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प्रेम मड़ैया छावे - कबीर उलटवासी का मर्म (अरण्यगीत)



प्रेम मड़ैया छावै।


१) संतो सो सदगुरु मोहि भावै


संतो सो सदगुरु मोहि भावै, जो आवागमन मिटावै।

डोलत डिगै ना बोलत बिसरे, अस उपदेश सुनावै।।


बिन हठ भ्रम क्रिया से न्यारा, सहज समाधि लगावै।

द्वार न रोके, पवन न रोके, ना अनहद उरझावै।।


ये मन जहाँ जाय तहाँ निर्भय, समता से ठहरावै।

कर्म करे और रहे अकर्मी, ऐसी युक्ति बतावै।।


सदा आनन्द, फंद से न्यारा, भोग में योग सिखावै।

तज धरती आकाश अधर में, प्रेम मड़ैया छावै।।


ज्ञान सरोवर शुन्य शिला पर, आसन अचल जमावै।

कहैं कबीर सतगुरु सोई साँचा, घट में अलख लखावै।।


२) सद्गुरु एक कीमिया है, एक ऐसा ढंग जिससे गुजर कर के पूरी जीवन चेतना आमूल रूप से क्रांति को उपलब्ध हो जाती है। यानी जीवन दुख से सदा के लिए मुक्त हो जाता है। आवागमन का अर्थ है विचार या मैं का आना और जाना। कबीर सीधे मूल पर वार करते हैं। वो उस विचार की बात कर रहे हैं जो जीवन के क्षेत्र में प्रवेश करके अनुचित हस्तक्षेप कर रहा है। वह विचार जिसने अहंकार का निर्माण किया है, जो सतत जीवन जैसा एहसास देता है, वह विचार जो संबंधों को निर्धारित कर रहा है। कबीर साहब कहते हैं कि मुझे वह कीमिया वह ढंग अच्छा लगता है, जो मेरे इस बनने और मेरे इस बिगड़ने को सदा के लिए मिटा देता है।


उपदेश शब्द का अर्थ है कि करीब बैठकर के सीखना। निकटतम होकर के जो सीखा या साझा किया जाता है, वह है उपदेश। जो विचार की गति है उसकी वजह से जो सीखा गया है, वह डोले ना। हम संकल्प लेते हैं कि कल से बिल्कुल नए तरीके से जीवन जिएंगे, पर वैसा होता नहीं है।


२) कोई भी उपदेश यदि जीवन में तुरंत नहीं उतरा तो वह भ्रम है। भ्रम वह है जो एक विचार के रूप में संचित कर लिया गया है। कुंडलिनी जागरण, बुद्धत्व आदि यह सब बातें जब पहली बार कही गईं थीं, बस तब ही उस कहने में ही वह शोभा देती हैं। जैसे काठ की हांडी यदि एक बार प्रयोग में आ जाए, तो उसका दोबारा उपयोग नहीं किया जा सकता। कोई भी उपदेश काठ की हांडी के जैसा है। यदि कुछ सुनकर के कोई प्रारूप बना लिया अध्यात्म में, तो वह एक सम्मोहन की तरह काम करता है। इस सम्मोहन में वैसे ही अनुभव होने लगेंगे जैसा सोचा जा रहा है, जो एक बड़ा भ्रम है। यदि किसी के आप-पास कोई संयोगवश घटनाएं घट गईं, तो उसको पूरा विश्वास हो जाएगा कि आत्म साक्षात्कार हो चुका है। यह सब बस एक मानसिक विकृति के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।


इस तरह के सम्मोहन में जिसमें बाहर से कुछ सम्मान भी मिल रहा हो, तो उसमें मन को बहुत रूचि होती है। आप अच्छा काम लोगों को दिखाने के लिए कर रहे हैं, और अपने सम्मोहन को और अधिक मजबूत कर रहे हैं, इससे आप और बुरी तरह से उलझ सकते हैं। आपको यह भ्रम हो जाएगा कि मैं आत्मज्ञानी हूं, नहीं तो इतने लोग मुझे सुनने क्यों आते? कबीर साहब कहते हैं कि वही कीमिया मुझे अच्छी लगती है, जो सब तरह के भ्रम और हठ साधना से मुक्त कर दे, और सहज रूप से समाधि में प्रवेश करा दे।


