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Ashwin

कछु अकथ कथ्यो है भाई - कबीर उलटवासी का मर्म (अरण्यगीत) - धर्मराज



१) कछु अकथ कथ्यो है भाई।

 

नर को ढाढ़स देखो आई,

कछु अकथ कथ्यो है भाई।

 

सिंह शार्दूल एक हर ज़ोतिनि,

सीकस बोइनि धानै।

बन की भुलैया चाखुर फ़ेरें,

छागर भए किसाने।

 

छेरी बाघै ब्याह होत है,

मंगल गावै गाई।

बन के रोझ धरि दायज दीन्हों,

गोह लो कंधे ज़ाई।

 

कागा कापर धोवन लागे,

बकुला किरपहिं दाँते।

माँखी मूड़ मुड़ावन लागी,

हमहूँ जाब बराते।

 

कहहिं कबीर सुनो हो संतों,

जो यह पद अर्थावै।

सोई पंडित सोई ज्ञाता,

सोई भक्त कहावै।

 

२) एक दृष्टि है कि तुम्हें उस पार जाना है, और एक दृष्टि है कि तुम पहले से उस पार ही हो। एक दृष्टि है जब हम अपनी दृष्टि से सत्य को देखते हैं, और एक दृष्टि है जब सत्य हमारी तरफ देखता है। हमारी दृष्टि है कि देखना बिना देखने वाले के संभव नहीं है, जबकि सत्य हमारी दृष्टि से न्यारा है, क्योंकि जीवन को देखने के लिए कोई माध्यम नहीं चाहिए, जैसे बिना पैरों के चलना, बिना जिव्हा के स्वाद लेना आदि। 

 

३) नर को ढाढ़स देखो आई, कछु अकथ कथ्यो है भाई।

 

कबीर साहब सत्य की दृष्टि से हमारे जीवन की व्याख्या कर रहे हैं। कुछ ऐसा जीवन का आधार बुद्धि ने तय किया है, जो हो ही नहीं सकता, फिर भी वह फल फूल रहा है। जिसको कहने का कोई उपाय नहीं है, उसे भी खूब कहा जा रहा है। सुबह से लेकर शाम तक, जीवन को हम विचारों में बांच रहे हैं। साहेब कह रहे हैं कि मनुष्य की बुद्धि, सोच विचार की प्रक्रिया, अहंकार के खेल का दुस्साहस तो देखो कि जो बिलकुल झूठ है, उसको भी सत्य कह कह कर, सत्य बनाए हुए है। अफवाह या दुष्प्रचार बहुत जल्दी से फैलता है, तिल का ताड़ बना दिया जाता है। जीवन के नाम पर सारी संस्थाएं हमने ऐसे ही दोहरा दोहरा कर बनाई हुई हैं, यह एक तरह का समूह सम्मोहन है।

 

इस तरह जो जीवन झूठ के पार का है, वह हमारे हाथ से निकल जाता है। हम तो यह समझते हैं कि जो समूह सम्मोहन का अनुसरण नहीं कर रहा है, वह व्यक्ति भटक गया है। अकसर जो झूठा होता है, उसके पास बहुत दुस्साहस होता है।

 

४) सिंह शार्दूल एक हर ज़ोतिनि, सीकस बोइनि धानै।

 

शार्दुल एक छोटा कोमल सा पंछी है, और सिंह बलवान है, जमीन पर चलने वाला है, दोनों में कोई मेल नहीं है, पर हमने दोनों को एक साथ हल में जोत दिया है। यह जीवन की तरफ संकेत है कि एक तरफ जो सशक्त है, और एक तरफ जो कोमल है, उसको हम एक साथ लेकर के चल रहे हैं। साहेब मन या बुद्धि को ताकत का प्रतीक कह रहे हैं, और दूसरा है प्रेम, संबंध, हृदय की कोमलता, करुणा आदि।

 

