हाथ, शरीर, मन, या उपस्थिति को देखिए बिना हाथ, शरीर, मन या उपस्थिति नाम दिए। जैसे इसे पहली बार देखा जा रहा है, एकदम बालवत।
मध्य में जीना क्या है? बाहर हम इंद्रियों से देखते हैं, अंदर मन से देखते हैं, बाहर या अंदर से मुक्त, यानी मध्य में जीना क्या है? यह अमरापुर में प्रवेश है, कबीर साहब ने मध्य को अमरापुर का नाम दिया है।
अयम् आत्मा प्रवचनेन न लभ्यः। न मेधया न बहुधा श्रुतेन। एषः यं एव वॄणुते तेन लभ्यः। तस्य एषः आत्मा त्वां तनूं विवृणुते॥
यह 'आत्मा' प्रवचन द्वारा नहीं मिलती है, न मेधा शक्ति या बुद्धि से, न बहुत शास्त्रों के श्रवण से। यह आत्मा जिसका वरण करती है या चुनती है, उसी के समक्ष यह 'आत्मा' अपने स्वरूप को अनावृत करती है।
ना प्रवचन से लाभ होता है, ना बुद्धि से, ये आत्मा जिसे चुनती है उसे यह अपना स्वरूप दिखा देती है। हम कुछ कर नहीं रहे हैं, हम बस उसे अवसर दे रहे हैं, हम जो खुद एक बाधा हैं, उसे बीच से हटाकर।
एक व्यक्ति अकेला रहता था पहाड़ों पर, बहुत निर्मल था, सत्तर वर्ष का था पर बहुत स्वस्थ था, एक दिन उसके सामने एक शेर आया और उसे खा गया। एक दूसरा व्यक्ति खुद को खूब संभालता था उचित खाता पहनता व्यवहार करता था, अचानक एक बीमारी आई और कुछ दिनों में ही वो मर गया।
ना बाहर ना भीतर, मध्य ही सम्यक है। भीतर बहुत संभाला बाहर से शेर आया और उसको खा गया, बाहर बहुत सहेजा, बीमारी भीतर से आई और मृत्यु हो गई।
यदि आप प्रेम साध रहे हैं तो घृणा आएगी ही आपके साधने की वजह से, चीजों के विपरीत सदा साथ में आते हैं, जैसे सुख दुख, अपना पराया। समाधान ना तो बाहर है ना भीतर है, समाधान मध्य में है।
सुख दुख, भावनाएं आदि हमारी परछाई हैं, हम जैसे होते हैं उसी कोटि के हमारे सुख दुख भावनाएं आदि होते हैं। एक व्यक्ति को अपनी परछाई से घृणा हो गई। जिससे आप भागते हैं वो पीछे पीछे और तेजी से आता है। एक भले आदमी ने उससे कहा परछाई की छांव में ही बैठ जाओ, और ऐसा करते हैं उसकी जो अपनी ही परछाई से घृणा थी, वह छूट गई। वो खुद पर ही हंसा। जब सही समझ आती है तो हम भी हंसते हैं क्योंकि हम जीवन भर अपनी ही परछाई से भागते रहे हैं। जिस चीज से हम भाग रहे हैं उसी में बैठ जाइए, उससे कुछ मत कीजिए। जैसे ही हम उसमें बैठ जाते हैं, तो तथ्य से छेड़छाड़ समाप्त हो जाती है, मध्य यानी जो है जैसा है, वहीं बैठ जाना है।
जैसे लोभ यानी किसी को पकड़ना, त्याग यानी किसी से दूर भागना, कुछ भी करने में वही भाव सघन होता है। समाधान है ठीक मध्य में बैठ जाना, क्योंकि हमारे भागने की वजह से सारे व्यवधान हैं। जैसे ही आप कुछ करेंगे ठीक उसका विपरीत निर्मित हो जायेगा।
जैसा कठो उपनिषद में लिखा है, इसे हम नहीं हासिल कर सकते वो हमें हासिल करता है। उसके अनुकूल होते ही वो हमारा वरण कर लेता है, जब हम चाहते हैं वरण करना तब नहीं होता।
आप किसी के साथ बहुत प्रेम पूर्वक व्यवहार कर रहे हैं, तो कालांतर में उसी से घृणा पैदा हो जायेगी। बाहर के व्यवहार से ठीक विपरीत अंदर पैदा हो जायेगा, अंदर की व्याख्या से ठीक विपरीत बाहर प्रकट हो जाएगा।
तथ्य से कोई छेड़छाड़ नहीं हुई तो प्रक्षेपण समाप्त हो जायेगा। आंखों की व्याख्या है कि झील दिखाई पड़ रही है, प्राकृतिक तथ्य तो रहेगा पर वो सत्य नहीं है। इंद्रियों या मन के सापेक्ष एक तथ्य प्रकट है, पर वो सत्य नहीं है।
एक गौरैया बैठी है, यह व्याख्या है; वो बैठी है यह तथ्य है। प्राकृतिक तथ्य या मानसिक तथ्य, ठीक इसके मध्य में जीना क्या है? असल में वहां क्या है, जहां दिखाई दे रहा है वहां पर असल में क्या है? असल में वहां जो भी है, वह अज्ञेय है, वह बुद्धि से जाना नहीं जा सकता है, पर उस में डुबकी लगने लगती है।
एक बच्चा या पशु जैसे देख रहा है चिड़िया को, यह प्राकृतिक घटना घट रही है, और यह गौरैया है यह मन की व्याख्या है, पर वहां असल में क्या है? इंद्रियों की व्याख्या या मन की व्याख्या इन दोनों से मुक्त जीवन क्या है? इन दोनों में सच क्या है? मन जो सिखाया गया है उतना ही बोल रहा है, इन दोनों का जो कॉमन धरातल है वहां क्या है? वह घटना, यह घटना क्या है?
प्रश्न उठाने मात्र से इंद्रियों या मन की व्याख्या का क्या हुआ? उससे पकड़ ढीली हो गई ना, एक जागरण को अवसर मिल गया। क्या वहां सम्यक कर्म पैदा नहीं होगा?
शारीरिक या मानसिक वृतियां चल रही हैं, ना उसकी उपेक्षा है ना प्रतीक्षा है, एक निहारना है प्रेम से, एक सौंदर्य बोध, जीवंत एहसास, निष्प्रयोजन कर्म वहां पैदा हो गया, और सहज कर्म सम्यक अवलोकन से पैदा होते हैं।
मध्य में जीना क्या है? इसका उत्तर नहीं आ सकता है, क्योंकि उत्तर हमेशा ध्रुव में आते हैं, मध्य में केवल सहज जीवन या होश पाया जाता है।
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Ashu Shinghal
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