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Ashwin

वह जीना क्या है जो विकल्प के सभी चेहरों से मुक्त है?

वह जीना क्या है जो विकल्प के सभी चेहरों से मुक्त है?


ध्यानशाला सुबह का सत्र, 23 नवंबर 2024


हम कुछ मित्रों ने साथ साथ सैर करते हुए कुछ मर्म भी उघाड़े हैं। सैर करते करते कुछ अपूर्व अनजाना सा जी लिया जाता है।


क्या जीने का कोई ऐसा धरातल है, जो खंडित नहीं है? चेतन इसको इतना समझ नहीं पाता है। अचेतन इसको समझ जाता है, इसलिए श्रवण का महत्व है। जिसमें दो तक धरातल नहीं हैं, तो ज्यादा धरातल की तो बात ही नहीं उठती है।


हमारी चेतना अभी तक खंडित धरातलों पर ही जीती आई थी कि अभी मैं दुखी हूं, मैं सुख में पहुंच जाऊं। खंडित धरातल पर जो मैं है, वह खुद ही खंड का निर्माण है। अखंड के लिए सारी आहुति दी गई है, चाहे वो हमारी ही आहुति क्यों ना हो। सत्य के प्यासे और सुख के प्यासे में मौलिक भेद होता है। सत्य की प्यास बड़ी दुर्लभ है, वह सत्य ही है। हम सत्य की प्यास नहीं करते हैं, हम अनुभूतियों को ढूंढते हैं।


यदि हम आत्म की कोई अनुभूति चाहते हैं, तो हम कहीं नहीं पहुंचेंगे। सत्य की प्यास ही मौलिक प्यास है, सच घटे, चाहे मैं रहूं या ना रहूं। सत्य का धरातल दूर नहीं है, वहां के लिए कोई यात्रा नहीं है, बस एक सैर है।


समय के दो ही खंड नहीं होते हैं, तो बहुत सारे खंड कैसे हो सकते हैं। अभी मैं भयभीत हूं, एक दिन मैं भय मुक्त हो जाऊं, यह एक गहरा झांसा है। समय का धरातल बुद्धि से पैदा होता है।


यदि हम कुछ आंकड़े इकठ्ठे कर रहे हैं, जिनको हम बाद में उपयोग करेंगे, तो हम मशीन की गिरफ्त में हैं, यह सब मशीनी प्रक्रिया के ही हिस्से हैं। सुनने में ही यदि घट जाता है, तो कुछ और बात है।


जीवन का यदि कोई चेहरा ही नहीं है, तो दो चेहरे की बात ही बेमानी है। वह जीना क्या है जो चेहरे मात्र से ही मुक्त है, चाहे वो चेहरा शून्य का ही क्यों ना हो?


जीवन में दो विकल्प नहीं हैं, एक ही उपाय है - अमूर्छा। अमूर्छा के अतिरिक्त और कुछ भी यदि जीवन में है, तो क्या हम निदान में हैं? अमूर्छा है तो निश्चित ही ऐसा प्रेम वहां पर होगा, जिसका हमको आपको पता नहीं चलेगा। यह जगत अमूर्छा, प्रेम से बना हुआ है। प्रेम जो विचार, आंकड़ों से पैदा होता है, वह अति हिंसक है।


हमें खुद तक को पता ना चले, पर जीवन गवाही दे, तो हमारी सैर में मर्म आया। भीतर अविच्छिन्न अमूर्छा घटती हो, उसको कहीं बाध ना मिलता हो, और बाहर जो कुछ भी है उसके प्रति करुणा की एक दृष्टि है; यह एक ही बात को कहने के दो ढंग हैं। भीतर अमूर्छा, जागरूकता को अवसर देना, असंभव प्रश्न के द्वारा प्रमाद की दीवार का टूटना, और बाहर जो भी कुछ होता है उसके प्रति प्रेम।


यदि हमने ध्यान को जीवन में अवसर दिया, तो जीवन उन्हीं स्थितियों में हमको मांजने लगता है। जो स्थिति अब तक बाधा थी ठीक वही, वहीं रहते हुए उबारने वाली हो जाती है। कुछ भी तथ्य में नहीं बदला, वही रिश्ते हैं, वही नौकरी है, और वहीं महा क्रांति है; बस जरा सा अमूर्छा, प्रेम की दृष्टि उस पर पड़ जाए।


मंजनू एक कुत्ते को बहुत लाड़ दुलार करता था। उसने कहा कि मेरी दृष्टि से देखो यह कुत्ता वह है, जिस पर लैला की नजर पड़ी है। निरपेक्ष की दृष्टि में प्रेम महा सूत्र है। फिर जो उस तरफ है, वही बात है, जीवन की सारी परिस्थितियों बेमानी हो गईं। जिस भी परिस्थिति में अस्तित्व ने हमको रखा है, वहीं लैला की दृष्टि पड़ी है ना, वहीं अमूर्छा को अवसर दिया जा सकता है ना, तो यही बात पूर्ण है। मंजनू के लिए लैला की नजर से गुजरी हुई हर चीज पाक है।


अभी मुझे घोर शोक है, पर यदि महबूब की नजर है इस तरफ, तो फिर यह शोक, शोक नहीं रहा, फिर सुख हो या दुख, मान अपमान, वही प्रसाद है, क्योंकि उस पर लैला की नजर है। तब तक आंसू आंसू हैं, और मुस्कान मुस्कान है, जब तक लैला की नजर नहीं है। क्या अभी लैला की नजर है? यदि हमने अपने भीतर मोहब्बत को एक बार भी जाना हो, तो फिर चाहे कुछ भी हो जाए, हम उसका अनहित नहीं देख सकते हैं। प्रेम कभी भी घृणा में परिवर्तित नहीं हो सकता है। लैला की नजर है, तो फिर कुछ भी अपावन नहीं है, फिर सब कुछ प्रसाद है।


इस सैर में साथ चलते हुए सारे आंकड़े चरमरा कर ढह गए, एस धम्मो सनंतनो, बुल्ला कि जाना मैं कौन। क्या इस सैर में ऐसा हमारे साथ हो रहा है?


जीवन में कुछ मिले तो उसे अज्ञेय की तरफ से मिले, नहीं तो ना ही मिले। कुछ भी ऐश्वर्य जीवन के नाम पर मांगना, किसी भी स्थिति परिस्थिति को उसके लिए निर्मित करना, यह जीवन की महिमा का अपमान है। यदि हमने लैला की दृष्टि को अवसर दे दिया है, तो उसके बाद कुछ भी मांगने की बात ही खत्म हो जाती है। यदि हमने नैसर्गिक जागरूकता को जीवन में अवसर दे दिया है फिर वह देखे, फिर हम क्या कह सकते हैं कि यह उचित है या यह अनुचित है। हमारा कोई भी हस्तक्षेप ऐसा है जैसे हम उसकी आंखों पर संशय कर रहे हैं। फिर सुख-दुख, यहां वहां, इस चेहरे और उस चेहरे की बात ही खत्म हो गई।


हम अपने को उसकी आंख के सामने रखे रहें, जो सतत विद्यमान ही है। यह हम ही हैं, जो उसकी तरफ अपनी पीठ कर देते हैं, फिर जो होना है, सो हो। क्या हम इस सैर का मर्म समझ पा रहे हैं? शरीर से, मन से, बुद्धि से जो है जैसा है, उस पर लैला की दृष्टि है, वहीं पर नैसर्गिक जागरूकता है।

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