जीवन समय में नहीं है।
जिस तरह से हमें डिजाइन कर दिया गया है कि हमें ऐसा लगता है कि जीवन सीमित अवधि के लिए ही है। जबकि वास्तविक जीवन समय से सीमित नहीं है। हम समझते हैं कि थोड़ा सा जीवन है, सुखी रह लो, कहीं कुछ छूट ना जाए।
साइकिल सीखने में साइकिल, सीखने वाला और ज्ञान तीन अलग-अलग बातें हैं। आत्म अन्वेषण में जो जीवन जी रहा है, और जो जीवन जिया जा रहा है, वह अलग-अलग नहीं हैं। "मैं" का भाव जब पैदा हुआ, उससे पहले भी जीवन वहां मौजूद ही था।
अमृत का पहला लक्षण, चुनाव रहित दर्शन।
अमृत का पहला लक्षण है चुनाव रहित दर्शन या जागरण को अवसर देना, बिना किसी निर्णय और निष्कर्ष के देखना। जिस क्षण चुनाव रहित जागरण या दर्शन है, वहीं पर अमृत पाया जाता है।
क्या जीवन सिर्फ निर्णय और निष्कर्षों में ही गति कर रहा है, या फिर ऐसा है, और जीवन केवल बह रहा है? बनावटी या मृत्यु का जीवन, निर्णयों और निष्कर्षों पर ही चलता है। अमृत जीवन और मृत्यु का जीवन ठीक एक साथ चलते हैं, एक है, और एक नहीं है। जब आप छवियों में जी रहे हैं तो मृत्यु का जीवन जी रहे हैं, और वहीं पर यदि आप "ऐसा है", यह देख पा रहे हैं, तो वहीं पर अमृत का जीवन जीया जा है, तो फिर जीवन का अंत नहीं है।
अनुभवों के आधार पर एक छवि हम बना लेते हैं, फिर बाद में उसी छवि के अनुसार व्यवहार करते हैं, तो यह जीवन बनावटी या मरण धर्मा है। यदि हम हर अनुभव को देखते हैं कि "ऐसा घटा", अभी मैं ऐसा हूं, जिसे मैंने निर्मित नहीं किया है, क्योंकि जब तक मैं जानने लायक हुआ, तब तक मैं निर्मित हो चुका था। यदि चुनाव रहित बिना सही गलत ठहराए सिर्फ देखा जा रहा है, तो निष्ठा उससे भंग हो गई जो चीज देखी जा रही है। जब जीवन छवियों, निष्कर्षों से हट गया, तो उस तरफ मुड़ गया जो जीवन मेरे होने से पूर्व है। आभासीय बनावटी निष्कर्षों से हटकर के जीवन धारा वहां लौट गई, जहां पर असल में जीवन बह रहा है।
आप किसी जीवंत घटना के बारे में कोई निर्णय नहीं ले सकते हैं। यदि आप किसी जीवंत व्यक्ति, वृक्ष के संदर्भ में कोई निर्णय लेते हैं, तो वह जो संबंध की जीवंत धारा है वह अवरोधित हो जाती है। किसी व्यक्ति को आपने अच्छा, बुरा, अपना, पराया समझा, तो उसके साथ जो नैसर्गिक संबंध है, उसको आपने बाधित कर दिया। जब आयोजित और बनावटी जीवन दिखा, तो कुछ मत करिए, क्योंकि हम जो भी करेंगे वह उसी बनावटी संस्था से करेंगे जिससे वह बना है। यदि वहां आप अपनी तरफ से कुछ करते नहीं हैं, तो अपरोक्ष रूप से जीवन की डुबकी वहां लगनी शुरू हो जाती है, जो जीवन बनावटी नहीं है जो नैसर्गिक है।
यदि यह सिर्फ सही तरह से यथावत अभी सुन भर लिया, तो इस सुनने में ही जीवन क्रांति को उपलब्ध होता चला जाता है। यानी यथावत दर्शन में ही मरण धर्मा से जीवन का रुख अमृत की तरफ घूम जाता है। आपकी द्वारा करी गई किसी भी तरह की कोई भी छेड़छाड़, जीवन की जो यथार्थ धर्म की तरफ धारा है, उसको अपवित्र या भंग करती है। यदि आप अभी कामी, क्रोधी या लोभी हैं, तो भी उससे बिल्कुल छेड़छाड़ मत करिए। कामवासना उठी तो आप पश्चाताप करेंगे, और आप पश्चाताप करेंगे तो फिर कामवासना में डूबेंगे, यह पूरा दुश्चक्र है।
