मैं भागि बचिउं धनि एक
सन्तो ससुरे का पठवो संदेश
नैहरवा में आग लगी
नाऊ मरिगे बारी मरिगे
मरिगे आवाजाही
रान परोसिन उनहूँ मरिगे
को मोर बतिया चलाई
दाई मरिगे बाबा मरिगे
जिन मोर लगन धराई
बेदी पर के पंडित मरिगे
जिन मोर ब्याह कराई
सात खंड सत महला जरिगा
बस्तर जरा अनेक
जेठ तीन भौजाई ज़रि गईं
मैं भागि बचिउं धनि एक
दुलहा मरिगा माड़ौ ज़रिगा
दुलहिन भई अहिबाती
कहहिं कबीर सुनो भाई साधो
रोवत चले बराती
सन्तो ससुरे का पठवो संदेश
नैहरवा में आग लगी
नाऊ मरिगे बारी मरिगे
मरिगे आवाजाही
इब्राहिम एक सम्राट था। एक रात उसके घर की छत पर कोई फकीर आया और कहता है कि मैं यहां पर ऊंट ढूंढ रहा हूं, और अगले दिन वही फकीर सम्राट के दरबार में आकर कहता है कि मुझे भी इस सराय में रुकने का अवसर दीजिए। फकीर कहता है कि यह सराय ही तो है, कल यहां पर कोई और बैठा था, और भविष्य में यहां पर कोई और रहेगा। इब्राहिम की भी समझ में आ गया की यह सराय है, तो वो वहां से उठ कर चल दिए, कहते हैं कि चलो फिर अपना घर ढूंढते हैं।
नैहर का अर्थ है मायका या माया रूपी सराय। कबीर साहब इस रूपक का उपयोग कर रहे हैं कि इस तरह से नैहर छूट गया है कि अब कभी भी यहां पर रहना नहीं होगा। साहेब अपने मित्रों से अपने दोस्तों से कह रहे हैं, जो इस भाषा को समझ सकते हैं कि संतों माया के नैहरवा में आग लग गई है। साहेब कह रहे हैं कि ससुराल में संदेश भेज दो कि यहां जो कुछ भी झूठ है, वह जल करके राख हो गया है।
कबीरा खड़ा बाजार में, लिए लुकाठी हाथ।
जो घर फूंके आपनौ, चले हमारे साथ।।
कबीर साहब संसार में मशाल लिए हुए खड़े हैं। जो अपने हाथों से मिथ्या का घर जलाना चाहते हैं, उनको कह रहे हैं कि वह चले हमारे साथ ससुराल में।
नाऊ बारी का मतलब होता है संदेश लेने और देने वाला, संदेश वाहक। आवाजाही का अर्थ है, कर्म बंधन, जो हम काम करते हैं उससे आगे की गति हो जाती है। कुछ इस तरीके से नैहर जला है कि सारे कर्म बंधन समाप्त हो गए हैं, कर्मों की समूल निर्झरा हो गई है। जो मुझे बार-बार एक ही तरह से जीना पड़ता है, उसका संदेश जो अस्तित्व में जाता है, वह संदेश वाहक, वह कर्म का ढंग ही समाप्त हो गया है। कुछ ऐसा जीवन में घटा है कि अमृत उभर कर के सामने आ गया है, क्योंकि वही मरता है, जो मर सकता है। मैं के दुश्चक्र में जो बार-बार आना पड़ता था, अब वह समाप्त हो गया है।
रान परोसिन उनहूँ मरिगे
को मोर बतिया चलाई
दाई मरिगे बाबा मरिगे
जिन मोर लगन धराई
यह पूरा माया का जंजाल कहीं बाहर नहीं है। नैहर, जिसे हम जीवन समझते हैं, उसका जो पूरा ढंग है, वह हमारा सोच विचार है, वह हमारी बुद्धि है। मन जो है वह ऐसा प्रयास करता है कि वह असल से जुड़ जाए, पर वह असल पर प्रक्षेपित हुआ है। जो असल है और जो मिथ्या है, उसके बीच में लेनदेन का जो भ्रम होता है, वह समाप्त हो गया। जो असल है, जो सत्य है, उसके ऊपर जो आरोपित मिथ्या है, वह भंग हो गई।
