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क्या कोई ऐसा जीना है जो सकल भ्रमों से मुक्त है? (ध्यानशाला - अपने आड़े आप, सुबह का सत्र, 20 दिसंबर 2024)

क्या कोई ऐसा जीना है जो सकल भ्रमों से मुक्त है? अपने ही पैरों में हम जंजीरें हैं, रिश्तों में हमारे प्रयास ही हमारे आड़े आप हैं। जीवन को किसी मुकाम पर पहुंचाने का कोई भी प्रयास एक बुद्धि विलास ही है। 


फेरबदल का अर्थ है कि हम मस्तिष्क को खोलकर उसमें से पीड़ा निकालने का प्रयास कर रहे हैं। अहंकार का भाव ही शुभता के आड़े है। अब मुझे अहम से मुक्त होना है, ये घूम कर फिर वही अहम सूक्ष्म रूप में प्रकट हो जाता है।


अपनी तरफ देखना जीवन में बेतकल्लुफी को अवसर देना है, जिंदगी, ध्यान का नाम बेतकल्लुफी है, यानी मामला कोई गंभीर नहीं है। क्या वास्तव में ऐसा है कि बिना तकल्लुफी के काम नहीं हो सकता है? 


जिससे आप कभी कुछ ले लेते हैं, तो उसको हम कभी माफ नहीं करते हैं। हम सोचते हैं, मौका ढूंढते रहते हैं कि तुमने बहुत मुझे सिखाया था, अब तुम मुझसे सीखो। 


क्या ऐसा संभव है कि जीवन में कुछ भी हो रहा है, वहीं बेतकल्लुफी को अवसर दे दिया जाए। वो जीना क्या है जो तकल्लुफी से मुक्त है? दुख, सुख सभी कुछ तकल्लुफी ही लाता है। 


जो द्वैत से अपवित्र होता ही नहीं है, उसको कैसे हम जान पाएंगे। मैं जो भी देखूंगा, वो मेरी हसरत के कारण तकल्लुफी ही है। देखने का मतलब ही नोचना है। फूल को अपने से खिलने दें, उसे खींचकर बड़ा नहीं करना पड़ता है, हमने अपने जीवन की कलि को ऐसे ही नष्ट कर दिया है। 


या तो हम होंगे या बेतकल्लुफी होगी, हरि और मैं, एक साथ नहीं हो सकते हैं। हम जीवन की योजना, व्याख्या हो सकते हैं, पर हम जीवन नहीं हैं। मैं ज्ञान, अज्ञान हो सकता हूं, पर मैं जीवन नहीं हूं। जितना यह अंतर्दृष्टि होती चली जाएगी, उतनी आड़ हटती चली जाएगी, जीवन अवसर पाता चला जाएगा। 


किसी भी चीज को जानने पहचानने का आग्रह समाप्त हो जाए, वही जस का तस को उघाड़ देना है, वह जीना जो किसी भी तरह के तकल्लुफ या गंभीरता से मुक्त है। 


बेहोशी की निश्चिंतता हमेशा काल बाधित होती है। बेहोश व्यक्ति में असहजता पर थोड़ा सा पर्दा पड़ जाता है। आयोजित असहजता की समझ में सहजता सहज ही पाई जा रही है। 


वह जीवन क्या है जो तकल्लुफी से मुक्त है? जो भी कुछ चल रहा है, क्या उसमें बेतकल्लुफी को अवसर दिया जा सकता है? 


 
 
 

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