किसी भी चीज को यथावत बिना किसी निष्कर्ष, बिना किसी निष्पत्ति के, यदि आप देखने में सक्षम हैं, तो जीवन धारा अमृत की ओर गति कर जाती है। देह की मृत्यु होती है अमृत धारा नहीं मरती है, वास्तव में कुछ मरता भी नहीं है, केवल बदलाव होता है। हमारी बुद्धि की समझ की सीमा के आधार पर हम कहते हैं कि कुछ मर गया या कुछ पैदा हो गया; वास्तव में बस कोई एक प्रक्रिया हमारे उपकरणों की पकड़ से बाहर हो गई। जिस क्षण चुनाव रहित जागरण या दर्शन है, वहीं पर अमृत पाया जाता है। यह अमृत का पहला लक्षण है। पहला लक्षण है बिना निर्णय, निष्कर्ष के जो है उसको देखना, और यदि निर्णय निष्कर्ष नहीं है, तो जो है उसको ही देखना कि अभी ऐसा है।
अमृत का दूसरा लक्षण, निजी चेतना से मुक्ति।
क्रोध भय चिंता आदि मेरा निजी है, इसलिए मेरा निजी प्रयास मुझे उनसे मुक्ति दिलाएगी; यह दृष्टि ही मृत्यु की दृष्टि है। मेरे अंदर जो क्रोध या मैं का एहसास है, वह मैंने पैदा नहीं किया है। यह शरीर प्रकृति का हिस्सा है, और सोच विचार की संस्था पूरी मनुष्य चेतना का उत्पाद है। मनुष्य चेतना मैं के एक केंद्र से काम करती है। जब आपने खुद तक को नहीं निर्मित किया है, तो भय क्रोध कैसे आप निर्मित कर सकते हैं, या उनमें कुछ बदलाव ला सकते हैं? "मेरा कुछ निजी है", इससे मुक्त होना ही सम्यक निदान है। फिर आप बिना अपना या पराया कहते हुए देखेंगे, और वहां सम्यक कर्म पैदा हो जाएगा।
अमृत दृष्टि कहती है कि अभी मैं ऐसा हूं, यदि ऐसी दृष्टि है तो एक अलग तरह के जीवन का स्फूरन वहां पर होता है, पर उस पर बात ना ही करी जाए तो ज्यादा अच्छा है। किसी ने आपको भला बुरा कहा, आपको चोट लगी, आप उससे कुछ छेड़छाड़ नहीं कर रहे हैं, तो कोई पात्र उसको नहीं मिलेगा जिस पर वह ठहर सके, क्योंकि ऊर्जा छवियों के पात्र में रुकती है। जहां यथावत उपस्थिति है, अमृत दृष्टि है, वहां पर सहज करुणा जन्म ले लेती है। यह अमृत दृष्टि बिना आपको पता चले पूरे जीवन को रूपांतरित करती चली जाती है।
यहां जीवन का कोई प्रारंभ या अंत थोड़ी ही हुआ है, पूरा जीवन या अस्तित्व एक रास में है, वह सिर्फ एक खिलता हुआ उत्सव है। यदि इस अमृत दृष्टि को अवसर दे दिया तो आपके बिना कुछ किए, उस जीवन के अमृत में डुबकी सहज लग जाती है। अपने आप को विशिष्ट समझना भ्रम है, क्योंकि मैं का भाव सबसे सामान्य बात है। यथावत दर्शन ही अमृत है, कुछ बदलिए मत। लोग तो कहेंगे कि बनते साधु हो, पर हो कामुक, पर आप जरा सा भी मत बदलिए। हो सकता है संसार आपको ठुकरा दे, पर जिस क्षण आप कुछ नहीं बदलते हैं, उस क्षण आप परमात्मा या अज्ञेय में आपूर हो जाते हैं।
