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लोचन रहते अंधा - कबीर उलटवासी का मर्म । अरण्यगीत । धर्मराज



लोचन रहते अंधा।


अवधू ऐसा ज्ञान विचार

भेरें चड़े सो अद्धर डूबे

निराधार भये पार।


औघट चले सो नगरी पहुँचे

बाट चले सो लूटे

एक जेवड़ी सब लपटाने

के बांधे के छूटे


मंदिर पेसि चहुँ दिशी भीगे

बाहर रहे तो सूखा

सरि मारे ते सदा सुखारे

अनमारे से दुखा


बिन नैनन के सब जग देखें

लोचन रहते अंधा

कहें कबीर कछु समझ परी हैं

यह जग देखा धंधा


वधु यानी माया, और जो चित्त के जंजाल को समझने लगा है उसको अवधु कहा गया है।


अवधू ऐसा ज्ञान विचार - है मित्र हम साथ साथ चलते यह देख पा रहे हैं।


भेरें चड़े सो अद्धर डूबे - जो नाव में चढ़कर उस पार जाने का प्रयास करते हैं वो बीच मझधार में डूब जाते हैं।


निराधार भये पार - जो कोई सहारा नहीं लेते हैं वो पार हो जाते हैं।


औघट चले सो नगरी पहुँचे - बिना रास्ते के जो चलता है वो अपने मकाम तक पहुंच जाता है।


बाट चले सो लूटे - जो रास्ते पर चलता है वो लुट जाता है।


एक जेवड़ी सब लपटाने - एक ही रस्सी से सब लोग बंधे हुए हैं।


के बांधे के छूटे - अब किसको कहें वो बंधा है और किसको कहें कि वो मुक्त है।


मंदिर पेसि चहुँ दिशी भीगे - भवन के नीचे जो है वो चारों तरफ से भीग रहा है।


बाहर रहे तो सूखा - जो भवन के बाहर हैं जिनके ऊपर कोई छत भी नहीं है वो सुखा है।


सरि मारे ते सदा सुखारे - यदि हम पूरे के पूरे मारे जाएं तो सदा के लिए जीवन में सुख या आनंद उतर आता है।


अनमारे से दुखा - और यदि नहीं मरते हैं तो वह दुखी रहता है।


बिन नैनन के सब जग देखें - यदि आंखें नहीं है तो सारा जग दिखाई पड़ता है।


लोचन रहते अंधा - यदि आंखें हैं तो कुछ नहीं दिखता है।


कहें कबीर कछु समझ परी हैं,

यह जग देखा धंधा - मित्रों जब से संसार का यह सारा धंधा देखा है तब जाकर के कोई बात समझ में आई है।


३) हमारे पास इतनी होशियारी है कि हमें लगता है कि हम जीवन का कुछ उद्धार कर लेंगे। हम समझते हैं कि धन पद प्रतिष्ठा रिश्तेदार आदि इकट्ठा कर लेंगे, तो जो जीवन में दुख है हम उस से पार चले जाएंगे। जिन्होंने सहारा लिया वह बीच मझधार में डूबे और जिन्होंने कोई सहारा नहीं नहीं लिया वो पार हो गए। जो बुद्धि तय कर देती है कि क्या अच्छा है क्या बुरा है, कौन साधु है और कौन दुष्ट है, उसी के आधार पर हम अपना जीवन जीने लगते हैं। सारे रिश्ते बीच में ही तो डुबो देते हैं, टूट जाते हैं, सात जन्मों का रिश्ता है यह सब बातें सही नहीं हैं।


जो दुख की हमारी अभी की स्थिति है उस से बाहर निकलने के लिए किसी भी आधार के झांसे में हम नहीं आएं, वह निराधार है, तो हम ठीक उसी जगह पर हैं जहां पर अकेलापन है। यहां विचार का हस्तक्षेप और विचार के आधार पर कुछ समाधान की आकांक्षा भी हमारी समाप्त हो गई है। जब आप कोई गति नहीं करते हैं, तो जो नैसर्गिक गति है वह वहां पर काम करती है। दुख यही है कि जो मेरा अभी प्रारूप है उसको मैं बदलना चाहता हूं, उस तरह से जो कि संस्कारों से आ रहा है। यह बदलने की जो प्रक्रिया या गति है, यह गति ही दुख है।


