जुगन-जुगन की तृष्णा बुझानी।
१) रस गगन गुफा में अजर झरे।
बिनु बाजा झनकार उठे जहँ,
समुझि परै जब ध्यान धरै।
बिना ताल जहँ कवल फुलाने,
तेहि चढ़ि हंसा केलि करै।
बिनु चंदा उजियारी दरसै,
जहँ तहँ हंसा नजरि परै।
दसवें द्वारे तारी लागी,
अलख पुरुष जाको ध्यान धरै।
काल कराल निकट नहिं आवै,
काम क्रोध मद लोभ जरै।
जुगन-जुगन की तृष्णा बुझानी,
करम भरम अघ व्याधि टरै।
कहैं कबीर सुनो भयी साधो,
अमर होय कबहुँ न मरै।
२) एक राजकुमार अपनी यादाश्त खो बैठा, और वह दूसरे राज्य में गया। दूसरे राज्य के लोगों को पता था कि यह राजकुमार है, तो उसकी बहुत खातिरदारी की। बाद में उनको पता चला कि यह तो राजकुमार नहीं है, यह गलत खबर है तो फिर उसे वहां महल से निकाल दिया। इस बात से राजकुमार को बोध हो गया। वह क्या है जिसके कारण कभी ये सम्मन करते हैं, और कभी तिरस्कार करते हैं। उस व्यक्ति का सम्मान नहीं हो रहा था, उस राजपद का सम्मान हो रहा था। हमारी गाथा कुछ ऐसी ही है।
उसे जानो जिसके ऊपर जानना घटता है। वह नहीं जो कान सुनता है, जिससे कान सुनता है उसे तुम ब्रह्म जानो। वह घटना जिसपर दिखाई पड़ने की घटना घटती है। वह नहीं जो मन सोचता है, जिससे मन सोचता है, उसको तुम ब्रह्म जानो।
३) बिनु बाजा झनकार उठे जहँ,
समुझि परै जब ध्यान धरै।
बिना किसी बाजे के संगीत गूंजता है, यह एक इशारा है उस तरफ जिसपर सभी वाद्य यंत्र बने हैं। जब सुनने वाला और सुनाई देने वाला है, तब तक टकराव तो वहां होगा ही। जहां पर दो चीजें बाज, लड़ या टकरा नहीं रही हैं, वहां पर भी झंकार उठती है; ये उस तरफ इशारा है जो सच को तरफ प्रत्यभिज्ञा मोड़ दे। जहां कोई बाजा नहीं है फिर भी गीत उठ रहा है, वह क्या है? यदि उत्तर आया तो जो उत्तर आया और जिसको उत्तर आया, वो आपस में टकरा गए, यह बाजे से ही उत्तर आ रहा है। मौन चित्त में जब किसी उत्तर की आकांक्षा नहीं है, तो उसकी प्रत्यभिज्ञा हो जाती है, जो सभी बाजों का आधार है।
समुझि परै जब ध्यान धरै - यह ऐसा नहीं है जो कमाने से पैदा होता है। यह समझ में आते ही जागरण को अवसर मिल जाता है।
४) बिना ताल जहँ कवल फुलाने,
तेहि चढ़ि हंसा केलि करै।
हमारी सारी की सारी खुशियां किसी ना किसी ताल से पैदा होती हैं, कोई कारण होता है। जहां पर फलना फूलना खिलावन बिना किसी आधार के होता है। कोई मांग, कोई इच्छा पूरी हो जाए, ये ताल है, और उसका पूरा होना, यानी वो कमल है। वह खुशी क्या है, जो बिना किसी आधार के है? इसका उत्तर यदि आया तो यह प्रश्न ही ताल बन गया। इस समझ से संयोग वियोग से जो खुशी मिलती है, उसका अतिक्रमण हो गया। जीवन की वो प्रत्यभिज्ञा उस तरफ लौट गई, जो हमने नहीं रचा है, जो संयोग वियोग, काल से परे है।
केलि यानी किलकारी। उस खुशी पर चढ़कर जो बिना किसी कारण के पैदा हुई है, जीवन रूपी हंसा किलोल करता है, आनंदित, अशोक होता है। आज किसी के घर चोरी हो गई, और वो गा रही थीं, अब बस राम धन बचा है। यानी जो बिना राम का था वो चला गया है, कोई शोक नहीं है, जो असल धन है वो राम धन है। निर्विकल्प प्रेम धन है, उसकी प्रत्यभिज्ञा, उसका बोध असल धन है, जीवन ने उत्सव मनाने का ढंग खोया नहीं है।
