१) पूत भतारहि बैठी खाय।
बुढ़िया हंसी बोली मैं नित ही बार,
मोसे तरुनि कहो कवनि नार।
दांत गये मोरे पान खात,
केश गये मोरे गंग नहात।
नैन गये मोरे कजरा देत,
बैस गये पर पुरुष लेत।
जान पुरुषवा मोर अहार,
अनजाने का करो सिंगार।
कहहीं कबीर बुढ़िया आनंद गाय,
पूत भतारहि बैठी खाय।
२) तृष्णा जो हमारे जीवन को निर्धारित करती है, उसके दो रूप हैं एक पुरुषत्व और एक स्त्रायन, एक एक्टिव एक पैसिव, एक सक्रिय एक निष्क्रिय। तृष्णा का पैसिव रूप बहुत घातक है, एक्टिव जो रूप है वह तो बाद में आता है। यह छुपा हुआ रूप हमें दिखाई नहीं पड़ता, हमें तो दौड़ दिखाई पड़ती है, कबीर साहब उस छुपे हुए रूप की तरफ इशारा कर रहे हैं। यहां कबीर साहब स्त्री या पुरुष देह की बात नहीं कर रहे हैं, वह उस तरफ इशारा कर रहे हैं जो तृष्णा हमारे अंदर छुपकर चुप या निष्क्रिय पड़ी रहती है।
हम पहले किसी की कामना करते हैं फिर उसका दूसरा रूप आता है, जो उसको पाने के लिए सक्रिय होता है। कोई चाह उठी कि मैं प्रसिद्ध हो जाऊं वह स्त्रायन चित्त है, उस चाह को पूरा करने में लग जाना वह पुरुषो चित्त है।
३) बुढ़िया हंसी बोली मैं नित ही बार, मोसे तरुनि कहो कवनि नार।
तृष्णा, महत्वकांक्षा को एक बूढ़ी औरत के रूपक के तौर पर बताया है, तृष्णा बहुत बूढ़ी है पर वह समझती है कि वो बहुत युवा हूं, वो कहती है कि मुझसे अधिक कोई और सुंदर या युवा स्त्री है तो बताओ। युवावस्था में जो उफान उठाता है, तो हमें लगता है कि यह पहली बार हुआ है, पर इस तरह की जो चाहत है वह न जाने कितनी बार उठ चुकी है।
तृष्णा हंसती हुई कहती है कि मैं तो अभी कुंवारी हूं, भला मुझसे ज्यादा युवा और कौन हो सकता है? जब हम विषमलिंगी की तरफ आकर्षित होते हैं, तो ऐसा लगता है कि यह पहली बार हुआ है, पर हमारा चित्त इस बात को न जाने कितनी बार दोहरा चुका है। कोई भी कामना यह दावा करती है कि वह बहुत ताजी है, पर होती वह बहुत पुरानी है, बल्कि वह हमारे ताजा जीवन को भ्रमित करती चली जाती है।
४) दांत गये मोरे पान खात, केश गये मोरे गंग नहात।
जैसे यह तृष्णा जीवन में अपना रंग दिखाती है, तो पूरा का पूरा जीवन खोखला हो जाता है। जिस उपलब्ध जीवन से हम जागरण की तरफ गति कर सकते थे, उसका इस तरह से नाश होता है कि हमें पता ही नहीं चलता है, उसको यह तृष्णा खा जाती है। तृष्णा एक चाल चलती है कि जैसे जैसे जीवन खोखला होता है, तो वह कहती है कि यह जीवन ऐसे ही व्यर्थ थोड़ी गया है, यह तो पान खाते हुए मेरे दांत गिरे हैं। यानी हम कहते हैं कि हमने जीवन में और कुछ नहीं कमाया है, केवल मान सम्मान ही तो कमाया है। अंदर तो कुछ और ही बात है कि कितना चले, पर जीवन में कुछ खुशबू या प्रकाश जैसा तो कुछ है नहीं। वो कहती है कि तुम्हारा जीवन नष्ट थोड़े ही हुआ है, वह तो मान सम्मान कमाने में ही तो गया है; देखो कितने सारे लोग तुम्हारा सम्मान करते हैं।
हम समझते हैं कि हमने जीवन में बहुत पुण्य किए हैं, जैसा हमें समाज ने सिखाया वैसा हम जिए हैं। यह सारे व्यंग कबीर साहब ने उनके लिए किए हैं जो समझते हैं कि वह बहुत सज्जन पुरुष हैं। एक कहावत है कि बस यह काम हो जाए फिर मैं गंगा नहा लूं। यानी जो दायित्व मिला हुआ है यदि उसे पूरा कर लिया, तो समझो जीवन सफल हो गया। केश गए यानी कि जब यह बात परेशान करने लगी कि अब तो जीवन समाप्त होने लगा है, पर कुछ भी हासिल तो नहीं हुआ इस जीवन में; तो दिलासा देने के लिए वह बुढ़िया कहती है कि जो बाल गए हैं यह व्यर्थ में थोड़े ही गए हैं, यह तो पुण्य कर्म और अपनी जिम्मेदारी निभाने में गए हैं। जैसे-जैसे हम बूढ़े होते जाते हैं, तो हम कोई ना कोई दिलासा अपने ऊपर ओढ़ लेते हैं।
