ध्यानशाला सांझ का सत्र, 24 मई 2024
प्रश्न - मैं जिसे भी यूट्यूब पर सुनता हूं वही सही लगता है, दुनिया से ज्यादा तो यहां भ्रमित हो गया हूं, क्या करूं?
चाहे किसी के भी साथ चलिए, पर अपनी तरफ देखते रहिए, कि आपके भीतर क्या हो रहा है। बुद्ध के समय पर भी उनसे ज्यादा चमक दिखाने वाले लोग उनके समय मौजूद थे। कई बार जो नहीं जानता है वो ज्यादा कुशलता से अपनी बात कह पाता है। जिसके साथ देखते हुए कृतज्ञता का बोध गहराने लगे, अपने और जगत के प्रति जागरण बढ़ने लगे, तो समझिए की वही साथ प्रमाणिक है। जिसके साथ बने रहने का मन करे, पर अपने प्रति भुलावा है, तो समझिए वह व्यक्ति आपको सम्मोहित कर रहा है।
आप दूसरे को कुछ सिखा रहे हैं, पर साथ ही यह भी देखिए कि क्या वह आपके जीवन में भी लागू है कि नहीं। बस देखें की अभी आप महत्वकांक्षा हैं, कुछ मत कीजिए उसके साथ, यही सबसे बड़ा सूत्र है, बस वहीं बात खत्म। यदि आप महत्वाकांक्षा को यथावत देख रहे हैं, तो वह उतनी ही शुभ है, जितने कि ईश्वर के चरण, उसमें कोई हर्ज नहीं है।
विश्लेषण के साथ साथ हम यहां सीख भी रहे हैं। आप काम की निंदा कर सकते हैं, तो फिर आप विश्लेषण में जा रहे हैं। पर यदि आप विश्लेषण में नहीं जाते हैं, तो दूसरी बात यहां घटती है, और वह है ध्यान या अवलोकन। यह अवलोकन में जीवन पर सारी आदतों की मजबूत पकड़ पिघल कर गिर जाती है। आप जहां हैं जैसे हैं, उससे छेड़छाड़ मत करिए, यह अचूक उपाय है।
कोई भी बुरे से बुरा विचार आए तो भी उसको अपने सामने लाकर के उसकी निंदा या स्तुति नहीं करिए। अगर आप अपने साथ निंदा स्तुति नहीं करते हैं, तो इस जगत में वो दिखने लगेगा, जो निंदा स्तुति के परे है। यदि निंदा और स्तुति है, तो वह सामने है फिर भी वह दिखेगा नहीं। यदि आपके अंदर निंदा स्तुति नहीं है, तभी यह संभव है कि आप जगत को भी बिना निंदा स्तुति के देख पाएंगे।
यदि जीवंत अवलोकन है, और कोई महत्वाकांक्षा आती भी है तो भी, उसे बिना महत्वकांक्षा नाम दिए उसे घटने दें, बस उसे जस का तस देखें। एक तरफ आपकी आपूर आहुति हो रही है, और साथ ही आप प्रकाश के रूप में बच भी रहे हैं। यदि आप जल गए तो प्रकाश किसको होगा, यदि आप प्रकाश हैं तो जल क्या रहा है? बुद्धि इस बात को समझ नहीं सकती है, पर हृदय सक्षम है। जब आप पूरा जल जाते हैं, तो जीवन पूरा बच जाता है।
पूर्ण भी है, और वही शून्य भी है, दोनों एक ही हैं, और दोनों साथ साथ ही हैं। बुद्ध और उनके कहे आप्त वचन एक ही हैं।
पूर्णम् अदः पूर्णम् ईदम
पूर्णात पूर्णम उदच्यते
पूर्णस्य पूर्णम आदाय
पूर्णम इव वशिष्यते
पूर्णम् अदः और अप्प दीपो भव एक ही बात कह रहे हैं। आप पूरा जलते हैं दीप होकर के, और पूरा बचते हैं प्रकाश होकर के, क्योंकि प्रकाश कालातीत है। इसको होश, विवेक और हृदय से सुनिए; अपना दीया खुद बनो, इसमें पूरा जलना यानी पूरा बच जाना है।
प्रश्न - पूरा जल जाना और पूरा बच जाना, यह दोनों बातें एक साथ कैसे हो सकती हैं?