३) हद चले सो मानवा, बेहद चले सो साध।

हद बेहद दोनों ताजे, ताको भाता अगाध॥


हमारा चित्त हद को समझता है, और हद के सापेक्ष अनहद की कल्पना कर सकता है। बहुत सारे लोगों ने विपरीत को आदर्श मान लिया, जैसे कामवासना - ब्रह्मचर्य, क्रोध - क्षमा आदि। जैसे कोई भोग करते-करते बहुत ऊब चुका है, तो वह अब त्याग करना चाहता है। हद और अनहद दोनों ही मन के ढंग हैं, जो सद्गुरु इन दोनों से पार निकल जाता है, वही अगाध उनको भाता है। इसी तरह अनहद नाद का भी एक बहुत ज्यादा आकर्षण पैदा हो सकता है। जिसको भी आप जान सकते हैं, वह सच नहीं हो सकता है, क्योंकि कौन है वह जो उसको जान रहा है?


मन का स्वभाव ही है भयभीत रहना, क्योंकि उसको पता ही नहीं है कि जीवन क्या है, अहंकार सदा ही आशंकित रहता है। जब तक मैं है तब तक कोई भी निर्भय अवस्था को उपलब्ध नहीं हो सकता है। जो सच्चा जीवन है उसका जो सहज लक्षण है, वह है निर्भयता। भय का अर्थ है की चित्त कि वह दशा, जहां पर एक आभासीय सुनापन है। भय उस सत्ता से निर्मित होता है, जिसको थोड़ा पता है। जिसका पता नहीं है या जिसका पता नहीं लगाया जा सकता, उसके बारे में जब "थोड़ा पता है" जैसी चीज, जब उसकी कल्पना करती है, तो वह भय है। मैं जो है वह ज्ञात या छवियों का पुतला है, इस ज्ञात के पुतले को हमेशा, अज्ञात या अज्ञेय बहुत भयभीत करता है; इसलिए जितना अहंकारी व्यक्ति होगा, उतना ही वह सच्चे अध्यात्म या प्रेम से दूर भागेगा, उनसे भयभीत होगा।


जितना अहंकार अंदर होगा, उतने ही आप मैत्री शुन्य होंगे; मैत्री पैदा होती है अभय से। मित्रता पैदा होती है स्वार्थ या भय से, जब आपका भय दूसरे के भय से मिलता है, तो मित्रता का एक झांसा पैदा होता है कि मैं तुम्हारे साथ हूं, और तुम मेरे साथ हो। दो डरे हुए या स्वार्थी लोग, जब एक दूसरे के साथ होते हैं, तो वहां मित्रता पैदा होती है। जहां पर कारण होता है वहां पर मित्रता पैदा होती है। मित्रता भय का एक बड़ा कारण है, जबकि मैत्री में हर सम्मुख स्थिति में अभय होकर वह आगे बढ़ता है। आगे क्या होगा उसका कुछ नहीं पता है, पर उसमें निशंख, बेधड़क, अभय प्रवेश करते चले जा रहे हैं; ये तभी हो सकता है जब आप वहां कुछ बनकर नहीं हों।


४) जब तक आप कुछ हैं तब तक आप अज्ञेय से डरते रहेंगे। जब तक आप हैं तब तक मैत्री नहीं हो सकती है, मैत्री अहम शून्यता है। जैसे ही आपके स्वार्थ पर धक्का पहुंचा, आप मित्र से किनारा कर लेंगे। आपको जीवन में जितने धोखे मिलें, उतना ही अच्छा है, क्योंकि वो संबंध कभी थे ही नहीं। यदि थोड़ा सा भी होश है तो आपके जीवन से सारी झूठी प्रक्रियाएं छूटनी शुरू हो जायेंगी। मैं की नींव की जब आहुति दे दी जाती है, तो वहां पर अभय और मैत्री पैदा होती है। वहां पर कोई शत्रु है ही नहीं, इसलिए वहां पर कोई मित्र भी नहीं है, बस मैत्री है; वही ऊर्जा जो भय में चलती थी, अब वही मैत्री के रूप में फैलती चली जाएगी। एक ऐसी कीमिया मिली, जिससे यह मन या जीवन जहां जहां भी जाए, वहां निर्भरता फैलती चली जाए।