जब आप किसी दूसरे को सम्मान देते हैं तो वह अपने आप को मान दिलवाने की एक प्रक्रिया मात्र है। अमृत अभी यहीं पर है, बस जो है जैसा है उसमें बिना छेड़छाड़ किए उपलब्ध होने का साहस है, उसके साथ उपस्थिति है, तो तत्क्षण अमृत में डुबकी लग जाएगी। मृत्यु का भय समाप्त हो जाएगा, मृत्यु जीवन का स्वभाव ही नहीं है।
अमृत का तीसरा लक्षण, समय से मुक्ति।
समय जैसी कोई चीज नहीं है, चीजें बस बदल रही हैं। पुरानी स्मृति से जब तुलना करी जाती है, तब समय पैदा होता है। जो अभी है और जो भविष्य में होगा उसकी छवि, उसमें एक आभासीय माप से एक मानसिक समय पैदा होता है। विकास का भी एक भ्रम होता है, यथार्थ में, जीवन में विकास जैसी कोई चीज नहीं होती है।
रसो वै सः - वह पहले से ही रस स्वरूप है, ऐसा नहीं है कि अभी नीरस है और बाद में रस मिल जाएगा। यह आत्मा पहले से ही ब्रह्म है, कोई विकास नहीं हो रहा है यहां पर। मैं पहले अधार्मिक था, अब धार्मिक हो गया हूं, विकास हो रहा है, यह एक मरण धर्मा दृष्टि है। मैं पहले कामी था अब निष्काम हो गया हूं, यह जो प्रगति का भ्रम है, यह एक कोरा झूठ है। मैं पहले बुरा था अब अच्छा हो गया हूं, यह सब मन के खेल हैं। बिना चुने देखने की जो क्षमता है, वह समय के भ्रम को समाप्त कर देती है। मन का चलना या मन का रुकना एक ही तरह की घटना है। किसी भी तरह की कोई भी सिद्धि हासिल करना कोरा भ्रम है।
सत्य कालातीत है, अकाल है। जो भी अभी आप हैं जैसे भी हैं, उसको बिल्कुल भी बदलने की कोशिश ना करें; वैसे ही बने रहें, तो अकाल उपलब्ध हो जायेगा। सच्चे धर्म में योगी से भोगी और भोगी से योगी की तरफ कोई गति नहीं है, यह सारी गति केवल नीति में हो सकती है, सच्चे धर्म में नहीं। सच्चा धर्म सिर्फ एक ही बात कहता है कि जागो, होश में आओ।
यदि आपने देख लिया कि जीवन में दुख विचार से ही उत्पन्न होता है, तो जो विचार के पार है उसको अवसर देने के लिए आप बाध्य हो जायेंगे। हम समझते हैं कि विचारों में सुधार करके हम समाधान ले आयेंगे, यह एक झांसा है। जीवन ना कहीं जा रहा है ना कहीं से आ रहा है, जीवन अभी है, और यह बुद्धि की क्षमता से परे है, इसमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। आंखों से देखने की क्षमता हमने या आपने निर्मित नहीं करी है। अस्तित्व में जो भी सृजनात्मक उत्सव में है, वह हमारी आपकी क्षमता के बाहर है।
जो यह हमारा रचा पचा प्रसार है उसे विसर्जित होने देना, यह अमृत की तरफ दिशा है। अमृत निश्चित है, पर इसमें मेरी बात मत मानिए, जो है उसे जीवन के धरातल पर जांचिए, क्योंकि हिटलर या कबीर अपनी अपनी बात बड़ी दावे के साथ ही कहते हैं। जो कबीर कहते हैं उसे यदि जांचेंगे तो जीवन में प्रसार बढ़ता चला जाएगा। अमृत सूत्र यही है कि जो भी अभी है उसके साथ छेड़छाड़ मत करिए, छेड़छाड़ करने की वृत्ति ही अहंकार है। अपने में या दूसरे में कुछ बदलाव की चाह हो, यह दृष्टि भी अहंकार की ही है। यहीं अमृत है और यहीं मृत्यु है। जो है उससे छेड़छाड़ मृत्यु है, और जब चुनाव रहित स्वीकार या निर्विकल्प जागरण को अवसर दिया गया, वही अमृत है, वहीं सारी बात समाप्त हो गई।
