'कबीर' कब से भये बैरागी (कबीर उलटबासी)
- Ashwin
- Oct 28, 2024
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सुनो हो गोरख
कबीर' कब से भये बैरागी
तुम्हरी सूरति कहाँ को लागी
उत्तर:
बई चित्रा का मेला नहीं
नहीं गुरू नहिं चेला
सकल पसारा जिन दिन नाहीं
जिही दिन पुरूष अकेला
गोरख हम तबके अहै बैरागी
हमरी सुरति ब्रहम सो लागी
ब्रहम नहि जब टोपी दीन्ही
बिस्नु नहीं जब टीका
सिव-शक्ति कै जनमौ नाहीं
तबै जोग हम सीखा
कासी में हम प्रगट भये है
रामानंद चेताये
प्यास अनहद की साथ हम लाए
मिलन करने को आए
सहजै सहजै मेला होइगा
जागी भक्ति उतंगा
कहै 'कबीर' सुनो हो गोरख
चलो गीत के संग
हमरी सुरति ब्रहम सो लागी।
कबीर' कब से भये बैरागी, तुम्हरी सूरति कहाँ को लागी - गोरख कबीर से, या फिर कबीर साहब अपने से ही प्रश्न पूछ रहे हैं की कब से तुम वीतराग को उपलब्ध हुए हो? वीतराग यानी वह अवस्था, जो सभी तरह के भ्रम, सम्मोहन, माया से पार है। वह जीवन धारा जो किसी भी तिलस्म के दायरे में अब नहीं है, जो राग और वैराग दोनों से विलक्षण, भगवत्ता की दशा है। गोरख पूछ रहे हैं कि कबीर तुम्हारा जो यह ध्यान सधा है, वह किस पर या कहां सधा है?
समय और दूरी, यह एक ही घटना के दो ढंग हैं, जिसमें एक समय की तरह दिखता है, और एक स्थान की तरह दिखता है। यदि समय को समाप्त कर दिया जाए, तो आकाश समाप्त हो जाएगा। और यदि आकाश या अंतराल को समाप्त कर दिया जाए, तो समय समाप्त हो जाएगा।
जीवन के धरातल पर यही चुनौती कबीर साहब ने गोरख का नाम लेकर के अपने सामने प्रस्तुत करी है। कबीर साहब खुद से ही पूछ रहे हैं कि कब से तुम्हारे अंदर संबोधि प्राप्त हुई, और वह कौन सा स्थान है जहां पर तुम्हारा ध्यान स्थिर हो गया है? कबीर साहब खुद ही को उत्तर भी दे रहे हैं।
बई चित्रा का मेला नहीं, नहीं गुरू नहिं चेला - कबीर साहब कह रहे हैं कि मेरा ध्यान तब से लगा हुआ है, जब यहां पर कोई विचित्रता का मेला नहीं था। कबीर साहब ने समय के रूपक में आकाश को भी सम्मिलित कर लिया है। जब हम यह समझने चले हैं, तो दोनों दृष्टियों को एक साथ रखकर के चलना होगा। यहां एक द्वैत का तमाशा लगा हुआ है जहां चीजें हैं नहीं, पर ऐसा लगता है कि वह हैं।
जब यह द्वैत का मेला शुरू नहीं हुआ था तब से, यानी वह किसी पूर्व घटना की व्याख्या नहीं कर रहे हैं। यह जो विचित्र का मेला लगा हुआ है, यह अभी और यहीं शुरू हो रहा है। यानी अभी कोई ऐसी धरा है जिसमें द्वैत का विचित्र मेला विद्यमान नहीं है, और कबीर साहब जो शुरुआत की बात कह रहे हैं, वह भी अभी और यहीं है। यदि विचित्र का यह मेला सच नहीं है, तो उसका प्रारंभ होना भी सच नहीं है। इसका अर्थ है कि जो वीतराग वाली दशा है, वह भी किसी स्थान या समय से शुरू नहीं हुई है, और वह देशातीत है। कबीर साहब जिस दशा की तरफ इशारा कर रहे हैं, वह देश काल से परे की दशा है।
