top of page
Image by NordWood Themes
Image by NordWood Themes
Ashwin

जब जीवन में घोर संकट हो - सप्ताहांत ध्यान संवाद | धर्मराज | आरण्यक



जब जीवन में घोर संकट हो।

 

१) कभी-कभी जीवन में बड़ी भीषण परिस्थितियां प्रकट हो जाती हैं। एक प्रश्न पूछा गया कि आपको कैसे पता है, जो आप मुझे सुझाव दे रहे हैं वह सही है? इसका कोई भी प्रमाण आपको सहायता नहीं करेगा, जब तक आप इसको खुद अपने जीवन में करके ना देख लें।

 

कई बार गहरे तल में उतर करके एक अलग ही दृष्टि प्रकट होती है। उनमें कोई भेद नहीं है, जो अभी ऊपर के तल पर है वह गहरे तल में जा सकता है, और जो गहरे तल पर है वह ऊपर आ सकता है। पर गहरे तल से ऊपर आए हुए व्यक्ति के दृष्टिकोण में एक आमूल परिवर्तन हो जाता है; वह सतह पर होता हुआ भी उसी ढंग से देखेगा, जो उसने गहरे तल पर देखा था।

 

घोर संकट के क्षण में हमारा अचेतन भी सक्रिय हो जाता है। जीवन हर क्षण एक संभावना का धरातल तैयार करता है, जिससे एक यात्रा श्रेय या प्रसाद की तरफ हो सकती है, और एक यात्रा प्रेय या विषाद की तरफ हो सकती है। बड़े से बड़े संकट के क्षण में एक विराट संभावना का अवसर है। प्रश्न उठता है कि कैसे आए हुए घोर संकट का सदुपयोग किया जाए?

 

२) पहला उपाय।

 

रमन महर्षि के शुरुआती जीवन की एक घटना है कि जब मृत्यु का समय नजदीक आ गया, वो काफी बीमार हैं, तो वह मृत्यु को स्वीकार कर लेते हैं। बुद्ध तपस्या करते हुए इतने कमजोर हो गए कि वह दो फीट पानी में डूबने वाले थे, किसी तरह से बाहर निकल कर के उन्होंने जैसा है वैसा ही जीवन स्वीकार कर लिया। कहते हैं कि इससे इन दोनों के जीवन में क्रांति घटित हो गई।

 

घोर संकट के समय में जब कोई उपाय उससे बाहर निकलने का ना दिखे, तो तिल भर भी उसमें फेर बदल ना करें। संकट के क्षण में जब रोआं रोआं सजग है, उस समय यदि आप जैसा है उसका वैसा ही यथावत दर्शन कर लें, उसको बिल्कुल भी बदलने का, उसमें कुछ आराम पाने का या सुधारने का प्रयास न करें, तो क्रांति घटित हो जाएगी। यदि आप उसे जस का तस रहने दें और बदलने का कोई भी प्रयास न करें, तो वह सारी ऊर्जा जो उसे बदलने में लगी थी, वह आलोक और होश लेकर के वहां प्रकट हो जाएगी। यहीं पर वह क्रांति घट जाती है, उसको दिखाने के लिए जो चित्त के पार है।

 

यहां ऐसा नहीं की संकट टल जाएगा या परिस्थिति बदल जाएगी, वह बात दोयम है, पर वह जो धरातल, वह पृष्ठभूमि है, जहां पर संकट प्रतीत होता है, वह धरातल जीवन नहीं है, यह बात सिद्ध हो जाएगी। वह धरातल जिस पर संकट घटा था वह पृष्ठभूमि पीछे छूट जाएगी। उस घटना में वह पता चल जाएगा जिसके मरने का, या लोकोपवाद का कोई उपाय ही नहीं है। वहां वह पता चल गया जो सुख-दुख से न्यारा है, जहां मिलना या बिछड़ना दोनों नहीं है। यानी उस घोर संकट के क्षण में उस ओर छलांग लग गई, जिसका कुछ अता-पता ही नहीं था।

 

बुद्ध कहते हैं कि मेरे पास तुम्हारी समस्याओं का कोई समाधान नहीं है, पर हां एक ऐसा जीवन संभव है जिसमें कोई संकट होता ही नहीं है। इस तरह के दर्शन में यह समझ में आ जाएगा कि जिसको छिन्न भिन्न किया जा सकता है वह जीवन नहीं है, वह तो बस एक आयोजित सी चीज है। जिसको हम जीवन समझते थे वह एक आभासीय बात है एक बैसाखी पर टिकी हुई घटना थी, असल जीवन तो निर्लिप्त है, निराधार है, उसको चोट नहीं पहुंचाई जा सकती है।