संकल्प विकल्प की पूरी कथा मृत्यु कथा है, यही काम कथा है, और संकल्प विकल्प को यथावत देखना राम कथा है।
हम न मरेँ मरि है संसारा।
हम कूँ मिल्या जियावनहारा।।
अब न मरौं मरने मन माना,
तेई मुख जिनि राम न जाना।
साकत मरैं संत जन जीवै,
भरि भरि राम रसाइन पीवै॥
हरि मरि हैं तो हम हूँ मरि हैं,
हरि न मरैं हम काहे कूँ मरि हैं।
कहै कबीर मन मन हि मिलावा,
अमर भर सुख सागर पावा।।
मैं यानी मन, और जो मैं सोचता हूं वही मन है, जैसे ही यह द्वैत समाप्त हुआ, वही आनंद है। जो भी शुरू हुआ है वो मरेगा, जो दृष्टि है वह उसके यथावत दर्शन में आविष्ट हो गई, यह चुनाव रहित दर्शन ही हरि है। चुनाव रहित दर्शन नहीं मरता है, उसके मरने का कोई उपाय नहीं है। क्या जो अभी है उसका यथाभूत दर्शन संभव है, तो आप पाएंगे कि यह बिल्कुल संभव है। गधा यानी सीमित बुद्धि मरती है, बस उससे निष्ठा भंग हो जाती है। यहां से दृष्टि भंग हुई, निःप्रयास ही वह अपनी तरफ लौट गई, वही हरि है।
मृत्यु क्या है?
जो मैं का एक सातत्य आभासीय एहसास हमारे अंदर चल रहा है, उसका अंत मृत्यु है। दो विचारों के बीच में एक आभासीय चीज बनी रहती है, जिसको हम अनुमान कहते हैं, इस आभासीय सत्ता का भंग हो जाना हम मृत्यु समझते हैं। मैं था ये मैं सोच रहा हूं, मैं हूं यह भी मैं के धरातल पर एक सोच मात्र है, यह जो आभासीय धरातल है जिस पर अभी भी सोचा जा रहा है; इस आभासीय धरातल का टूट जाना मृत्यु है।
एक विचार आया, फिर दूसरा विचार आया, तो इससे एक आभास होता है कि मैं इन विचारों का धरातल हूं। जब विचार के साथ साथ, उसका दूसरा छोर जो मौन है, वह दोनों समाप्त हो जाएं, तो वही मृत्यु है। यदि चलते हुए पंखे के आकार को यह भ्रम हो जाए कि मैं जीवित हूं, तो वह रुकने से भयभीत हो जायेगा। विचार रुकना नहीं चाहते हैं, क्योंकि विचार यदि रुके, तो मैं का एहसास समाप्त हो जायेगा।
जहां से हमारी बुद्धि की पकड़ शुरू होती है, वहां से हम कल्पना कर लेते हैं कि वहां से जीवन शुरू हुआ है, और जहां से पकड़ समाप्त हो जाती है, वहां समझ लेते हैं कि जीवन समाप्त हो गया है। मृत्यु का भय, या कोई भी भय, हमारे अंदर जो एक छवि है, उसको होता है। भय की अपनी कोई वास्तविक सत्ता नहीं है, वह निर्मित घटनाओं का परिणाम है। पर इस व्याख्या से भी भय को नहीं देखना चाहिए, नहीं तो भय तो बचा रहेगा, पर अब वह एक परिभाषित भय हो गया।
आत्महत्या पतन का मार्ग है।
प्रश्न - मैं एक अविवाहित स्त्री हूं, मेरा एक अवैध संबंध एक विवाहित पुरुष के साथ था। उसके टूटने के बाद, उन्होंने मुझे बहुत बदनाम कर दिया, मैं आत्महत्या करना चाहती हूं, क्या करूं?