जब कहा जाता है बचना, तो कुछ है जिससे अलग होकर के कुछ बचा रह जाता है, यहां तक बुद्धि या शब्दों की गति नहीं जाती है। पूरी आहुति होने पर पूरा ही बचता है, या पूरा ही समाप्त हो जाता है। जहां दोनों बातें एक साथ सिद्ध हो जाएं, वह सत्य का लक्षण है। सत्य बुद्धि में प्रवेश करते ही अपने विपरीत को भी वैसे ही स्वीकार कर लेता है।
जो ठीक विपरीत है, वह शिव में, शुभ में, सत्य में एक साथ शामिल है, शिव के एक तरफ राक्षस और एक तरफ देवता खड़े हैं। पूर्ण और शून्य एक साथ ही हैं, पूरा बच भी गया और पूरा समाप्त भी हो गया।
प्रश्न - सत्य हमेशा विरोधाभास में प्रकट होता है, क्या यह भी एक निष्कर्ष तो नहीं है?
यह निष्कर्ष नहीं भी है, और यह एक निष्कर्ष है भी। यदि सत्य जीवन में उतर गया तो वो निष्कर्ष नहीं है, वह अंतर्दृष्टि है। यदि सिद्धांत बनकर बुद्धि में कुछ शेष है, तो यह निष्कर्ष है। निष्कर्ष का घटना और निष्कर्ष का ना घटना, दोनों बातें समय के गर्भ में हैं; ठीक विपरीत को साथ में रखिए।
तंत्र की अवधारणा ठीक विपरीत को स्वीकार करके ही पैदा हुई है, तंत्र जुगुप्सा को पास में ले आया। यदि सही समझ है, तो आप पाएंगे की बहुत शीघ्रता से जीवन पूर्ण संतुलन में आ गया है, फिर आपको शोक छू नहीं सकता है।
यहां हम जो अपने से फूला फलाया जीवन है उसको ही तो अवसर दे रहे हैं। यदि अभी खीज है, तो बस खीजना है, अभी आग्रह है, तो आग्रह है, पर इसके साथ एकमात्र समाधान भी है, और वो है उसके प्रति चुनाव रहित जागरण। क्या आग्रह है उसकी चिंता मत करिए, चाहे सबसे निंदित भाव हो, चाहे वो सबसे प्रशंसित भाव हो, दोनों आपकी निजी नहीं हैं। जो बनावटी है वह भी निजी नहीं है, और जो जागरण है वह भी निजी नहीं है। एक नकल को असल देखता है, और दोनों निजी नहीं हैं।
हाय यह दुख मुझे कैसे हो गया, जब यह विचार आए, तब भी कीमिया यही है कि सिर्फ उसको अवलोकन के दायरे में उतर जाने देना है। इसमें अपनी भरपूर क्षमता के साथ लगना, बस वहीं बात खत्म हो जाती है।
वह जो जीवन अपने से फला फूला अघाया है, उसमें यह मैं नाम के पृथक एहसास का अंत हो गया।
प्रश्न - मेरे जीवन में मैंने सच्चे हृदय से जब भी प्रार्थना करी, तब उसे पूरा होते हुए पाया है, जबकि आप कहते हैं की प्रार्थना करने की कोई आवश्यकता नहीं है?