कबीर साहब कह रहे हैं कि वहां ना कोई सिखाने वाला है, और ना ही कोई सीखने वाला है। कभी वह सीखने वाला भीतर से बाहर जाकर सीखता है, और कभी वह खुद को ही सिखाता है। जब सीखने और सिखाने का क्रम शुरू ही नहीं हुआ था, तब से वीतराग और ध्यान है।
सकल पसारा जिन दिन नाहीं, जिही दिन पुरूष अकेला - जहां पर यह सारा जो ब्रह्मांड है इसका प्रसार नहीं था, जब कोई विभाजन की लीला भी प्रस्तुत नहीं हुई थी, तबसे वीतराग होना व्याप्त है।
हम समझते हैं कि जीवन में दुख या भ्रम से मुक्ति के लिए किसी प्रयास, साधना या तप की आवश्यकता है। हम अभी जहां पर हैं वहां पर दुख है, और हमें कुछ यात्रा करनी है उस अवस्था की ओर जहां दुख नहीं है, या फिर एक बंदा है और दूसरा खुदा है। यदि हम यात्रा वहां से शुरू करते हैं जो तुच्छ है, तो हम जहां भी पहुंचेंगे वह उसी का ही एक परिवर्तित रूप होगा। द्वैत से शुरू करी हुई यात्रा, द्वैत का ही पुरस्कृत संस्करण होगा। यदि प्रथम कदम पर यह भूल हुई कि मैं देखने वाला हूं, तो उसका जो परिणाम आएगा वहां पर भी भ्रम ही होगा।
देखने वाला वही है, जिसे वह देख रहा है। देखने वाला उसी सामग्री से बन रहा है, जिस सामग्री को वह देख रहा है। जो दिख रहा है, वह उसको निर्मित कर रहा है, जो देख रहा है। यह बात जब तक तत्ववत प्रकट नहीं हो जाती है, तब तक ध्यान शुरू नहीं होता है। पूर्ण से ही यात्रा, पूर्ण की तरफ हो सकती है। अपूर्ण से शुरू हुई यात्रा अपूर्णता को ही पुष्ट करेगी।
सीमित से जो भी निर्मित होगा वह सीमित ही होगा। पर यदि अस्तित्व असीमित है, तो जो उसका अंश है, वह भी असीमित ही होगा। आंतरिक जगत में संतों ने इस बात को भली भांति देखा है।
गोरख हम तबके अहै बैरागी, हमरी सुरति ब्रहम सो लागी - कबीर साहब कह रहे हैं कि गोरख हम तभी से वीतरागी हैं, जब द्वैत का प्रसार नहीं था, जब कोई सीखने या सिखाने वाला नहीं था। ऐसा भी नहीं है कि वह स्थिति पहले थी अब नहीं है, वह अभी भी विद्यमान है; वह अभी, यहीं, काल और आकाश से न्यारी है। कबीर साहब कह रहे हैं कि उनकी सारी यात्रा वीतराग से वीतराग की ओर ही है। कोई भी रास्ता राग से, वैराग से होते हुए, वीतराग की तरफ नहीं जाता है।
यह सब मन के झांसे हैं, कि आज हम संसारी हैं, कल साधु सन्यासी हो जाएंगे, और बाद में संत हो जाएंगे। यदि कोई संत या वीतराग जैसी स्थिति है, तो वह पहले कदम पर ही उपलब्ध है। जहां जीवन द्वैत में नहीं बंटा है, मेरी पहचान वहां से आत्मवत है। बोध करने वाले के पीछे भी जो बोध है, उसको आत्मवत बोध कह सकते हैं। कबीर साहब कह रहे हैं कि मेरा ध्यान उससे लगा है, जो वीतराग है। जो सबसे न्यारा है, जो सबका आधार है, वह लिप्त किसी में नहीं है, जिसपर सारा द्वैत बनता और बिगड़ता है।
ब्रह्म की तरफ सुरती लगने का अर्थ, वही हो जाना है। सम्यक सुरती लगने का मतलब ब्रह्म हो जाना, अपनी किसी भी पृथक सत्ता का पूर्ण विसर्जन हो जाना।
अनहद की प्यास