यह जीवन एक अवसर है श्रेय की ओर जाने का, या फिर पतन की ओर जाने का एक द्वार है। आत्महत्या पतन का मार्ग है, और आप किस बात पर आत्महत्या करना चाहती हैं।
एक होती है तथ्यात्मक दृष्टि, यानी जो भी भाव उठते हैं वो आपने नहीं रचे हैं। यह एक वृत्ति है कि मनुष्य किसी अन्य का सहारा लेना चाहता है, यदि आपने भी लिया तो वह भाव आपका अपना नहीं था। जब दो व्यस्क लोगों के बीच सहमति है तो उसमें ग्लानि क्यों है, समाज ने सब दमन और विकृत किया हुआ है। ग्लानि तो उसको होनी चाहिए जिसने आपका अपमान किया है। यदि किसी में थोड़ा सा भी प्रेम का एहसास घटा होता, तो कोई ऐसी घटना का अपमान नहीं करेगा।
जीवन बहुत संवेदनशील है, इस तरह की विकृत सोच प्रेम के बहाव को बाधित कर देती है। प्रेम का लेन देन होता है और उसमें यदि कोई आरोप लगाता है, तो जीवन में प्रेम की सारी संभावना मुरझा जायेगी। इस तरह के लोग पर-निंदक होते हैं, यह पतन का जीवन है। प्रेम का अपमान करना बहुत दुख देता है, प्रेम उसी स्त्री के साथ आपके जीवन से चला जाएगा, जो कभी आपके गले लगी, जिसने कभी आपका मस्तक चूमा, अपना शरीर दिया।
आप यदि जाग गए तो कुछ भी गलत नहीं हुआ, बस ये होश आया कि इस तरह चलने से चोट लग जाती है। इस निष्कर्ष पर भी नहीं आओ की सभी पुरुष खराब होते हैं। जो भी हम करते हैं वही हमारे जीवन में पुष्पित पल्लवित होता है। प्रेम या परमात्मा अथाह श्रद्धा का दूसरा नाम है। प्रेम पर से श्रद्धा कभी खत्म नहीं करो। आप बैर नहीं करोगे, तो प्रेम चारों तरफ से बरसने लगेगा। दो वयस्क लोग यदि अपनी सहमति से कोई संबंध बनाते हैं तो उसमें कुछ भी विकृत या गलत नहीं है।
जो भी इस तरह की बात करता है तो आप पाओगे की उसके जीवन में प्रेम की कोई झलक नहीं है। जिसके जीवन में यदि कभी एक नजर भी प्रेम की पड़ी हो, तो फिर यदि उसका सब कुछ भी लूट गया हो, वह फिर भी कृतज्ञता से भरा ही रहता है। उस व्यक्ति से राग द्वेष कुछ मत करो, यह दुनिया मूर्खों की दुनिया है। देह का संबंध स्वाभाविक बात है, यदि प्रेम में शरीर नहीं आ जाए, तो कुछ गड़बड़ है। दैहिक संबंध सुंदर बात है, पर यदि नैसर्गिक रूप से लगे की वह अध्याय समाप्त हो गया है, तो अलग बात है। और यदि ठीक से जीया गया है, तो एक दिन यह अध्याय समाप्त हो ही जाता है, और कई द्वार खुल जाते हैं; पर ये बात और है।
इस घटना से निराश होने की कोई आवश्यकता नहीं है, यह जीवन अनंत अच्छे लोगों से भरा पड़ा है, आप अपने अंदर प्रेम की संभावना को मरने मत दो और दूसरे की तो बात ही मत सुनो। जो लोग नजदीक के होते हैं वह खुद ही दुखी संतप्त हैं, पर जीवन बहुत विराट है। ज्यादा असुविधा हो तो कहीं दूसरी जगह चली जाओ, जीवन ना जाने कितने रास्ते खोलता चला जाता है।
जाग को अवसर देना ही शुभ है।
प्रश्न - एक ही घटना से कोई आत्महत्या की सोचता है, और कोई ध्यान को प्राप्त हो जाता है, ऐसा किस वजह से होता है?