कोमल और विध्वंसक भावों को हमारे जीवन के ढंग ने और बुद्धि ने, एक साथ जोत दिया है। यह बुद्धि गाड़ी चलाने के लिए बनी है, इससे संबंध तय नहीं हो सकते हैं, जहां पर बुद्धि नहीं है, वहां पर संबंध पाया जाता है। जहां पर बुद्धि समाप्त होती है वहां से प्रेम शुरू होता है, पर हम समझते हैं कि हम किसी से प्रेम करते हैं, या प्रेम नहीं करते हैं।

 

सीकस बोइनि धानै - सीकस यानी बिल्कुल बंजर जमीन, सफेद नमक जैसी मिट्टी, उसमें धान बो दिया गया है। सोच विचार, मन एक मरुभूमि जैसा है, उसमें जीवन बो दिया गया है। मूढ़ता पूर्वक मन से हम जीवन को तय कर रहे हैं, मन हमारे जीवन का कर्णधार बन गया है। यह एक करारा व्यंग्य है कबीर साहब का कि इस तरह हमने जीवन को चौपट कर दिया है।

 

५) बन की भुलैया चाखुर फ़ेरें, छागर भए किसाने।

 

फसल, छोटे पालतू पशुओं की रखवाली, देखभाल, पालन पोषण जंगल की लोमड़ियां कर रही हैं। ऐसे ही कुछ हमने अपने जीवन में किया हुआ है, मन एक लोमड़ी के जैसा ही है, मन या अहंकार सिर्फ स्वार्थ की ही भाषा समझता है। हम जब कहते हैं कि हम परोपकार करते हैं, तो उसके पीछे भी हमें अपना ही कोई हित सिद्ध करने की मंशा होती है; यह बहुत कुटिल ढंग है अपने आप को लाभ पहुंचाने का। जो जीवन अक्षत है, निर्दोष है, उस जीवन का रखरखाव यह लोमड़ी जैसा मन कर रहा है।

 

हमारे जीवन या संबंध के तौर तरीके, ढंग, हिसाब किताब एक लोमड़ी के जैसे ही हैं, जो उसीको खा जाती है, जिसकी रखवाली वह कर रही है। हम लोग भी जीवन में संबंध के नाम पर स्वार्थ को ही सिद्ध करने में लगे रहते हैं। जीवन निजता और स्वार्थ परता से सर्वथा मुक्त है, वह दूसरे का हित करने से भी मुक्त है; वह कुछ और ही बात है, हित की बात ही उसमें दोयम है।

 

छागर भए किसाने - बकरे किसानी कर रहे हैं, बकरा फसल की रखवाली कर रहा है, बकरा उसको खाता है जिसको किसान बचाता है। महर्षि भी कहते हैं कि जो चोर है, वही सिपाही बनकर खजाने की रखवाली कर रहा है। अहम जो सबसे बड़ा लुटेरा है, वही खजाने की रखवाली करने का ढोंग कर रहा है। हमें अपना कुछ अता पता नहीं और समाज सेवा कर रहे हैं। धरती पर कैसे चला जाता है उसका पता नहीं है, और स्वर्ग पर विचरण की कल्पना कर रहे हैं। यहां संबंधित होने का अता पता नहीं है, और ईश्वर से संबंध बना रहे हैं।

 

६) छेरी बाघै ब्याह होत है, मंगल गावै गाई।

 

बकरी और बाघ का यहां पर खूब गा बजा करके ब्याह हो रहा है, यह हमारे जीवन के तरीके पर करारा व्यंग्य है। जो विषम धर्मी हैं, यानी जो कमजोर है और जो छीनने वाला है, उनकी शादी हो रही है।

 