ब्रहम नहि जब टोपी दीन्ही - ब्रह्मा की बुद्धि में जब ब्रह्मांड की रचना का विचार पैदा भी नहीं हुआ, उससे पहले ही मैं हूं। विचार और विचारक के पैदा होने से पहले की जो घटना है, वहां पर मेरी उपस्थिति है, वहां पर हमारा जीना है।
बिस्नु नहीं जब टीका - जब से मेरी जीवन को चलाने की, पालनहार की योजना पैदा हुई, उससे पहले ही मैं बोध में हूं। यानी वह होना, जो पालनकर्ता और पालन से मुक्त है। मैं अपने जीवन का कर्ता धर्ता हूं, यह मैं का जो एहसास बना, उससे भी पहले ध्यान है।
ब्रह्मा के विधान और विष्णु के पालन पोषण से भी पहले जो है, वहां से मेरी गति है। एक ऐसा जीवन है, जो विधान और पोषण दोनों से मुक्त है।
सिव-शक्ति कै जनमौ नाहीं, तबै जोग हम सीखा - रचना, पोषण, संहार और इनमें बहती हुई शक्ति या ऊर्जा, इन सबका जहां से जन्म होता है, वहां से मैंने योग सीखा है।
कासी में हम प्रगट भये है, रामानंद चेताये - यह बस एक औपचारिक बात है, हम पहले से ही थे, काशी में हम बस प्रकट हुए हैं।
प्यास अनहद की साथ हम लाए, मिलन करने को आए - वह अनहद की प्यास हम अपने होने में ही लेकर के आए थे, और औपचारिक रूप से अपने हद से एक खेल खेलने के लिए आए हैं। हम सब के अंदर अनहद की एक गहरी प्यास है, बस चेताने भर की बात है। जब हम जानना शुरू करते हैं, तब हम अपने आप को सीमित पाते हैं। जो मुझसे कभी अलग नहीं हुआ, उससे बस एक लीला के रूप में मिलन है।
सहजै सहजै मेला होइगा, जागी भक्ति उतंगा - बिना किसी श्रमण, यज्ञ, प्रयास, तप के, सहज ही मिलन हो गया। उधर रामानंद जी ने चेताया, और तुरंत ही मिलन हो गया। कुछ करने जैसा था ही नहीं, क्योंकि असल में दो चीजें हैं ही नहीं। अच्छी तरह से प्रकट होकर, सहज ही भक्ति की मौज बह निकली, वह नाच गा रही है। कबीर साहब ने नाचते गाते उस सत्य की मौज में डूब जाने पर प्रकाश डाला है। वह संभावना जो अभी चेती नहीं है, वह चेते हुए के नजदीक आकर के जल उठी, यही सत्संग का प्रभाव है। विचार और विचारक एक ही घटना है, यह समझ होते ही, सहज ही मिलाप है।
कहै 'कबीर' सुनो हो गोरख, चलो गीत के संग - यह जीवन तर्क में नहीं समा सकता, यह गीत की तरह है। जो बुद्धि में समा सकता है वह सीमित है, पर जो बुद्धि के पार है वह असीमित भी है, और सीमित को अपने में समाए, आत्मसात भी किए हुए है। वह जो जाना नहीं जा सकता है, वह गीत है। जो जाना जा सकता है, वह तर्क, कारण प्रभाव, बुद्धि में प्रकट होता है। अपरा भक्ति के गीत में अज्ञेय समाने लगता है।
इस पद में कबीर साहब गोरख को बता रहे हैं कि मेरा होना वहां से है, जहां ना देश है ना काल है, और वह कहने सुनने में अभी, यहीं पर विद्यमान है। यदि गीत है, तो निश्चित ही ऐसा जीना सत्यापित हो सकता है, जो हमारी आपकी भूमिका, कारण प्रभाव, देश काल, आदि अंत से मुक्त है। जो पहले से वीतरागी है, वही वीतराग को उपलब्ध हो सकता है।
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