समता तब तक पैदा नहीं हो सकती, जब तक की आत्म अवलोकन नहीं हुआ हो। जब तक आप समझते हैं कि आप कुछ हैं, आप विषम हैं, तब हम और आप कैसे समान हो सकते हैं? आपने अपने सुख-दुख, संबंधों, उपलब्धियों आदि को लेकर के एक छवि या प्रतिमा बनाई हुई है, और उस प्रतिमा के आधार पर एक प्रक्रिया चल रही है। प्रक्रिया में कभी-कभार ही ऐसा होता है कि दो चित्र सहज ही एक साथ तालमेल में बैठ जाते हैं, अन्यथा हम प्रयास करते हैं कि संबंध में दो धाराएं एक साथ चल सकें, पर यह प्रयास ज्यादा देर टिकता नहीं है। परिवार, जाती आदि की छवि में आप एक जगह जुड़ते हैं, और बाकी जगह से टूट जाते हैं; छवियों के आधार पर कभी भी समता पैदा नहीं हो सकती।


समता में एक ही तरीके से ठहराव हो सकता है, जब आप या मन की बनावटी संस्था ही समाप्त हो जाए। यह संस्था हमेशा चीजों की अपने अनुसार व्याख्या करती है, जो यथार्थ नहीं होता। जब हम कोई असंभव प्रश्न उठाते हैं, जैसे क्या कोई जीना ऐसा है जो मैं के एहसास से मुक्त है, तो यह प्रश्न आपको समता में ही ले जाता है। इसका कोई भी उत्तर हां या ना में, मैं को नहीं आ सकता है। इसका उत्तर उसी धरातल पर मिलेगा, जब वैसा ही जीवन घटना शुरू हो जाए, जो मैं से मुक्त है।


५) जीवन में सबसे बड़ी भूल है यह समझना कि मैं कुछ करता हूं। परिपक्वता होने पर ऐसी अंतर्दृष्टि आ जाती है की चीजें हो रही हैं, और साथ ही वहां पर जागरण भी है। मैं कुछ कर नहीं रहा हूं पर मैं देख रहा हूं, यह बात भी सही नहीं है; कोई देखने वाला या साक्षी नहीं है, बस चीजें अपने आप गुण धर्म के आधार पर घट रही हैं। ज्यादा से ज्यादा इतना ही हो सकता है कि यह सब जो घट रहा है, उसके प्रति सजगता जन्म ले सकती है। सद्गुरु ऐसी कला बुझा (बता) देते हैं, जिसमें सारे कर्म हो रहे हैं, पर मैं करने वाला नहीं हूं।


हम जिसे सुख समझते हैं दरअसल वह दुख की शुरुआत है, और हम जिसे दुख समझते हैं वह सुख की शुरुआत है। सभी सुख या दुख सापेक्षिक हैं, वो निरपेक्ष नहीं हैं। सुख और दुख की मात्रा बाहर की घटनाओं पर निर्भर नहीं करती है, वह सापेक्षता पर निर्भर करती है। कबीर साहब कहते हैं कि वह कला, जो निरपेक्ष आनंद की तरफ इशारा करती है, वह मुझे अच्छी लगती है। कोई भी कीमिया आपको अधिकतम यहां तक ले जा सकती है कि, वह जीना क्या है जो मैं के झांसे से मुक्त है? यह असंभव प्रश्न ही गुरु है जो यदि सही तरीके से जीवन में उतर गया, तो किसी भी झांसे में फंसने की जरूरत नहीं है, जो अपने द्वारा या किसी अन्य के द्वारा लाया जाता है।


६) यदि सही समझ नहीं है तो आप चाहे विवाहित रहें या अकेले रहें, आप अपने आप को एक फंदे में बंधा हुआ ही पाएंगे। फंदा हमेशा किसी दूसरी चीज से बंधता है, और जीवन के संदर्भ में, फंदे का एक सिरा हमेशा मैं के खूंटे से बंधा हुआ होता है। और फंदा और खूंटा एक ही चीज से निर्मित होते हैं; मैं फंदा भी है और मैं खूंटा भी है। हम इससे जुड़ें या उससे मुक्त हो जाएं, यह सब करते हुए, हम कभी भी फंदे से मुक्त नहीं हो पाते हैं। बाहर कुछ भी करने या ना करने से, आप विचार रूपी मैं के फंदे से मुक्त नहीं हो सकते हैं। कबीर साहब कहते हैं कि जो हर फंदे से मुक्त कर दे, वह कला मुझे अच्छी लगती है। मैं का विसर्जन ही सम्यक साधना है।