बुद्धि से जो बड़े से बड़ा सम्मोहन दिया जा सकता है आयोजित संबंध का, वह है ब्याह। यह जो ताना-बाना बुना है झूठ का, वह ब्याह शब्द के माध्यम से अच्छी तरह व्याख्यायित होता है। ब्याह में इतने आयोजन, सुझाव, लेन देन हो जाते हैं कि हम सम्मोहित हो जाते हैं कि अब तो हमारा संबंध जुड़ ही गया है; जबकि यह सब बुद्धि के द्वारा तैयार किया गया है। मन बहुत ही घातक है, वह सुकोमल चीजों के साथ अपने आप को जोड़ लेता है, और दिखावा करता है कि हम जुड़े हुए हैं। जैसे मन कहता है कि मैं ध्यान करता हूं, जबकि मन की किसी भी क्रिया से ध्यान को समझा ही नहीं जा सकता है।

 

७) बन के रोझ धरि दायज दीन्हों, गोह लो कंधे ज़ाई।

 

जो नील गाय है वह दहेज में दी जा रही है। जिनको जीवन के बारे में कोई समझ नहीं है, उनको पकड़ करके उपहार के रूप में दिया जा रहा है, ये सोचकर कि उससे जीवन में सहयोग होगा। पालतू पशु को पता होता है कि घर बाड़े में कैसे रहना है, पर नील गाय को उसका कोई अंदाजा नहीं होता है। मन को यथार्थ संबंध की गति या प्रेम का कुछ भी अता पता नहीं है, और उसको ही संबंध का सहयोगी बनाया जा रहा है। यानी मन संबंध को पद प्रतिष्ठा, जाति के आधार पर निर्धारित कर रहा है।

 

गोह लो कंधे ज़ाई - गोह एक विषैली छिपकली जैसा जानवर होता है, जिसके पास कंधा नहीं होता है। कबीर साहब कह रहे हैं कि जीवन उस कंधे पर ढोया जा रहा है, जिसके पास कोई कंधा ही नहीं है, और जो बहुत विषैला है। मन रेंग करके एक लकीर में चलता है, यानी मन पिछले अनुभवों के आधार पर आगे चलता है। जीवन सर्वदा ताजा है, किसी बासी चीज के आधार पर उसको निर्धारित करना, उसको विषाक्त कर देता है। यदि मैं किसी पुराने अनुभव के आधार पर किसी व्यक्ति के साथ व्यवहार करता हूं, तो वह एक विषाक्त व्यवहार है। कोई भी पिछला अनुभव इस समय की जीवंतता के साथ असम्यक होता है। हमारी गाथा ऐसी है कि जैसे मगर गोह के कंधों पर जीवन को ढोया जा रहा है। जीवन की जब हम व्याख्या करते हैं कि मेरा जीवन ऐसा हो, तो यह मगर गोह की व्याख्या है।

 

८) कागा कापर धोवन लागे, बकुला किरपहिं दाँते।

 

कौवे को एक मैल के प्रतीक में लिया गया है, वही कपड़े को धोने का दंभ कर रहा है। जीवन के वस्त्र को मेरा अपना अलग होना, मेरी तृष्णा मैली करती है। हम लोग अपने आप को चरित्रवान दिखाते हैं, जबकि मैं कभी भी आध्यात्मिक नहीं हो सकता है। जब कोई कहे कि मैं आध्यात्मिक हूं, तो यह समझना चाहिए कि कौवा कपड़ा धो रहा है। जितना हमने अपने संबंधों को संभाला है वह उतना ही बिगड़े हैं। मैं या विचार कभी भी संबंध जोड़ नहीं सकता, क्योंकि मैं एक तोड़ने वाली प्रक्रिया का नाम है। संबंध कालातीत होता है, वह जोड़ा नहीं जा सकता है।

 

