१) कई बार दूसरे को देखते हुए हमारी अपनी मनःस्थिति के प्रति हम सजग नहीं होते हैं। आपकी अपनी एक मनःस्थिति होती है, जो की संस्कारों से आती है, जिसके कारण हम दूसरे को सही से नहीं समझ पाते हैं; जिसके आधार पर किसी के साथ जुड़ते हैं, या किसी से दूर होना चाहते हैं।
"क्या हाल है", में सिर्फ सामने वाला का ही नहीं, मेरा भी क्या हाल है, वो भी साथ में यथावत शामिल होता है। यहां करना आधार नहीं है, यहां जो भी घट रहा है उसका, यथावत दर्शन, उपस्थिति या होश आधार है। संस्कारों के आधार पर एक बनावटी जीवन ही जिया जा सकता है, बल्कि इस तरह से जिया जीवन, तो जीवन है ही नहीं।
२) आपकी जो अपने बारे में सोच है, और किसी और के बारे जो सोच है, वो मैं को जन्म दे रही है। एक छवि गिरेगी तो दूसरी छवि भी गिर जाती है। यदि आप किसी छवि को साथ ले कर चल रहे हैं, तो जो अभी घट रहा है, वहां पर आप हैं ही नहीं।
जब हम आप देखते हैं तो वो देखना नहीं होता है; दिखना जब होता है तो आप नहीं होते हैं। मैं देख रहा हूं, ऐसी कोई चीज होती ही नहीं है; मैं यदि देख रहा हूं तो वो बनावटीपन ही है। मैं और मौजूदगी, ये दोनों एक साथ नहीं हो सकते हैं।
३) यदि हम आप सिर्फ बात कर रहे हैं, तो यहां जो भी हाल है, उसे बस देखा जा रहा है। इस होश में जो सृजनात्मकता हमारे आपके पार है, वो भी प्रकट है। मैं अविष्कार कर सकता हूं, सृजन नहीं कर सकता हूं। सृजन में कोई प्रयास नहीं होता है, वह घटता है, वहां मैं होता ही नहीं है। जबकि अविष्कार मैं के द्वारा ही किया जा सकता है।
मैं जो भी करूंगा उसमें निसर्ग नहीं होगा, उसमें अज्ञेय की, अथाह की उपस्थिति नहीं होगी। सृजन में अज्ञेय, अथाह की उपस्थिति होती है, जैसे एक फूल है। फूल को, आकाश को, आप जान नहीं सकते हैं, थोड़ी सूचना आपके पास हो सकती है, पर वो उतना ही नहीं है, वो अज्ञेय है। आकाश सृजन है, अविष्कार नहीं है, उसकी थाह को जाना नहीं जा सकता है। आकाश की सीमा को हम लांघ नहीं सकते हैं, और वो जीवंत है, उसको किसी ने बनाया नहीं है; यह अनबना है। हम आप अपने अविष्कार मैं कभी अथाह, अज्ञेय, अकाल को ला ही नहीं सकते हैं।
हम आप जो भी करेंगे वो समय की सीमा में बंधा होगा, जबकि सृजन कालातीत है। कोई भी अविष्कार यथार्थ के धरातल पर नहीं हो सकता है, वो आभासीय है, वो केवल मन के धरातल पर होता है। जिसमें कुछ जोड़ा जा सकता है, जो हस्तांतरणीय है, वो सीमित है, वो अविष्कार है। हम कभी भी किसी को सृजन सीखा नहीं सकते हैं, ये अस्तित्व के ऊपर है कि वो घटे, उसे आप बाध्य नहीं कर सकते हैं। जबकि हर एक मशीन बाध्य होती है, जैसे कोई कार हमेशा एक नियम से ही बंधी होती है। सच्ची कविता हम नहीं लिख सकते हैं, वो उतरती है। जैसे ही हम ठीक से अवसर दें, तो जो हमारे परे है, वो सहज ही उतरने लगता है, जैसे अभी यहीं पर वो है।
४) सब कुछ तो मौजूद है यहां, तुम बस उसे दोहरा रहे हो।
अंदाजे बयां अलग करके, खुद को खुदा बता रहे हो।
आपने कुछ रचा नहीं है, आपको बस दर्शन हुए हैं। जो कुछ चल रहा है, यदि आप उसको यथावत देख पाओ, तो उसको कहते हैं दर्शन। सब कुछ पहले से ही मौजूद है आप बस उसे देख पा रहे हो।
हमारी सारी शिक्षा प्रणाली, समाज, मैं को ही पुष्ट करता है। बचपन से ही हम सम्मोहन साझा करते रहते हैं। हम अपनी धन संपत्ति से बाहर आ ही नहीं पाते हैं, सुविधा या धन अर्जन, जीवन नहीं है। इंटरनेट, तकनीकी का दुरुपयोग या सदुपयोग, दोनों किया जा सकता है। शिक्षक ही तैयार नहीं हैं, बात अमृत की है, और पात्र ही विषाक्त है। बहुत ज्ञानी जनों को भ्रम हो जाता है कि मैं तो कृष्णामूर्ति जी की शिक्षाओं को शुद्ध रूप में समझता हूं, वो तो दूसरा है जो शिक्षाओं को दूषित कर रहा है। शिक्षक पहले शिक्षित होना चाहिए, अपने अंदर देखने में सक्षम होना चाहिए। कृष्णमूर्ति जी कहते थे educator must be educated.
यदि मैं अभी देख नहीं पा रहा हूं, यह मेरा अभी का तथ्य है, बस इसके साथ ही बिना छेड़छाड़ के रहें। अधिकतर हम बहुत जल्दीबाजी में होते हैं कि तुरंत उसका फल मिलने लग जाए। यदि यह लक्ष्य बन जाता है कि मुझे अपना अवलोकन करना है, वही सम्यक अवलोकन में एक बड़ी बाधा बन जाता है। हम अनुभवों के पीछे भागते हैं, वही सबसे बड़ी बाधा है, और जो तथ्य हैं, उसके साथ नहीं रहते। सम्यक देखने से पहले, आपको पहले यह स्वीकारना होगा कि आपको देखना नहीं आता है।
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