यदि आपने भोग से योग के मर्म को नहीं समझा, तो यह बहुत बड़े दुर्भाग्य की बात है। जैसे हम ओशो के द्वारा कही हुई बातों का दुरुपयोग करने लगे, और जो बात कही गई थी वह जीवन में कभी सधी ही नहीं। कबीर साहब कहते हैं कि वही सद्गुरु मुझे अच्छा लगता है जो भोग से भागना, या भोग का त्याग नहीं सिखाता है। सद्गुरु भोग में भी सत्य से योग सीखाता है।


७) ना धरती ना आकाश, प्रेम जो है वह द्वैत में हो ही नहीं सकता है। प्रेम की छांव वहां पर होती है जहां पर मैं नहीं होता। यदि मैं या मन है, तो वह धरती हो या आकाश, दोनों में ही गति करता है। यदि हम किसी के साथ आसक्त हों, या किसी से छुटकारा पाना चाहते हों, तब वह प्रेम नहीं है। जब तक यह चित्त का आकाश है, या देह की यह धरती है, तब तक प्रेम नहीं है। जहां ना धरती है ना आकाश है, वहां प्रेम का छप्पर छा सकता है। जब आप यह असंभव प्रश्न उठाते हैं कि वह जीना क्या है, जो मैं या विचार की प्रक्रिया से मुक्त है, तो आपको उस छप्पर की छांव मिलनी शुरू हो गई, जो ना धरती है ना आकाश है।


यहां ज्ञान सरोवर का मतलब है, वह अंतर्दृष्टि की जिसमें किसी भी विचार या संचित अनुभव का कोई महत्व नहीं है, और यह समझ है कि यह सब सच नहीं है। हम जिस शून्य की कल्पना या महसूस करते हैं वह शून्य है ही नहीं, वह केवल शून्य का विचार है। शून्य का अर्थ है ऐसी अंतर्दृष्टि जहां बोध करने वाला और बोध दोनों का अभाव है। इस अंतर्दृष्टि से उपदेश शून्य में प्रतिष्ठित हो जाना, वही सत्य है। असंभव प्रश्न भी उसी शून्य पर ले जाता है जहां उत्तर नहीं आता, और ना ही उत्तर को ग्रहण करने वाला कोई होता है। यह शून्य, यह समझ जीवन में उतरी, तो फिर वह खंडित नहीं होती है। जो कीमिया वहां प्रतिष्ठित करा दे, वही मेरे लिए सतगुरु है।


८) वही सद्गुरु सच्चा है जो इस घट या बर्तन रूपी शरीर में अघटे को लखा दे। हमारे जीवन में विचार या अनुभव घटता है, पैदा होता है, और समाप्त होता है। इस घट में वह क्या है जो अघटा है? यदि इस कीमिया को आप जीवन में अवसर देते हैं, तो इसी बुद्धि में, मन में, एक ऐसी अंतर्दृष्टि उत्पन्न हो सकती है जो अघटे को लखा दे, दिखा दे। वह क्या है जो कभी ना पैदा होता है, ना मरता है, और ना ही अभी घटा हुआ है, जो किसी भी घटना से न्यारा है? वह क्या है जो हमेशा अघटा है, शरीर, मन, समझ, मैं का अनुभव, होना मात्र सब घटा है। वह क्या है जो कभी घटा नहीं है? यदि इस प्रश्न के साथ आप रहते हैं तो वह जीवन को उस और मोड़ देता है, जो अघटा है। वही सम्यक है, वही सद्गुरु है, जो घट में अघट को दिखा दे।


दूसरे के लिए कभी कुछ नहीं किया जा सकता है, और अगर दूसरे के लिए कुछ करना है, तो उससे पहले अपने पर काम करना होगा। यदि आपने अपने ऊपर काम किया, तो दूसरे पर उसका कुछ प्रभाव होना हो तो हो जाए, पर आप उसका कोई लक्ष्य ना बनाएं।


कबीर साहब की यह करुणा है, उनकी यह अगाध विनम्रता है, कि वह कहते हैं कि जो इस पद की व्याख्या करेगा वह मेरा गुरु है। जो इन उलट बांसीयों का रहस्य सुन ले और यह जीवन में उतर जाए, वह मेरा गुरु है। यह रहस्य उसी को समझ में आ सकता है, जिसके जीवन में यह कीमिया थोड़ी थोड़ी उतरनी शुरू हुई है। हम इसको साझा करते हुए चलते हैं, ताकि और भी गहरे में यह जीवन में उतर सके, और जो अघटा है, वह जीवन में घटने का अवसर पाए।



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