एक तो बात बुद्धि से समझी जा सकती है, और दूसरी बात जो भी घट रहा है उसकी बिना निंदा स्तुति के बस वहां उपस्थित हो जाना। ऐसा मैं था, मेरे साथ ऐसा हुआ, और ऐसा उसका परिणाम आया; इसमें सिर्फ होश को अवसर देना है। ऐसा होने पर, ऐसा हो रहा है, ना पहले कुछ गलत था, ना अभी कुछ गलत है, ना पहले कुछ सही था, ना अभी कुछ सही है; यह धर्म की दृष्टि है। इस धर्म की दृष्टि से जो भी सम्यक सीख होगी वो आपके जीवन में उतर जायेगी, और आपको किसी निष्कर्ष में भी आने की जरूरत नहीं है। ना ही कोई संकल्प लेने की जरूरत है कि अब मैं किसी संबंध को ही जीवन में प्रवेश नहीं होने दूंगा, यह मृत्यु समान है। बस ऐसा ही है, तो आप पाएंगे की जीवन नए नए द्वार खोलता चला जाता है।
यही सत्संग का अर्थ है जो श्रेय, जाग, भ्रम से मुक्त जीवन की तरफ आपको ले जाए। सत्संग का मतलब है ऐसे जीना जिसमें साथ साथ हर संबंध, हर घटना जागरण को अवसर देती चली जाए। इसीलिए उसी घटना से कोई पतन की तरफ जा सकता है, या उसी घटना से कोई बिलकुल निर्मलता, प्रेम की पराकाष्ठा में भी डूब सकता है। छोड़िए दूसरों की बातें, कोई बेशक महा पापी हो, पर यदि वह जाग को अवसर देता है, तो वही परम शुभ है। अपनी तरफ देखने मात्र से सब कुछ बदल जाता है। एक मित्र ने कहा मुझे अपनी मृत्यु स्वीकार है, पर किसी और को मैं ये दे नहीं सकता हूं; अब होश की जो झलक आई है जीवन में, उसको भंग नहीं कर सकता हूं।
दुनिया की कोई भी ऐसी परिस्थिति नहीं है, जहां से आप अमृत में छलांग नहीं लगा सकते हैं; हमेशा अमृत का अवसर आपके द्वार पर ही होता है।
प्रेमी चित्त साधु है।
प्रश्न - मैं एक विधवा स्त्री के संपर्क में सोशल मीडिया से आया, और उनसे विवाह करना चाहा। पर जब उनसे मिला तो पता चला कि वो बहुत गुस्से वाली हैं। जब उनसे अलग होना चाहा, तो उन्होंने मुझपर शारीरिक शोषण का आरोप लगाया। अब किसी भी संबध से डर लगता है, क्या करूं?
सत्ता से लोग भ्रष्ट हो जाते हैं, आदमी की हकीकत बातचीत में नहीं पता चलती है, उसकी असलियत संबंधों में पता चलती है, जहां जीवन घट रहा है।
एक युवक अभिभूत हो जाता है किसी की व्यथा से, पर मिलने पर वास्तविकता पता चली होगी। जो व्यक्ति कहता है कि तुम्हारे बिना हम मर जाएंगे, वही बाद में मरने मारने पर उतारू हो जाता है। वो तो कानून है, नहीं तो आदमी तो चाहता है कि जो पसंद नहीं है, वो मर ही जाए तो अच्छा है। पहले राजा लोग यही तो करते थे कि उसका सर काट दो, लेकिन इस तरह के जीवन से पीड़ा बढ़ती चली जायेगी।
प्रेमी चित्त को साधु कहते हैं, नहीं बात बनी तो भी कोई बात नहीं है। कोई आपके अनुकूल नहीं है तो वो पिशाच थोड़े ही हो गया। इसमें कोई सुकोमल जीवन पैदा नहीं हो सकता है, कोई आपको भलाई चाहता था, और आप उसको ही बदनाम करने लगे। कुछ लोगों को जीवन में प्रेम की झूठी झलक भी दिखाई नहीं देती है। जो भी क्षण साथ में बीते, उसके प्रति कृतज्ञता होती तो और भी विराट द्वार खुलते प्रेम के।
मैंने यह किया तुम्हारे लिए, कोई बाजार बना लिया है, यह सब पतन के ढंग हैं। प्रेम से निष्ठा भंग मत होने देना, इस दुनिया में ध्यान से आपूर बहुत सारे स्त्री पुरुष भी हैं। बस जागो उसके प्रति जो तुम्हारे अपने अंदर घट रहा है, कि ऐसा हुआ है। उन्होंने जो किया है, उसको वो जानें। आप जैसा दूसरे के लिए करते हैं, वैसा आपके जीवन में होने लगता है, ये नियम है। यदि आप कांटों को भी स्वीकार कर लेते हैं, तो आपके जीवन में फूल खिलने लगते हैं।
