस तरीके से उसे लगाया गया था, ठीक उसके विपरीत दिशा में उसको खोला जा सकता है। जिस विधि से भोगने वाला पैदा हो रहा है, बस उस विधि को समझने से वह समाप्त हो जाता है।


सुख या दुख हरि दोनों की लीला है


हरि ने सुख-दुख बतलाए, हरि ने सब दुंद मिटाए - हरि ने केवल दुख ही नहीं बताए, हमें सुख का भी अनुभव होता है। सुख या दुख दोनों हरि की लीला ही हैं। जो मौलिक तत्व का रुमाल है, वहां कोई करने वाला नहीं है। समस्या की संरचना में ही समस्या का समाधान है। जीवन का कोई भी समाधान कहीं बाहर से लागू नहीं किया जा सकता। जहां समस्या है, समाधान का जन्म भी वहीं से होना है। जहां रुमाल की गांठ है, वहीं रुमाल की गांठ के खुलने की कीमिया अनुस्यूत है। विषाद को समाप्त करने के लिए बाहर से करा गया कोई भी उपाय उसको और पोषण देगा। विषाद की ही सम्यक समझ या उपस्थिति में ही विषाद समाप्त हो सकता है।


विषाद प्रमाद या तृष्णा से पैदा हुआ है। यदि हम अवसाद की घटना के साथ रुक जाएं, तो अवसाद खुलना शुरू हो जाएगा। चाह के साथ चाहने वाला पैदा हो गया है, और इन दोनों कोनों से गांठ को कसा जा रहा है। यह गांठ खुले इसकी भी चाह के बिना, यदि उपस्थिति को यदि अवसर दे दिया जाता है, तो गांठ खुल जाती है। यदि एक कोना नहीं है तो दूसरा कोना भी नहीं बन सकता। गांठ के बने रहने के लिए दोनों कोनों का बना रहना आवश्यक है। यदि एक कोना समाप्त हो गया तो दूसरा कोना आवश्यक रूप से समाप्त हो जाएगा।


ऐसे हरि पै तन-मन बारूँ, प्राण हि तजूँ हरि नहीं बिसारूँ - यदि मौलिक तत्व जरा सा भी ख्याल में आ गया, तो और किसी पर प्राण न्योछावर करने की तृष्णा पैदा नहीं होगी। अभी तो हम पता नहीं कितनी झांसे वाली प्रक्रिया में अपने प्राण आहुत कर देते हैं। अभी तो मान प्रतिष्ठा, धन संपत्ति को इकट्ठा करने में, रिश्ते नातों को बनाए रखने में, हमने अपने पूरा जीवन न्योछावर किया हुआ है।


जैसे ही मौलिक तत्व उघड़ जाता है, तो उसकी बाकी सारी जो लीला है, उसमें हमारी निष्ठा भंग हो गई। फिर चाहे जीवन रहे या जीवन जाए, निष्ठा जो है वह उसी मूल तत्व में है जिसका नाम हरि है। जो हुआ वो अच्छा हुआ, ये है एक पके हुए जीवन का लक्षण है, निर्विकल्प स्वीकार। जीवन में बाहर जैसा भी होता जा रहा है, वो वैसा ही गहनतम तल पर स्वीकार है, और उसके ऊपर स्वीकार अस्वीकार की लीला चल रही है। जैसे आइना कुछ भी रिकॉर्ड या आकांक्षा नहीं करता है।


यदि हम योजना बनाएं कि निर्विकल्प स्वीकार से किसी ऐसे जीवन का पता चल जाएगा जो लीलाओं से मुक्त है, तो हम फिर लीला में ही गति कर रहे हैं। भीतर सभी पसंद और नापसंद पर निर्लेप उपस्थिति है, बाहर पसंद नापसंद घटती है, तो घटती रहे। बाहर कुछ भी करते हुए, अंदर यह आग्रह नहीं है कि ऐसा ही हो।


आसान नहीं है किसी को आंकना, हर चेहरा अपना ही वजूद लगता है। जो दूसरे में दिखाई पड़ता है, अंदर झांकने पर पहले वह मुझे अपने अंदर ही दिखाई पड़ता है। इतना कुछ चलता रहता है हमारे जीवन में, पर रहस्य समझ में नहीं आता कि यह मामला क्या है? यह सब कुछ निभाते हुए भी वह क्या है, जो मुझ निभाने वाले की सत्ता के भी पहले था? वह जिंदगी क्या है, जो मुझ द्वारा तय की जा रही जिंदगी से न्यारी है? वह जिंदगी क्या है, जिस पर मुझ व्यक्तित्व का उदय हुआ है?


कबीर साहब इस पद में उसी तरफ इशारा कर रहे हैं कि मेरा मौलिक स्वरूप क्या है। प्राण हि तजूँ हरि नहीं बिसारूँ, एक बार यह कीमिया जीवन में सध गई कि वह जागरण क्या है, जो मेरी भूमिका से मुक्त है, फिर प्राण रहे या ना रहे, जीवन में कुछ होता हो या ना होता हो, यह बात ही दोयम हो गई।


0 views0 comments

Comments


bottom of page