जो हम कहते थे कि यह सोच विचार भी जीवन है, यह भ्रम भंग हो गया। नाऊ बारी चुगली का भी काम करते थे, और संबंध जोड़ने का भी काम करते थे। यह हमारा भ्रम है कि बिना नामकरण के दर्शन नहीं किया जा सकता है। वह संदेश वाहक जो कहते थे कि ब्रह्म भी सत्य है और जीवन भी सत्य है, यहां पर अपनी जिम्मेदारी तो निभानी ही पड़ेगी, वह सुझाव देने वाले ही मर गए हैं। जो आवागमन लगा रहता था कि भ्रम से सत्य में और सत्य से भ्रम में, वह आवागमन भी समाप्त हो गया।
रान परोसिन का अर्थ है आस पड़ोसी, अगल बगल में जीने वाले लोग। जो लोग हमारे आसपास रहते हैं, उनको देखकर के ही हम अपना जीवन निश्चित करते हैं। मेरे अंदर जो सुनी सुनाई बात चलती है जीवन को आगे बढ़ाने की, कि यह हासिल कर लूं, वह छीन लूं, वह सब समाप्त हो गई है। कोई रील, कुछ प्रसार देखा, और हमारे अंदर बात चल गई कि हमको भी यही मिलना चाहिए।
एक रान परोसि हमारे अंदर बन जाता है, एक छवि के रूप में। हमारे अंदर ही बहुत सारे रान पड़ोसी रहते हैं, बहुत सारा मानसिक कचरा भरा रहता है। वह जो हमें लगता है कि कोई बड़ा अभिनेता है, जो बड़े पद पर है, तो उसके जीवन में बहुत सुख है; यह छवि ही हमारी पड़ोसन है जो हमारे भीतर पड़ोसी की तरह से रह रही है। अनजाने ही उसी का अनुसरण हमारे जीवन में चल रहा है। जीवन में कुछ ऐसी क्रांति घटी है कि भीतर बैठे सारे आस पड़ोसी मर गए हैं। अब कौन मेरी बात चलाएगा, कौन सुझाव देगा कि कैसे जीना है, और किसका अनुकरण करना है। सारे आस पड़ोसी, वो जो आदर्श, गुरु, नायक, जो हमारे अंदर रहते थे, जिनसे तुलना करके हम जीते थे वह सब के सब जल के मर गए।
मां पिताजी, यानी तृष्णा महत्वकांक्षा, किसी को देख लिया आपने कि वह आदर्श जीवन शैली है। जिसको हमारा मन महत्व देता है, उसकी आकांक्षा होना महत्वाकांक्षा है। यह जो मैं का एहसास है, यह महत्वाकांक्षा से पैदा हुआ है। जस का तस जीना स्वीकार नहीं है, कुछ और बन जाऊं, कुछ हो जाऊं, ये आरोपित चीज है, ये नैसर्गिक नहीं है। महत्वाकांक्षा पूरी करने में सतत लगे रहना, उसका पोषण करना, बनाए रखना, वो तृष्णा है। इन दोनों से ही एक आभासीय मैं पैदा होता है, जिसमें हम गति करते हैं। साहेब कह रहे हैं कि संकल्प विकल्प यह पूरा का पूरा मन का क्रियाकलाप, जल करके स्वाहा हो गया।
यह ध्यान, अंतर्दृष्टि, जस का तस अवलोकन या निर्विकल्प जागरण से जल करके राख हुआ है। लगन लगाई मतलब जिन्होंने मुझे यहां पर बांध कर रखा हुआ था, वह सब मर गए। महत्वाकांक्षा और तृष्णा यथार्थ में मुझे जाने नहीं देती हैं; ये भी एक तृष्णा ही है कि एक दिन मुझे बुद्धत्व मिल जाएगा। कबीर साहब ने उसका भी निषेध किया है, आध्यात्मिक लक्ष्य के लिए भी यदि हमारे अंदर कोई लगन लग जाती है। सत्य के लिए मन के द्वारा पैदा की गई किसी भी लगन की कोई जरूरत नहीं है। जस का तस जो भी जीवन में है, यदि उसे देखने में हम सक्षम हो जाएं, तो इहलोक या परलोक की सभी महत्वाकांक्षायें जल करके रख हो जाती हैं।
