मनुष्य के दो पथ
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उन शाक्य मुनि को पहले ही निवाले में यह भान हो गया कि, भोजन विषाक्त है।
वे देखते हैं, एक तरफ़ कृतज्ञता से आपूर नैनों में अश्रु लिए कुंदा भील उन्हें निहारते हुए धीमे-धीमे पंखा झलता जा रहा है। दूसरी तरफ़ उनके मुख में अनजाने में उसका भेंट किया विष का निवाला है।
जीवन को बचाने को विष मुख से बाहर करते हैं, तो कृतज्ञता की सम्मुख बह रही अभिव्यक्ति बाधित हो जाती है। कृतज्ञता को अबाध रखते हैं, तो प्राण जाते हैं।
उनके सम्मुख पूरी मनुष्य जाति की संभावना का भविष्य इस घट रही घटना में कृतज्ञता और देह के दो भागों में बँट चुका था। तथागत को उनमें से एक चुनना था।
उन भगवान ने मरणधर्मा देह पर अमृत कृतज्ञता चुनी!
उस पावन कृतज्ञता को चुन काल से आविष्ट मनुष्य चेतना में उन्होंने कालातीत के द्वार खोले! मृन्मय में चिन्मय की नींव धरी।
प्राण उनके गए, कृतज्ञता यहीं रह गई। भगवान गए, भगवत्ता रह गई। भगवत्ता का गुणधर्म है कृतज्ञता और कृतज्ञता भगवत्ता का बीज है।
उनके बाद यहाँ जो है, जैसा है उसके प्रति कोई कोई बड़भागी मनुष्य या तो पावन कृतज्ञता में जाता है या फिर……
साधु हो!
धर्मराज
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