सच्चे हृदय से बुद्ध को पुकारने से सहायता अवश्य मिल जाती है, यह बात सच है। पर बूंद सागर में तुरंत लीन नहीं होती है, धीरे धीरे सागर में समाती है। हृदय से पुकारेंगे तो सहारा अवश्य मिल जायेगा, पर सहारे को जीवन का ढंग ना बना लीजिए, नहीं तो वह एक आदत बन जायेगी। सहारा तो मिल जायेगा, पर जिस जीवन कौशल को बुद्ध ने जीया है, वह बाधित हो जाएगा। मदद लेना वह बुद्ध की शिक्षा नहीं है, बुद्ध की शिक्षा है अप्प दीपो भव। जब अपने पैरों में खड़े हो जाएं, फिर सहारा मत लीजिए किसी का भी।
दूसरे को आगाह करते हैं पर साथ ही यह भी कहा जाता है कि आप अपनी तरफ देखिए। सबसे उत्तम यही है कि हर परिस्थिति में अपनी ओर भी देखते रहें। दूसरा गलत है यह दिखाने में मजा है, क्योंकि यदि दूसरा गलत है, तो मैं सही हूं।
प्रश्न - क्या बिना निंदा और स्तुति के देखने से ऐसा नहीं होता कि आपको एक फ्री लाइसेंस मिल गया कि आप कुछ भी कर सकते हैं?
आपने अपने कुछ भी करने को सही ठहरा दिया, यानी वो स्तुति हो गई, और किसी को गलत ठहराया तो वह निंदा ही हो गई। जायज या नाजायज ठहराना दोनों को हम अवलोकन के दायरे में लेकर के आ रहे हैं। यदि आपको यह निश्चित है कि अब कुछ भी किया जा सकता है, तो यह स्तुति है। आप निंदा कर रहे हैं, या सही ठहरा रहे हैं, दोनों में खतरा है।
"अब मैं कुछ भी कर सकता हूं", ये जस्टिफिकेशन या अपने को सही ठहराना है, यह अवलोकन नहीं है। सही ठहराने का ही जरा ज़्यादा दुहराया हुआ रूप ही तो प्रशंसा या स्तुति है। बस जीवन में कुछ ऐसा घटता हुआ आप पा रहे हैं, यह अवलोकन है।
पहले झेन में एक प्रथा थी कि गुरु अपने शिष्य को बिल्कुल विपरीत के पास भेजते थे सीखने के लिए, और वो कहते थे कि आप लौट के अपने गुरु के ही पास जाओ। हम बहुत जल्दी ही किसी को जज करने लगते हैं। जो है जैसा है, क्या उसको बिना मेरी भूमिका के देखा जा सकता है?
जो सच में सीखने में है, उन्होंने जो भी सीखा है, वह बहुत कुछ उनके खुद के जीवन में उतरा ही हुआ होता है। वह दूसरे के बारे में टिप्पणी नहीं करते हैं, और यदि निष्कर्ष है, अपने जीवन में कुछ उतरा हुआ नहीं है, तो दूसरों के बारे में बेकार की बहुत सारी टिप्पणी होती है।
स्त्री को सन्यास का हक नहीं है, ये बिलकुल ही निपट मूढ़ता है, मूर्खता पूर्वक बात है। जबकि यह भी कहा गया है कि यह तन वस्त्र है, आप पुराने वस्त्रों का त्याग कर के नया वस्त्र धारण करते हैं। केवल बातें चलीं, कुछ घटना नहीं घटी, तो हम सोचते हैं कि जब मेरे जीवन में ही कुछ नहीं घटा, तो दूसरे के जीवन में यह कैसे उतर सकता है?
वास्तव में बोध की बात बहुत ही सरल है। कोई कहता है कि उनसे भागिए वो बड़े पाखंडी हैं, जबकि वास्तव में वह खुद ही उनसे बड़ा पाखंडी हो सकता है।
अपनी तरफ देखते हुए जो संबंध अपने आप प्रेम में खिलने लगे, उसी को समझिए कि वह अमृत का स्रोत है। असंभव प्रश्न का प्रयोग कभी असफल नहीं हो सकता है, पर साथ ही विघ्न भी बहुत आयेंगे। पर एक दिन आप पायेंगे की जीवन अपने से फलने, फूलने और अघाने लगा है और आप साथ में यह भी पाएंगे कि अपने से फूलना फलना अघाना सतत विद्यमान ही है।
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Ashu Shinghal
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