बेदी पर के पंडित मरिगे
जिन मोर ब्याह कराई
सात खंड सत महला जरिगा
बस्तर जरा अनेक
चित्त के सात तल हैं, परम चेतन तक सातवां तल है। मनस तल के नीचे भी तीन तल हैं, और ऊपर भी तीन तल हैं। यह जो सात खंड का महल है, यह जल करके राख हो गया है। सभी तरह की रिद्धि सिद्धि, स्वर्ग नरक, सभी समाप्त हो गए, क्योंकि सत्य का कोई अनुभव नहीं हो सकता है। जो भी अनुभव होता है वह सापेक्ष असत्य का ही अनुभव होता है, सत्य अनुभवातीत है। संसार के साथ-साथ, सारा धर्म अध्यात्म का, मन का क्रियाकलाप, भी कबीर साहब ने एक साथ खारिज कर दिया है।
हमारा होना बहुत सारे वस्त्रों में लिपटा हुआ है। जब हम एक वस्त्र को देखने में सक्षम होते हैं, तो उसके पीछे जो दूसरा वस्त्र है वह दिखता है। जिसे हमने अपना जीना समझा हुआ है, वो वास्तव में एक वस्त्र है, एक आभासीय जीवन है। हम जो जीवन जी रहे हैं वह निजी नहीं है, उसके लिए हमको तैयार किया गया है। हम इतने सारे वस्त्रों में लिपटे हुए हैं कि जो नैसर्गिक जीवन है वह अभी तक धरातल पर आया ही नहीं है; अभी तो हम बहुत तरह के आवरण ही जी रहे हैं। धर्म जाति देश का आवरण ओढ़ करके, हम सिद्ध करना चाहते हैं कि मैं ही सबसे श्रेष्ठ हूं। वह सब आवरण जिन्होंने नैसर्गिक होने के नाम पर मेरे ऊपर कब्जा जमाया हुआ था, वह सब जल करके राख हो गए।
अपने आवरण से, आडंबर से, बहुत सारा ज्ञान इकट्ठा करके हम समझते हैं कि हम मूल्यवान हो गए हैं, तो यह बहुत बड़ा धोखा है। असल जीवन वस्त्रो में नहीं है और जो ओरिजिनल है वह अभी तक हमारे सामने आया ही नहीं है। कबीर साहेब कहते हैं, जब मैं रूपी अंतिम कपड़ा भी जल गया, तब वास्तव में मैं सुहागन हुई।
जेठ तीन भौजाई ज़रि गईं
मैं भागि बचिउं धनि एक
दुलहा मरिगा माड़ौ ज़रिगा
दुलहिन भई अहिबाती
जेठ तीन, यानी काल के तीन खंड, अतीत भविष्य और वर्तमान। एक भविष्य और एक भविष्य का धरातल यानी उसकी पत्नी, जिस पर सोच विचार चलते हैं, एक अतीत और एक अतीत का धरातल जिसमें हम खोए रहते हैं। अतीत, भविष्य और वर्तमान सब जल गया। जो भी संकल्प या विकल्प हो सकता था, वह सब समाप्त हो गया। जीवन में यह करके दिखाना है, यह संकल्प है; यह नहीं करूं वह करूं, यह विकल्प है। जितने भी संकल्प विकल्प हैं, वह सब भी हमारे नाते रिश्तेदार हैं; नैहर के साथ वह सब भी जल के मर गए हैं।
बेदी पर के पंडित मरिगे,
जिन मोर ब्याह कराई।