 

३) दूसरा उपाय।

 

इस प्रचंड संकट के समय में उससे बिना कोई छेड़छाड़ किए हुए बने रहना मुझसे नहीं हो सकता, तो उसका फिर दूसरा उपाय है। जो सबसे निकटतम है और जो हमारी बुद्धि से नहीं बना है, जो मनुष्य चित्त के द्वारा नहीं बनाया गया है, उसके समक्ष समर्पण कर दीजिए। जैसे जो अभी आंखों से दिखाई पड़ना है वह प्राकृतिक है, उसे बुद्धि ने नहीं बनाया है, केवल उसका नामकरण बुद्धि ने बनाया है। अपनी आंखों, अपने हाथों, पैरों के सामने समर्पण कर दीजिए; जो सबसे निकटतम है, और जो बुद्धि से नहीं बनाया गया है।

 

हम समझते हैं कि जो यह शरीर है इसके सामने क्या समर्पण करना, या तो हम इसकी स्तुति में रहते हैं, या इसकी निंदा में रहते हैं। बिना स्तुति और निंदा के वह जो सबसे निकटतम है और मनुष्य की बुद्धि से नहीं बना है, उसके आगे समर्पण कर देना। यह उपाय लगता बहुत सरल है, पर बहुत प्रभावी है। यह जो निकटतम है जो आपने नहीं बनाया है, उसमें थोड़े से पांव आपके टिक जाएंगे। जो आपने नहीं बनाया है, उसके सामने जब आप समर्पण करते हैं, तो सामर्थ्य पैदा हो जाता है। परिस्थिति का पता नहीं, हो सकता है बदल जाए या हो सकता है कि नाही बदले; और उसकी तरफ  गति अवश्य हो जाएगी, जहां संकट होता ही नहीं है।

 

यदि शरीर के सामने नहीं कर पा रहे हैं, तो जो सबसे निकटतम प्राकृतिक चीज है, चाहे वह एक पौधा, फूल, धरती ही क्यों ना हो, उसके सामने समर्पण कर दीजिए; आपको रास्ता मिल जाएगा।

 

४) तीसरा उपाय।

 

अगर यह भी नहीं हो पा रहा है तब जाकर के मंदिर, मस्जिद आते हैं, जो की निदान मात्र है। एक कहावत है, उत्तम खेती, माध्यम बाण, अधम चाकरी, भीख निदान। तीसरा उपाय निदान है, जहां पर आप अपनी बनाई किसी संरचना के समक्ष समर्पण करते हैं; पर यहां पर मामला थोड़ा कठिन हो जाता है, क्योंकि जिसके सामने आप समर्पण कर रहे हैं, उसे हमने ही बनाया है। वहां पर भी यह देखें कि उसमें ऐसा क्या है, जो हमारी बुद्धि के द्वारा बनाया गया नहीं है, फिर अगले तल पर आएं कि जो है जैसा है वैसा ही स्वीकार है; देख बाहर रहे हैं, पर काम भीतर कर रहे हैं।

 

किसी मूर्ति के सामने यदि आप समर्पण करते हैं, तो साथ-साथ जो समर्पण कर रहा है, उसको भी यथावत देखें। उस मूर्ति में जो भी पत्थर है वह भी हमने नहीं बनाया है, आकृति को मनुष्य ने बनाया है पर पत्थर जो है वह प्रकृति की संरचना है। फिर वहां से लौट आएं, और खुद के यथावत कोने में समर्पित हो जाएं।

 

जैसे ही आपने यथावत किसी को स्वीकार कर लिया उसमें बदलाव नहीं किया, तो वह धरातल उपलब्ध हो जाएगा जो संकट से परे है। यह बात कभी खाली नहीं जाती, न जाने कितने संकट आए हैं और चले गए हैं। कुछ ही लोग ऐसे हैं जो वह धरातल ही त्याग देते हैं जिसमें संकट घटता है, जो दुख का मूल है। जब तक वह धरातल है जिस पर संकट घटता है, तो दुख भी जरूर होगा, तब दुख टाला नहीं जा सकता, दुख उसमें अनुस्यूत है। जो जीवन चित्त निर्मित करता है, उसमें दुख विष की तरह भरा हुआ है, और वह वंचित रखता है उस जीवन से जो दुख से सर्वथा मुक्त है। जिस पर संकट घटता है, वह धरातल सर्वथा भंग हो सकता है।


0 views0 comments

Comments


bottom of page