यह जो बुढ़िया है यह खुद को एक बहुत सुंदर और कुंवारी युवती के रूप में प्रस्तुत करती है, और बार-बार हमको झांसे में फंसाती है कि जो दांत गए हैं उससे मैंने मान सम्मान कमाया है, और जो बाल जा रहे हैं वह उस दायित्व को पूरा करने में जा रहे हैं, जो मुझे समाज से मिले थे।
५) नैन गये मोरे कजरा देत, बैस गये पर पुरुष लेत।
देखने का एक बिल्कुल ही निर्दोष ढंग है, जिसको यह तृष्णा रंगो से भर देती है। जो बहुत दूर की बात को बहुत सुहाना बताने का प्रयास होता है, उसको कबीर साहब कहते हैं कि नैन गए मोरे कजरा देत। यानी मेरा जीवन जो मिला हुआ था वह व्यर्थ नहीं गया, वह तो उसको और सजाने संवारने में गया है; यद्यपि उसको अच्छा बनाने के चक्कर में जीवन का हमने पूरा सत्यानाश कर दिया है। तृष्णा, महत्वकांक्षा, भविष्य, मानसिक समय आदि के झांसे में हम आ जाते हैं क्योंकि हमें लगता है कि अभी जो जीवन है वह व्यर्थ है, पर ऐसा ऐसा करने से वह समर्थ हो जाएगा। अभी मैं दीन हूं, बहुत पैसा कमा लिया तो मेरे अंदर की जो यह दीनता है वह समाप्त हो जायेगी।
जो मौलिक स्थिति अभी है हम उसमें डुबकी नहीं लगाते हैं, उसका रहस्य नहीं देखते और उस निर्दोष पर कुछ आरोपित कर देते हैं। हमने कली के ऊपर अपना सांचा बैठा दिया कि तुमको चौकोर, या तिरछा होना है; इससे वह कली ही समाप्त हो गई। और झांसा यह दिया जाता है कि ये सोच विचार नहीं होता, तो न जाने तुम्हारा क्या हो जाता। इस झांसे में तृष्णा उस बात को छुपा जाती है कि जो संभावना लेकर के जीवन पैदा हुआ था, उसका क्या हुआ? इस काजल को लगा लेने से, आंखों को क्या दिखाई देना बंद हो गया, वह बात तृष्णा छिपा जाती है।
बैस का मतलब यौवन, जो पूरा का पूरा ही नष्ट हो गया, पर पुरुष यानी दूसरे की तरफ देखते रहने से, बहुत कुछ जानते या ज्ञान संग्रहित करते हुए। जिससे पुराने लोग कहते हैं कि मैंने यह बाल धूप में सफेद नहीं किए हैं, बहुत जीवन का रस लिया है मैंने, बहुत अनुभव है मुझे। हम ज्ञान देते हैं ना हमेशा दूसरों पर संदेह करना, अपना पैसा दबोच करके रखना; इससे हमेशा दूसरे की तरफ दृष्टि बनाए रखी जाती है। दूसरा धोखा देगा या नहीं देगा, वह बात ही गौण है, आप खुद क्या हैं वह बात ही नष्ट हो जाती है; यानी अपनी तरफ देखना वह जीवन में समाप्त हो जाता है। तृष्णा कहती है कि वह मैं ही तो हूं जिसने तुम्हें दुनिया में रस, पद, प्रेम, सम्मान, साधुओं का संग, जितना घूम पाए हो, आत्मज्ञान, अध्यात्म आदि दिलवाया है; तुम्हारा ये जीवन बेकार नहीं गया है।
तृष्णा झांसा देती है कि मेरी वजह से तुम्हें इतना कुछ मिला है, पर वह जो चीज छीन लेती है, वह है अपनी तरफ देखना। अपनी तरफ देखने में इसका अंत है, इसीलिए यह अपनी तरफ नहीं देखने देती है; और अपने आप को खूब सजा संवार करके, चमका कर के रखती है कि खुशी भविष्य में कहीं है। विशेष कर के अध्यात्म में भी अगर आप दूसरे की तरफ देख रहे हैं, तो संसार में ही हैं, चाहे आप गुरु या ईश्वर की तरफ ही क्यों ना देख रहे हों। यह दूसरे की तरफ देखने में मेरा अपना ज्ञान ही क्यों ना हो, यह जीवन को छल लेता है।
अपनी तरफ देखा होता तो सत्य का दर्शन हो जाता, यानी मैं ही अगर मिथ्या हूं, तो मिलना जुलना तो सब व्यर्थ हो गया। अपनी तरफ देखते ही यह पाया जाता है कि यह जिसको कुछ भी मिल रहा है, वही झूठ है; इस देखने में तृष्णा की सारी गति समाप्त हो जाती है; इसलिए तृष्णा झांसा देती है कि बहुत कुछ है जो बाहर से मिला है।
६) जान पुरुषवा मोर अहार, अनजाने का करो सिंगार।