ज्ञान, बुद्धि ही ब्याह कराती है, पंडित की तरह, जैसे कि ये समझ की सब झूठ है, पर रहना तो इसी में है। यदि आपके पास ज्ञान ना हो, पर होश भरपूर हो, तो ब्याह नहीं हो पाएगा। होश या अंतर्दृष्टि में वह जीवन प्रकट हो जाता है, जो बुद्धि के द्वारा तय नहीं किया गया है। इस झूठे जगत से हमारा नाता ज्ञान ने ही जोड़ा हुआ है। जो है जैसा है उसका यथावत दर्शन, बस इस दृष्टि से सारा आवागमन, तृष्णा, संदेश वाहक, भ्रम का जाल जहां पर कभी बसना नहीं हो सकता है; वह सभी ढंग जल कर के नष्ट हो गए।
मैं भागि बचिउं धनि एक, दुलहा मरिगा माड़ौ ज़रिगा - हमारा सबसे प्रिय है "मैं", वही दुल्हा है। माड़ौ का अर्थ है विवाह मंडप। जीने के नाम पर जो क्रियाकलाप चलता है, वह सब जल गया, बस एक चीज बची रह गई है, वह है यथाभूत दर्शन। जो है जैसा है उसके प्रति चुनाव रहित जागरण में, यह पूरा का पूरा संसार जल गया। यदि जस का तस देखने को अवसर दिया जाता है, तो दूल्हा जल जाता है। मैं यानी दूल्हा, हमेशा कुछ और होने, पाने में गति करता है। जो अभी है वह ना हो करके कुछ और घटे, यह अहंकार है। दूसरे को ऐसा होना चाहिए, मुझे ऐसा होना चाहिए, यह उचित है यह अनुचित है, यह जो तय करने वाला है, यह ही अहंकार है। यह दूल्हा यथाभूत दर्शन से भस्म हो जाता है।
दूल्हा मर गया मंडप जल गया, तब जाकर के दुल्हन सुहागन हो पाई। हम तब तक सुहागन या परिणीता नहीं हैं, जब तक मैं है। जब यह सारा साम्राज्य जो झूठ का है, संकल्प विकल्प का है, यह भस्म हो गया, और जो इसका स्वामी है, जो कहता है कि मैं संबद्ध हो जाऊं, मैं सम्राट हो जाऊं, वो भी मर गया; तो पहली बार दुल्हन निसर्ग के साथ सुहागन होती है। फिर निसर्ग उसका पाणिग्रहण कर लेता है, यानी तब पहली बार पता चलता है कि असल जीवन क्या है, असल सुहागन होना क्या है, जीवन के सभी आयामों में बिना चूके जीना क्या है।
कहहिं कबीर सुनो भाई साधो,
रोवत चले बराती।
एक बार यह बात, यह कीमिया जीवन में उतर गई कि जो है, जैसा है जीवन, बस वहीं होश को अवसर दिया जाए, निर्विकल्प स्वीकार ने जगह ले ली, तो यह सारा जो क्रियाकलाप है, उसकी पकड़ समाप्त हो जाती है। बराती यानी सोच विचार, वह किसी के भी हों, जिनको हम इकठ्ठा करते रहते हैं, उनका कोई काम बाकी नहीं रह जाता है। इसका दूसरा अर्थ है कि जो सोच विचार की संस्था है, वह बहुत अनुग्रहित हो जाती है, जब सत्य को अवसर दे दिया जाता है। सोच विचार की संस्था जब अपनी सही जगह पर आ जाती है, यह बड़ी आनंदित या कृतज्ञ हो जाती है।
कबीर साहब कहते हैं कि यह जो संकल्प विकल्प, महत्वकांक्षा, तृष्णा, सोच विचार का जो साम्राज्य हमने बना लिया है, यह नैहर है, निर्विकल्प स्वीकार या निर्विकल्प जागरण की कीमिया से इसमें आग लग गई है। वह सब आहूत या भस्म हो जाता है, जो है ही नहीं, जो झूठ है, जो सच नहीं है।
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