बकुला किरपहिं दाँते - बगुला चोंच से कपड़े की सिलवटें हटाने का काम कर रहा है। बगुला प्रतीक है पाखंड का, बाहर से वह उजला दिखाई देता है, पर अंदर से शिकार की ताक में बना रहता है। अहंकार जो अव्यवस्था का मूल कारण है, वह जीवन में व्यवस्था लाने का प्रयास कर रहा है। जहां पर सिर्फ जीना घट रहा है, जहां पर जीवन के खिलावट जगह ले रही है, वहां पर हमने हस्तक्षेप करके अव्यवस्था फैला रखी है; और हम समझते हैं कि हम जीवन व्यवस्थित कर रहे हैं। अहंकार का सुक्ष्म रूप वह है - जो दान देता है, जो कहता है कि मैं धार्मिक हूं, मैं गुरु हूं, जो समझता है कि मैं संबंधों को ठीक कर सकता हूं; जिसमें कोई भी मेरा सामर्थ्य शामिल है, नकारात्मक या सकारात्मक, वो अहंकार का ही एक रूप है।

 

९) माँखी मूड़ मुड़ावन लागी, हमहूँ जाब बराते।

 

मक्खी गंदगी का भक्षण उसमें अपना मुंह डुबाकर के करती है, और जो साफ-सुथरा भोजन होता है उस पर भी आकर के बैठ जाती है। जो हमारी सारी चालाकी है, उससे हमने जीवन की निर्दोषिता को भंग किया है, कि ऐसा या वैसा हो जाऊं, यह करके दिखा दूं; यह सब मक्खी के द्वारा किए गए उपाय जैसे हैं कि यहां भी बैठ जाऊं, वहां भी बैठ जाऊं। अंदर से गंदगी भरी हुई है और बाहर से अपना चेहरा चमका दिया है, और इस तरह बन ठन करके अपनी शोभा यात्रा निकाली जा रही है। बाहर दिखावा किया जा रहा है कि हमारे जैसा धार्मिक या आध्यात्मिक व्यक्ति कोई और है ही नहीं।

 

१०) कहहिं कबीर सुनो हो संतों, जो यह पद अर्थावै।

 

सब इस बात को नहीं सुनते हैं, कोई बिरला ही सत्य सुनने का या खुद को जस का तस देखने का, साहस कर पाता है। साहस है कि खुद को देखना कि मैं मक्खी के जैसे सज धज कर दिखावा कर रहा हूं, कि मैं बगुले जैसा जीवन जी रहा हूं, या कौवे की तरह कपड़े धोने का नाटक कर रहा हूं। जो हम हैं, जैसे हम हैं उस पर कबीर साहब ने प्रकाश डाला है। जब यह स्थिति नहीं रहेगी, तो हमें पता भी नहीं चलेगा कि वह क्या स्थिति है; यदि हमें अपने अच्छा होने का पता चल रहा है, तो अभी कुछ दोष बाकी रह गया है।

 

सोई पंडित सोई ज्ञाता, सोई भक्त कहावै।

 

इस उलट बांसी का जो अपने अंदर अर्थ खोल लेगा, समझ जाएगा, वही ज्ञानी है; जिसको यह साहस आ गया कि मैं जो भी करूंगा जीवन को व्यवस्थित करने के लिए, वह बगुले की तरह ही किया गया कोई कार्य होगा। जो अपने अंदर यथाभूत, जो है जैसा है, वह दर्शन कर लेगा, उसको प्रकाशित करने में, जागरण को अवसर देने में सक्षम है, वही पंडित, ज्ञानी और वही भक्त है। ज्ञानी होने में एक चीज छूट जाती है वह है करुणा या ह्रद्यात्मकता।

 

किसी चीज को जस का तस बिना बांटे एक साथ देखना, ज्ञान का, ध्यान का और भक्ति का एक अभिनव संगम है। ज्ञान और भक्ति जहां अभेद हो जाते हैं, वह है यथाभूत दर्शन। जस का तस देखते हुए, यदि अंदर प्रेम का सागर नहीं लहराने लगे, तो वह अन्यथाभूत दर्शन है। जो इस पद के मर्म को जीवन में घोल लेगा, उसके लिए ज्ञान और भक्ति की पराकाष्ठा सहज ही उपलब्ध होती चली जाती है।


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