५) बिनु चंदा उजियारी दरसै,
जहँ तहँ हंसा नजरि परै।
हमारे जीवन में भी थोड़े थोड़े चंदा उगते हैं, कोई मित्र मिल गया, कोई मन माफिक नौकरी मिल गई, कोई मान मिल, तो अंधियारी जिंदगी में प्रकाश हो गया। एक और उजाला है जिसमें कोई चंदा नहीं है, अकारण ही उजाला है। कबीर साहब उस तरफ इशारा कर रहे हैं जिससे सकल चंद्रमा का प्रकाश पैदा होता है। एक उजाला है जो हमें पता चलता है, और यह बिना कारण के वह उजाला प्रकाशित है जिस पर हम पता चलते हैं, जिस पर हम दरस रहे हैं।
आगे कबीर साहब कहते हैं की जन्म जन्म की तृष्णा बुझ गई, जबकि यहां कितने भी उजाले हम देख लें, वह तृष्णा बुझती नहीं है, क्योंकि उजाले उस गहराई या अमृत स्वभाव के नहीं हैं, इसलिए हमारी तृष्णा तृप्त नहीं हो पाती है। यहां कोई तृप्त नहीं हुआ है, बड़े-बड़े शहंशाह तड़पकर के मरे हैं। यह तृष्णा उसको जानकर बुझती है, जहां पर कोई भी प्रकाशक नहीं है, फिर भी प्रकाश है। वह प्रकाश जिसमें प्रकाशित होने वाला ही विलीन हो जाता है, उसमें विसर्जित होने पर जन्म-जन्म की तृष्णा मिट जाती है।
हंसा यानी जीव की एक बार उस तरफ नजर फिर गई जहां पर कोई भी चंदा नहीं है, फिर भी उजाला है, फिर उसे हर जगह बिना चंदा के उजाला दिखाई पड़ता है। जो सतही देखने वाली आंखें है, फिर वह भी गहरा देख पाती हैं। वह दृष्टि देह देखती है, विचार, विचार का अभाव, व्यक्तित्व, आत्मा देखती है, और आत्मा के पीछे जो सत्य है उसको भी देख लेती है। एक बार उस तरफ दृष्टि पैठ गई, जहां बिना चंदा के उजाला होता है, फिर उसके ही तो सारे खेल हैं। फिर यह कौशल आ जाता है कि उस तरफ दृष्टि पड़ जाएगी जिस पर चंदा का प्रकाश बनता और बिगड़ता है। यह इस इशारे का अद्भुत रहस्य है।
६) दसवें द्वारे तारी लागी,
अलख पुरुष जाको ध्यान धरै।
हम देह के दस द्वारों से अपेक्षा करते हैं कि कुछ सुख मिल जाए। आंखें, कान, स्वाद, स्पर्श आदि नौ द्वार हैं, जिनपर हम अटके हुए हैं। इन्हीं पर हमारा ध्यान रहता है कि कैसे इनसे सुख मिले। दसवां द्वार असंभव प्रश्न का एक तरीका है। यदि आप समझते हैं कि सहस्रार या मन दसवां द्वार है, जिनके आधार पर बाकी के नौ द्वार काम करते हैं, तो यह बात ही गलत है। यदि उत्तर आपके प्रश्न को नष्ट नहीं करता है, तो वही प्रश्न आपके लिए उपाय बन जाता है, उसे उघाड़ने के लिए, जो सदा ही उपलब्ध है। जो झीना पर्दा सत्य पर आच्छादित है, उसको यह प्रश्न हटा देता है।
अलख यानी जिसका ध्यान नहीं किया जा सकता, आपको प्रकाश दिख रहा है या कोई देवी देवता के दर्शन हो रहे हैं, यह सब मन की कल्पना है। जो भी अनुभव में आता है, भोगना, त्यागना, यह हमारे ही नौ द्वारों के स्वरूप हैं। दसवां द्वार है ना भोगने का, और ना ही त्यागने का। दृष्टि का दसवें द्वार की तरफ घूमने का मतलब, जो नौ द्वार हैं, उनपर जागरूकता को अवसर दे देना। यानि सारे शरीरों के प्रति होशपूर्वक हो जाना, यह अपरोक्ष रूप से दसवें द्वार की तरफ गति का पैदा होना होता है।
