ध्यानशाला सुबह का सत्र, 17 जून 2024
वह जीना क्या है जो मुझ से मुक्त है?
यह अस्तित्व भला संकट क्यों पैदा करेगा? लेकिन हम इतनी दूर निकल आए हैं की हमें लगता है कि सम्यक जीवन तलवार की धार में चलने जैसा है। बस देखें जीवन उपलब्ध ही है।
काहे री नलिनी तूं कुम्हलानी।
तेरे ही नालि सरोवर पानी॥
जल में उतपति जल में बास,
जल में नलिनी तोर निवास।
अरी कमलिनी तू क्यों मुरझाई हुई है? तेरे नाल (यानी डंडी) तो तालाब के जल में विद्यमान है, फिर भी तेरे कुम्हलाने का क्या कारण है? जल में ही तुम समाई हुई हो, जल में ही तुम्हारा बसेरा है, जल में ही तुम समा जाओगी, तो फिर तुम क्यों मुरझाई हुई हो।
अहंकार विजातीय या आरोपित घटना है, पर यह हमारे जीवन का इतना बड़ा हिस्सा हो गया है कि इसका हमें पता ही नहीं चलता है।
शिक्षक साधक है, और बच्चा भी साधक का गुरु है। यहां सीखना और सिखाना एक युगपथ घटना है। बच्चे से आप सीख रहे हैं निर्दोषता, अखंड, अकलुषता, और बच्चों को आप सिखा रहे हैं कि जीवन में मौलिक सुविधा कैसे प्राप्त करी जाती है, बिना बच्चे से कुछ छेड़छाड़ किए।
सुदामा कृष्ण के पास गए, पर उनसे कुछ मांग ना सके। कृष्ण ने भी, सुदामा जैसे आए थे, वैसे ही उनको विदा कर दिया। पर जब सुदामा अपने गांव पहुंचे तो देखा, जहां उनकी कुटिया थी उसकी जगह पर एक महल है। कथा कहती है कि यह देखकर के उनके अंदर होश जागा, और फिर वह उस महल में कभी प्रवेश नहीं कर सके।
हम लोग एक प्रक्रिया से चाहते हैं कि उससे सुख मिल जाए। ये पुरुष, स्त्री, पद, मान मिल जाए तो भला हो जायेगा, जबकि जो कल्याणकारी है, वो सदा मिला ही हुआ है।
सुदामा जब कृष्ण के साथ थे तो सोच रहे थे कि कैसे मेरा भला हो? पर उनका भला तो पहले ही हो चुका था, जब उनकी कृष्ण से मुलाकात हुई थी। जैसे ही होश की प्रत्यभिज्ञा होती है, वैसे ही कल्याण शुरू हो जाता है। कृष्ण के आप सदा ही हैं, वो सदा से उपलब्ध है ही।
बच्चे से बिना छेड़छाड़ किए उसे जीवन का आवश्यक विश्लेषण सिखाना है, पर साथ यह भी सिखाना है कि जीवन पहले से मिला ही हुआ है। जीना ही जीवन का लक्ष्य है। जीवन में कोई भी लक्ष्य निर्धारित करना, जीवन से जुदा हो जाना है।
हम दृष्टांत से किसी निष्कर्ष पर आते हैं और उस निष्कर्ष से कोई आदर्श बना देते हैं। पर वह वो नहीं है जो उपलब्ध ही है, वह किसी प्रयास से किसी आदर्श से प्राप्त नहीं किया जा सकता है। दृष्टांत लीजिए, समझ को देखिए, फिर उसको फेंक दीजिए। आवाज के प्रति सजग होना अपरोक्ष क्रिया है। यदि कोई निष्कर्ष आता भी है तो उस पर भी कोई आग्रह नहीं है। निष्कर्ष ने भी सजग किया, ना कि कोई लक्ष्य दिया।
जीवन का असल ढंग अद्वैत है, होश को अवसर देना है। पदार्थ दिया या लिया जा सकता है, जबकि सजगता मुझसे पहले है, इसीलिए सजगता किसी को दी या ली नहीं जा सकती है। बस मैं का विसर्जन होकर, होश को अवसर दिया जा सकता है। नैसर्गिक जागरण का कभी अंत नहीं है, यह एक अथाह घटना है।
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Ashu Shinghal
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