मैं जो हूं उससे संतुष्ट नहीं हूं, जो जीवन अभी मिला हुआ है उसकी गहराई में मैं कभी गया ही नहीं। यदि ऊर्जा रूकती तो वह धीरे-धीरे गहराई में जो असल है उसमें उतरती। ऊर्जा यदि कल्पना में गति नहीं कर रही है, तो यथार्थ में गति करेगी। यथार्थ में डुबकी नहीं लगाने की वजह से जीवन में दुख या अकेलापन है। आभासीय तल पर गति होने के कारण हम यथार्थ में डुबकी नहीं लगा पाते हैं, जीवन कभी यथार्थ के बोध से ओत प्रोत नहीं हो पाता है। जब सभी प्रकार के आधार से हम मुक्त हुए, तो जीवन अपने आप उसमें डुबकी लगाने लगता है जो दुख से मुक्त है। तब इसी छोर पर ही हम पाते हैं कि हम पार हो गए।


४) नदी यदि असल में है तो उसे पार करने के लिए किसी न किसी माध्यम की आवश्यकता होगी। लेकिन यदि नदी काल्पनिक है और आप किसी भी चीज को आधार बनाते हैं उसके पार करने के लिए, तो वह आधार बनाना ही यह पुष्ट करेगा कि वह नदी वास्तविक है। हमारे सारे दुख भी एक काल्पनिक नदी की तरह ही हैं। यदि मैं दिवा स्वप्न में मुंबई में हूं, तो वहां से वापस आने का कोई भी प्रयास इस बात को और पुष्ट करेगा कि मैं मुंबई में हूं। किसी भी मूवी या कल्पना को टिकने के लिए कोई गति चाहिए। मूवी का अर्थ ही है जो मूव करती है।


यदि मैंने कोई आधार नहीं लिया तो जो यह काल्पनिक दुख है, वह बाध्य हो जाएगा गिर करके समाप्त होने के लिए। यदि मैं अकेलेपन के साथ हूं, किसी के साथ की आकांक्षा नहीं है, उसको समाप्त करने की कोई गति नहीं मिली, तो अकेलेपन का विचार टिक नहीं पाएगा। अकेलेपन का विचार तब बना रहता है जब अकेलेपन से हट करके आप किसी के साथ होने का प्रयास करते हैं। यदि आप निपट अकेलेपन में पूरी तरह से हैं तो अकेलापन समाप्त हो जायेगा। अकेलापन जीवन का स्वभाव नहीं है, वह एक विचार की उत्पत्ति है। यदि आपने कोई आधार नहीं लिया तो उस पार जाने की कोई जरूरत ही नहीं है, यही वह पार है जहां पर आपको होना चाहिए था, और आप वहीं पर हैं।


५) एक झेन कथा है। एक व्यक्ति अपने दोस्त से पूछता है जो नदी की दूसरी पार है, कि मित्र में उस पार कैसे आऊं? उसका मित्र बोलता है कि तुम तो उसी पार हो जिस तरफ तुम्हारा घर है। यह बात सुनते ही वह व्यक्ति सम्यक बोध या अंतर्दृष्टि को उपलब्ध हो जाता है। यदि जीवन का मर्म समझ में आ गया, तो सारे रूपक पीछे छूट जाते हैं। मैं तो पहले से ही उस पार हूं, उस पार जाने की जो चाह है, वही उस पार को निर्मित कर रही है। अगर उस पार जाने की जद्धो जहद निकल जाए, तो उस पार जैसी कोई चीज होती ही है। आप इस पार ही पाते हैं कि उस पार का भ्रम टूट गया, यानी जब उस पार जैसी कोई चीज नहीं है, तो इस पार जैसी भी कोई चीज नहीं है।


जब पूछा जाता है कि कौन है, तो व्यक्ति कहता है मैं हूं, तो दरवाजा नहीं खुलता है। दुबारा जब पूछा जाता है कि कौन है, तो वो व्यक्ति कहता है कि तू ही है, तो कथा कहती है कि दरवाजा खुल जाता है। यानी कोई यात्रा या दूसरे का होना, सब झूठ था। प्रेमी से दूर जितनी भी यात्रा करी गई, मैं होने की, वो झूठ थी। जब कोई आधार नहीं है तो उस पार होना पाया जाता है, उतरने की भी जरूरत नहीं है।


६) रास्ते पर जो चलता है वह लुट जाता है, यहां कौन है जिसने जो जिंदगी भर कमाया है उसका वह सब छूट नहीं गया हो। मृत्यु आती है तो सब छूट जाता है क्योंकि वह हमारा कभी था ही नहीं, यह केवल एक कालनिक विचार था कि वह हमारा है। हम किसी को रिश्तेदार मान लेते हैं, मान लिया तो संबंध बन जाता है, और मान लिया तो तलाक हो जाता है। यदि असल संबंध होता तो कभी तोड़ा नहीं जा सकता था, जैसे आप सूरज और धरती से अपना संबंध कभी तोड़ ही नहीं सकते हैं। बस एक सामाजिक व्यवस्था है जिसको हम ज्यादा गंभीरता से ले लेते हैं।