तारी लगी मतलब उस तरफ ध्यान चला गया, और वह अलख जिसको देखा ही नहीं जा सकता है, उस पर ध्यान किया जा रहा है। एक बार यह बात पकड़ में आ गई, तो समझो जीवन का सारा रहस्य सुलझ गया।
७) काल कराल निकट नहिं आवै,
काम क्रोध मद लोभ जरै।
मृत्यु और भय फिर निकट नहीं आ सकते हैं। जहां पर मृत्यु है, जहां पर समय है, वहां पर भय अवश्य होता ही है। हमारे जीवन में जितने भी त्रस्त करने वाले, पीड़ा देने वाले, सताने, भगाए रखने वाले विचार हैं, यह सब जब दृष्टि अलख पुरुष की तरफ मुड़ जाती है, तो यह सब अपने आप जीवन से छूट जाते हैं। जबकि हम क्या करते हैं, हम इनको त्यागने की कोशिश करते हैं। जब अनमोल हीरे मिल जाते हैं, तो अपने आप कूड़ा आपके हाथ से छूट जाता है।
जो आंखें दृश्य से सम्मोहित हैं, 'वह क्या है जिससे वह देख रही हैं', उसकी तरफ जब अपरोक्ष रूप से दृष्टि हो जाती है, तो इस तरफ जो कारण प्रभाव में दृष्टि उलझी हुई थी वह छूट जाती है। अपने आप ही वह काम, क्रोध, लोभ आदि चीजें जल करके स्वाहा हो जाती हैं। वो अनाड़ी है, जो कहता है कि काम, क्रोध, लोभ का त्याग करो। संत पुरुष सिर्फ एक ही बात कहते हैं कि जागो, ध्यान धरो, होश को अवसर दो, नजर फेरो, उसकी तरफ देखो।
८) जुगन-जुगन की तृष्णा बुझानी,
करम भरम अघ व्याधि टरै।
कर्म का एक बंधन है, जो भी आप करते हैं, वह आपके आगे के जीवन को निर्धारित करता है। और जो आपने पहले किया हुआ है, उसी से आप बने हुए हैं, जैसा की आप सोचते हैं। जिस तरह से आप अनुभव करते हैं, वह हमारे कर्मों का फल है। वही गति हमारे पूरे व्यक्तित्व को निर्मित करती है, और उसी से आगे का भविष्य निर्मित होता है।
कबीर साहब कहते हैं कि कर्म का बंधन कर्म से नहीं काटा जा सकता, और भ्रम का बंधन किसी भी भ्रम में गति से नहीं काटा जा सकता है। ये पाया जाता है कि जो लोग मनोरोग से पीड़ित हैं, वह बड़े बुद्धिमान होते हैं, और उनकी यह होशियारी ही उनके प्रमाद का कारण बन जाती है। वह आपका या अपना खुद का, बड़ा सटीक विश्लेषण कर देंगे, लेकिन सिर्फ सोचते हैं, जो असल जानना है वह नहीं जान पाते। उनके होश का उपाय भी सापेक्ष होता है, और बुद्धि ही बाधा बन जाती है, जबकि जो निसर्ग का होश है, उसको लेकर के हम और आप पैदा ही हुए हैं। जिस समझ की तरफ कबीर साहब इशारा कर रहे हैं, उस होश की समझ को वह उपलब्ध नहीं हो पाते हैं।
भ्रम कभी भी सोच विचार या किताब पढ़ने से नहीं मिटता है, क्योंकि आप ही तो यह सब कर रहे हैं। यदि कोई बुद्ध पुरुष मिल भी जाए, तो भी आप उन्हें नहीं समझ पाएंगे, क्योंकि जिस आधार पर आपने बुद्ध पुरुष को तय किया है, वही गलत है। कोई व्यक्ति यदि निंदा, चुगली, बैर से भरा हुआ है, तो उसमें पानी कैसे टिक सकता है? और यदि पात्रता है तो जो जहां पर है, उसे वहीं सत्य सुलभ हो जाएगा।
मैं का होना जुगन है, मैं का होना युगों युगों का एहसास है, मैं पूरा एक युग है। इस मैं में एक तृष्णा है, एक तड़प है, एक आग है, जो सतत अतृप्त होकर इधर-उधर भाग रही है। यह तृष्णा हमेशा जल रही है, वह चाहती है कि यहां से बुझ जाऊं या वहां से बुझ जाऊं, पर बुझ नहीं पाती है। युगन युगन की तृष्णा, मैं की आग है। यह मैं की तृष्णा तब बुझती है जब उसकी तरफ नजर मुड़ जाए, और यह नजर अभी ही मुड़ सकती है, यानी "अलख पुरुष जाको ध्यान धरै"। अर्थात जब उस तरफ ध्यान चला जाता है, जिसको देखा नहीं जा सकता, पर जिसपर ध्यान घटता है। बस जरा सा होश, जरा से कौशल की बात है।