किसपर लांछन नहीं लगे हैं? किसी की भी महिमा भंग करनी है तो उसपर व्यभिचार या पैसे लेने का आरोप लगा दो, हम तो सब मानने को तैयार ही बैठे हैं। जमाने ने तो बुद्ध, कबीर, कृष्णमूर्ति, रमन महर्षि तक को नहीं छोड़ा। हर परिस्थिति में तुम बस अपनी तरफ देखो। जीवन पर श्रद्धा रखो, श्रद्धावान लभते ज्ञानम। निराश या भयभीत होने की कोई जरूरत नहीं है, खुल करके जियो। तुम्हारे अंदर यदि प्रेम है तो तुम्हें प्रेमी व्यक्ति मिलते चले जायेंगे। आप जैसे हैं वैसा ही आपको मिलता चला जाता है।
जैसे को तैसा मिला मिला नीच को नीच।
पानी में पानी मिला मिला कीच में कीच।।
यह दुनिया अच्छे लोगों से भी भरी पड़ी है, वही हमको मिलेंगे जैसे हम हैं। जागरण को अवसर दे रहे हैं, प्रेम से भरे हैं, अपनी तरफ देख रहे हैं, दूसरों को निश्चित या जज नहीं कर रहे हैं, तो हम पाएंगे की जीवन में अच्छे लोग मिलते जा रहे हैं, भयभीत होने की कोई जरूरत नहीं है। जीवन में बहुत अनूठे ढंग के सौंदर्य उपलब्ध हैं। निराश होने की कोई आवश्यकता नहीं है, निराशा है यह देखो और आगे बढ़ो।
मृत्यु के पार क्या है?
प्रश्न - शरीर की मृत्यु के पार क्या है, कुछ है भी या नहीं, और दूसरा शरीर कैसे मिलता है?
शरीर मरता नहीं है, चीजें बदलती चली जाती हैं। जो हमारी सीमित समझ के परे चले जाता है, तो हम समझते हैं कि वो पैदा हुआ और मर गया। जीवन ढंग बना रहता है, यदि आप मृत्यु धर्मा जीवन जिए हैं तो वही आगे बना रहता है। और यदि अमृत जीवन जिए हैं तो फिर उसी की गति आगे बनी रहती है, वह मृत्यु से पार हो जाता है, उसी को बुद्धत्व कह दिया जाता है।
मृत्यु धर्मा का मतलब है, १) निष्कर्षों में जीवन को देखना, २) अपना कोई अलग या निजी जीवन देखना, और ३) जीवन को समय में देखना की इसकी शुरुआत है और यह खत्म हो जाता है।
मृत्यु धर्मा जीवन का लक्षण है - इन तीनों में गति होना, चुगली, निंदा, स्तुति, जज करना, सही गलत ठहराना, दूसरे की तरफ देखना, प्रेम शुभता को निंदित करना, बुराई देखना आदि। अगर इस तरह का जीवन है तो फिर उसी की निरंतरता बनी रहेगी। पानी का बहाव पुराने ढर्रे में ही होता है, इसी तरह हमारे जीवन की धारा में गति या निरंतरता बनी रहती है।
जन्म मृत्यु नहीं होती है, पर जब तक आप हैं तब तक जन्म और मृत्यु सत्य हैं। अमृत दृष्टि में कोई जन्म मृत्यु नहीं है, मरण धर्मा दृष्टि में अनंत जन्म मृत्यु हैं। जैसे आप कल जिए थे, जैसे कल सोए थे, उसी ढर्रे में तो आज भी वैसे ही तो जी रहे हैं; मृत्यु बस थोड़ी देर ज्यादा वक्त के लिए सो जाना है। जब आप सोते हैं तब भी आपके शरीर में बहुत सारे परिवर्तन होते हैं, बहुत सारे रसायन बाहर जाते हैं और अंदर आते हैं। मृत्यु में भी एक प्रक्रिया समाप्त हो जाती है, पर जिस तरह से आप पहले जीए थे, उसी तरह से आप आगे भी जीते हैं। इसलिए क्रांति अभी है, यदि आप अभी और यहीं नहीं बदलते हैं, तो आप कभी और कहीं नहीं बदलेंगे। यदि आप अभी अमृत को अवसर नहीं देते हैं, तो आप जीवन और मृत्यु के चक्र में फंसे ही रहेंगे।
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Ashu Shinghal
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