धर्म हमारा,आपका यानी सोच विचार से बनी मैं की संस्था का अंत है, उसमें जिसका नाम सत्य है। ईश्वर या सत्य निराकार है यह तथ्य जीवंत है, पर जब हम यह बात कहते हैं, तो यह बात एक आभासीय और मृत सिद्धांत है। जैसे ही हमने कहा ईश्वर निराकार है या साकार है, तो वहां पर चूक हो गई। साकार का अर्थ होता है जो ठीक से किया गया हो। जो वास्तव में साकार है वह जीवंत है, पर बुद्धि में उसका जो एक सिद्धांत बन गया है, वह मृत है।
निराकार का अर्थ होता है जो किया हुआ नहीं है। अस्तित्व एक अखंड घटना है, जिसमें कुछ व्यक्त हो रहा है और कुछ अव्यक्त है। अस्तित्व ना निराकार है ना साकार है, पर इसका भी यदि कोई सिद्धांत बना लिया तो फिर एक निर्जीव प्रक्रिया शुरू हो जाएगी। सत्य जीवंत है, और धर्म उस जीवंतता में छलांग लगाने की कीमिया है।
मेरे अंदर जो वृक्ष की छवि संचित है वो वह नहीं है जो वास्तव में वृक्ष है, या जिसको हम वृक्ष के नाम से संबोधित कर रहे हैं। जो वास्तव में असल वृक्ष है उसमें प्राण बह रहे हैं वह जीवंत है, जबकि उसकी छवि में कोई जीवन नहीं है। यह तथ्य अगर भली भांति समझ में आ गया, तो जीवन में धर्म का जन्म हो जाएगा।
हमने एक निष्कर्ष, सिद्धांत या धारणा बना ली और फिर उसी का अनुसरण कर रहे हैं, यह एक निर्जीव प्रक्रिया है। मैं जो भी समझ सकता हूं, वह एक निर्जीव प्रक्रिया है, तो फिर सच क्या है? मैं यदि कहता हूं कि सत्य साकार है, निराकार है, साकार भी है निराकार भी है, या फिर ना सरकार है ना निराकार है, इन चारों तरीके में, मैं सत्य को तोड़ करके देख रहा हूं। यह चारों ढंग, आपके धरातल पर आपके द्वारा लिए गए, निष्कर्ष से ही पैदा होते हैं।
सत्य की खोज में मन की संस्था माध्यम नहीं हो सकती, तो इस संस्था की सारी भूमिका समाप्त हो गई। जहां पर जीवन और संबंध की बात है, वहां पर इस संस्था को बंद हो जाना चाहिए।
वह सत्य क्या है जो मेरे जानने समझने की क्षमता से परे है, जिसे जानने के लिए मेरा कोई आग्रह नहीं है? ना साकार है, ना निराकार है, ना दोनों है, और ना दोनों नहीं है, कोई आग्रह नहीं है, यह है धार्मिक चित्त। जहां कोई निष्कर्ष नहीं है, और जागा हुआ है। धार्मिक चित्त की शुरुआत तब होती है, जब हम देखते हैं कि हम ही सीमित, संस्कारित और एक आभासीय संरचना हैं।
विचार बुरी चीज नहीं है, पर विचार बस अपनी सही जगह पर नहीं है। विचार को जब अपनी सीमा पता चल जाती है, तो वह चुप हो जाता है, क्योंकि यह सीमा दिख जाती है कि जीवन और संबंध विचार का क्षेत्र नहीं है। धार्मिक चित्त की अपनी एक प्रज्ञा होती है।
हमने बस एक प्रश्न उठाया की 'सत्य क्या है', और मन या बुद्धि से कोई आग्रह नहीं है कि इसका उत्तर मुझे पता चले। पुराना मन आएगा और जाएगा, पर यह सीधा मार्ग है। यह प्रश्न उठाया की सत्य क्या है, और वहीं रहिए, यही चित्त के पार जो धर्म है, उसका पदार्पण है, ऐसा जीवन सतत पावन, अमृत, दुख से मुक्त होता चला जाता है।
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