यह बात अगर समझ में आ गई तो फिर उसको कुछ फर्क नहीं पड़ता, मृत्यु आए या मैं का नाश हो, क्योंकि वह जान जाता है कि मैं पहले से ही आयोजित है।
अघ व्याधि टरै, यानी सारी आपत्तियां और विपत्तियां टल जाती हैं। सारी आपत्ति, विपत्ति या धोखे सभी मैं पर ही टिके होते हैं। जब मूल ही सत्य की तरफ मुख कर गया, तो फिर उसको कोई व्याधि, आपत्ति, कोई भी कर्म बंधन बांध नहीं सकता है। यानी जब तक मैं का केंद्र बना हुआ है, उस केंद्र को कर्म हमेशा आगे धकेलता रहेगा। जो मैं का एहसास है, इसी कांटे पर सब कुछ फंसा रहता है। यदि मैं का कांटा ही भस्म हो गया, तो कर्म बंधन किसको पकड़ करके खींच सकता है? कर्म बंधन की जो रस्सी है, वह किसी खूंटे पर टिक नहीं पाएगी।
कर्म का समूल नाश हो सकता है, पर कर्म करके कर्म से मुक्ति नहीं हो सकती। साधना कर के कभी भी सत्य नहीं मिल सकता है। साधना से सत्य के मिलने की तैयारी हो सकती है, वह भी बड़ा बोध होना चाहिए उसमें। सत्य की प्रतीति, एक नजर मात्र से हो सकती है, जरा सा इशारा और बात समझ में आ गई। एक बार दृष्टि पलट जाए कि वह क्या है जो बिना ताल के खिल रहा है? वह खुशी क्या है, जो बिना किसी कारण के मिल जाती है; तो मैं जो सभी भ्रम और कर्म बंधन का आधार था, वही भस्मीभूत हो गया।
९) कहैं कबीर सुनो भयी साधो,
अमर होय कबहुँ न मरै।
कबीर साहब कहते हैं कि यह बात वही सुन सकते हैं जिसके हृदय में प्रेम है, जो अभी मुर्दा नहीं हुआ है, करण और प्रभाव ने जिसके हृदय को अभी मार नहीं दिया है। कबीर साहब कहते हैं कि यदि सुन सकते हो तो समझो की जो अपनी तरफ देखने वाला है, उसकी कभी भी मृत्यु नहीं होती। जब नजर उस तरफ उठ गई, जो सबका आधार है, जिसने उसे जाना, तो फिर वह वही हो जाता है।
सोइ जानइ जेहि देहु जनाई। जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई॥
वही आपको जानता है, जिसे आप जना देते हैं, और आपको जानते ही वह आपका ही स्वरूप बन जाता है।
फिर वह अनागामी हो जाता है, यानी मैं और मेरा, विचार और विचारक में जो गति है वह ध्वस्त हो जाती है। जो सकल का आधार है, वह उसमें पाया जाता है। इस जगत में शोक के अलावा और कुछ नहीं मिलता, कोई बिरला ही ऐसा होता है जो वास्तव में अशोक होता है। इस जगत में कोई बड़ा नुकसान भी हो गया, फिर भी कोई शोक नहीं है। जिसके जीवन में ध्यान की एक छोटी सी भी चिंगारी उतर गई, वह अशोक हो जाता है, उसे फिर शोक नहीं व्याप्तता। जिसने इस इशारे को समझ करके, अपनी तरफ मुड़ने को अवसर दे दिया, जिसके जीवन का रुख पलट गया, उसको इसी जीवन में अमृत उपलब्ध हो जाता है। यह कोई कल्पना की बात नहीं है, यह ऋषियों का उद्घोष है। प्रेमी इस बात को आसानी से पकड़ सकते हैं, और ध्यानी भी इधर-उधर भटक करके अनंतः पाता इसी बोध को है।
Comentários