अराजक या राजक होना दोनों बुद्धि से ही गाइड होता है। जो मर्जी आए करो, यह बात भी गलत है, क्योंकि यहां पर भी मर्जी की भूमिका बनी हुई है। जीवन के तल पर बिना बुद्धि, विचार का प्रयोग किए, जीना क्या है? उलट बांसीयां असंभव प्रश्न हैं। बिना रास्ते के चलना क्या है? इसका उत्तर बुद्धि नहीं जान सकती है। बिना किसी निष्कर्ष या निर्णय के हम आप चलना नहीं जानते हैं। जीवन में सौंदर्य को, शुद्धता को, वही अवसर दे पता है जो बिना किसी रास्ते के चलता है, ऐसा रास्ता जो अराजक या राजक, दोनों नहीं है, जो बुद्धि या चित्त के द्वारा निर्देशित नहीं है।


क्या सच में ही ऐसा कुछ चलना है, जो बुद्धि के रास्ते से मुक्त है? इस प्रश्न का उत्तर नहीं आएगा पर जीवन में जागरण जगह लेने लगेगा। जागरण कोई रास्ता नहीं है, वह जीवन में जो सम्यक है, उसको प्रकाशित कर देता है।


७) सभी एक रस्सी से बंधे हैं जिसका नाम है मानसिक समय, जो यह कहता है कि मैं था, मैं हूं, और मैं कुछ हो जाऊंगा। इस मानसिक समय से संसारी भी बंधा है और संन्यासी भी बंधा है। इस विचार प्रक्रिया की डोरी से ही सब बंधे हुए हैं, और यह विचार प्रक्रिया समय की डोरी पर चलती है। समय ही हमारी विचार प्रक्रिया का आधार है, किसको कहें कि कौन बंधा हुआ है और कौन छूटा है? किसी को बुद्धत्व पाना है, तो किसी को पद, धन कमाना है। एक ही समय की गति या रस्सी से हर कोई बंधा हुआ है।


सोच विचार का एक काल्पनिक भवन या मंदिर हमारे अंदर निर्मित है। सबके अंदर सोच विचार का अपना एक आकाश निर्मित है, अलग-अलग दुनिया में हम सब जीते हैं। यह जो सोच विचार का, परिवार का, संपत्ति का, एक कुंबा हमने बनाया है अपने अंदर, इसके अंदर जो भी रहता है वह भीग जाता है। यहां भीगने का अर्थ है कि वह कुछ ना कुछ दुख झेलता रहता है जीवन भर। जीवन में सोच विचार के भवन के यदि बाहर जो निकल गया, तो फिर सुखा है, यानी उसे फिर कुछ दुख नहीं झेलना पड़ता, वह मुक्त है।


क्या वास्तव में कुछ ऐसा जीना संभव है जो इस सोच विचार के महल से मुक्त है? यदि आप सोच विचार से आसक्त नहीं है तो अंतर्दृष्टि या होश की छलांग जीवन में घट गई, पर मैं उसको पकड़ नहीं सकता है; क्योंकि मैं तो उसी महल का ही एक हिस्सा हूं। यह प्रश्न आपकी उपस्थिति और महल को, ही भंग कर देता है।


८) थोड़ा बहुत मरने से कुछ नहीं होगा कि ऊपर ऊपर से दिखावा है कि हम आपके दास हैं, और अंदर कुछ और ही चालबाजी या जुगाड़ चल रहा है। जब हम व्यापार में पूरी तरह से किसी को चूस लेते हैं, तो उस ग्लानि से निकलने के लिए दान पुण्य का ढोंग करने लगते हैं। थोड़ा बहुत मरने से कुछ नहीं होगा उससे तो कई बार चित्त उसमें आनंद भी ले सकता है कि मैं सेठ भी हूं, और बहुत विनम्र भी हूं। मैं को मारने के लिए तत्पर नहीं होना दुख का स्वरूप है। जब तक मैं है तब तक दुख जीवन में विराजमान रहेगा, यह सनातन धर्म है। जहां मैं का पूरी तरह से अंत हो गया, वहां पर सुख और दुख से परे जो आनंद है, वह सदा विराजमान ही है।


भौतिक आंखें तो निर्दोष हैं, यहां कबीर साहब भौतिक आंखों की बात नहीं कह रहे हैं। वह आंख जो बांट करके या व्याख्या के साथ देखती है, जो पुरानी स्मृति का उपयोग करके अभी को विचारों से देखती है, ऐसा देखना अंधापन है। वह देखना क्या है जो बिना आंखों के है, पर सब कुछ स्पष्ट दिखाई पड़ता है। कृष्णमूर्ति जी कहते हैं कि क्या बिना अवलोकनकर्ता के अवलोकन किया जा सकता है? वह देखना क्या है जिसमें कोई देखने वाला नहीं है? मेरे होने, और जो यह सापेक्ष दृश्य दिख रहा है, इस पूरी संरचना के प्रति, क्या कोई ऐसा जागरण है, जो किसी के द्वारा साधा नहीं जा रहा है?


९) यह अवलोकन बुद्धि के द्वारा समझ में नहीं आएगा। हमारी आंखें जो देखती हैं, वह दोयम है, जो वास्तविक चीज है वो हमें दिखाई नहीं पड़ती है, उसका प्रतिबिंब हमें दिखाई पड़ता है। जैसे पेड़ का प्रतिबिंब आंखों से दिखता है, और उसकी व्याख्या बुद्धि करती है। जीवन के संदर्भ में यदि हम केवल व्याख्या से चल रहे हैं, तो जो वास्तविक जीवन है उससे हम उखड़ जाते हैं। आप एक जीवंत घटना हो, आपके बारे में जो सूचना है वह जीवंत नहीं है, यदि आपके साथ मुझे संबंध में उतरना है तो उस स्तर पर जाना पड़ेगा जो की जीवंत है।


जो दिखाई पड़ता है वह छायाप्रति है, वो वास्तविक नहीं है, और जो विचारों में चल रहा है वह तो पूरा ही काल्पनिक है। जब हम कहते हैं कि मैं होश में हूं, तो यह नैसर्गिक बात नहीं है, यह दोयम बात है। जो मौलिक घटना है, वह किसी भी तरह के बोध से मुक्त होगी, क्योंकि यदि कोई घटना बोध में आ रही है, तो जिसको बोध में आ रही है उसका मूल्य ज्यादा है। अगर किसी चीज को बिना व्याख्या के देखा जा रहा है, जिसके देखने का मुझे पता भी नहीं चल रहा है, तभी वह दर्शन मौलिक दर्शन है। जो कुछ भी मन के माध्यम से देखा जा रहा है, वह सब अंधापन है।


१०) जो असल जीवन है उसका पता बुद्धि में नहीं चल रहा है। एक बच्चा आकाश को देखता है पर उसको जानता नहीं है, क्योंकि वह आकाश को आकाश नाम नहीं दे सकता है, और ना ही इस आकाश के प्रति जागरूकता को अवसर दे सकता है। और दूसरी स्थिति है कि हम आकाश को आकाश नाम से भी जान सकते हैं, और तीसरी स्थिति है जब हम उसके प्रति होश को अवसर भी दे सकते हैं। अब यहां एक छलांग लग गई है कि क्या यहां पर कोई ऐसी उपस्थिति है, जिसमें मेरी कोई भूमिका नहीं है? यहां पर अब जागरूकता है, लेकिन वह जागरूकता हमारे द्वारा साधी नहीं जा रही है, इसमें सारा जगत बोध में आ रहा है। जिसकी व्याख्या में यह सब कुछ आता है, वह आंख होते हुए भी अंधा है।


यह जो पूरा गोरख धंधा है इसको जब बिना स्तुति, प्रशंसा, निंदा, या आग्रह के देखा गया, तब जीवन में अंतर्दृष्टि आई, जिसमें अमृत का जन्म हो जाता है। यहां बस एक निवेदन प्रस्तुत है की जीवन बिना दुख, विचार या बिना मैं के जिया जा सकता है। अभी सब कुछ यांत्रिकता में चल रहा है बेहोशी में चल रहा है यह पहली स्थिति है, फिर दूसरी स्थिति है जब हमने अंतर्वस्तुओं को देखना शुरू किया या अवलोकन शुरू किया, तीसरी स्थिति है कि जिसको यह सब दिखाई पड़ रहा है वह भी प्रकाशित हो जाए तब दिखाना पूरा हुआ। जिसमें दिखना तो हो रहा है पर कोई देखने वाला वहां पर नहीं है। जब देखने वाले की तरफ आप देखते हैं तब कुछ नहीं दिखाई पड़ता है, लेकिन देखना पूरा हो जाता है। जैसे वृक्ष बीज से उत्पन्न होता है, और उसमें फिर से बीज पैदा हो जाते हैं।



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