जब तक पुरुष जानता है मुझे, तब तक मैं उसको निगल लेती हूं। जब तक हम जान पाते हैं कि जीवन अकारथ या व्यर्थ गया, तब तक तो पूरा का पूरा जीवन तृष्णा खा चुकी होती है। जब हम अपने को झांसा देते हैं, तो एक और अवसर समाप्त हो जाता है; पुराने झांसे और कस गए हैं। जब तक अपनी गलती समझ आती है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है, बुढ़ापा आ जाता है। बुद्धि बहुत ठोस हो गई, बूढ़े लोगों को बिल्कुल पक्की हो जाती हैं बातें, कि जीवन का सही ढंग यही है। जानते हैं कि जीवन व्यर्थ गया, पर अब कुछ बदल नहीं सकते हैं। जानते हैं कि मेरा जीवन इस संस्था में बेकार गया, पर अपने बच्चों को भी उसी में झोंकेंगे।
जो जानकर भी इससे बाहर नहीं निकल पाता है, यानी वह तृष्णा के जाल में बुरी तरह से फंसा हुआ है। और जो नहीं जाना गया है, उसको मैं श्रृंगार करके लुभाती हूं। जहां हम नहीं पहुंच पाते हैं उसके लिए हम बहुत लालायित होते हैं; उसका श्रृंगार बहुत आकर्षित करता है। जो अनजाना है उसके प्रति तृष्णा बहुत आकर्षित करती है। ऐसा लगता है कि कोई बहुत ऊंचा पद पा लिया या पैसा मिल गया, तो जीवन में बहार आ जाएगी। जिसके प्रति आप लालायित थे जब वह आपको मिल जाता है, तो उसके लिए आप तुरंत ही लापरवाह हो जाते हैं।
जब तक आप कुछ जानते नहीं है तब तक उसका बहुत आकर्षण होता है, और इस जानने में आपका सारा जीवन ही उसका ग्रास बन जाता है; और जो नहीं जाना हुआ है वह बहुत लुभाता है।
७) कहहीं कबीर बुढ़िया आनंद गाय, पूत भतारहि बैठी खाय।
यह बहुत सीधी-सादी गाय जैसी लगती है, हमें पता नहीं चलता है पर अंदर से हम किसी आकांक्षा से भर जाते हैं।
चाह गई चिंता मिटी मनवा बेपरवाह।
जाको कछु ना चाहिए वह शाहन में शाह।।
जिसको कुछ नहीं चाहिए वही स्वामियों का स्वामी है, वही मालिक है। आप कहते हैं कि मुझ में कोई चाह नहीं है, पर ये ऐसे नहीं पता चलता है, जब आपके पास अवसर होता है तब पता चलेगा। यदि आप चालाक हैं तो किसी बड़ी चाहत के लिए छोटी चाहत की कुर्बानी कर देंगे। कोई भी चाह हो, चाहे वह मुक्ति या प्रेम की ही क्यों ना हो, तब तक हम इस तृष्णा के बंधन में ही हैं। और यह बंधन बड़ा सीधा-साधा दिखता है एक गाय की तरह।
जब भी कोई समस्या पैदा हो तत्क्षण उससे निपट लीजिए, यदि आपने उसको टाल दिया तो वह जड़ जमा लेगी। हमें पता ही नहीं चलता है कि वह तृष्णा कब इतनी गहरी पहुंच गई कि सारा जीवन का लेनदेन उसी पर चलने लगा। हमने नहीं सोचा था कि परिवार संस्था पूरा का पूरा जीवन का स्वरूप निगल जायेगी, पर वो निगल गई।
यह तृष्णा दिखती बहुत सीधी साधी है, पर यह अपने बेटे को भी खा जाती है, और अपने पति को भी खा जाती है। पूत का मतलब जिसे यह पैदा करती है, यानी इससे जो मिलता है, उसको भी खा जाती है। बड़ी आकांक्षा करके हम कुछ प्राप्त करते हैं, पर जब वह मिल जाता है, तो उससे उपेक्षा हो जाती है। जो भी चीज हमें मिल जाती है, उसको यह निगल जाती है, उसको यह खा जाती है। मां तो बच्चे को देखकर के जीवन भर खुश होती है, पर तृष्णा से हमें जो भी मिलता है वह अकारथ हो जाता है, यानी वह पैदा होते ही उसे खा जाती है।
भतारहि का मतलब जो उसका पालन पोषण करता है। जिस मनोरथ और उद्यम से हमें कुछ मिलता है, तृष्णा उसे भी खा जाती है। यानी कुछ भी मिलने के बाद हमें कुछ नहीं मिलता, हमारे हाथ कुछ नहीं लगता। हम कोई पद हासिल करने के लिए अपना पूरा जीवन दांव पर लगा देते हैं। जब वह पद या पैसा मिल जाता है, तब तक हम जीवन खो चुके होते हैं; जो उसका आनंद ले सके वह व्यक्ति ही समाप्त हो चुका होता है। कुछ पाने के लिए जिस विधि या जिस माध्यम का हमने इस्तेमाल किया है, उससे साथ ही वह माध्यम भी मजबूत होता जाता है। जैसे की बेचैन होकर के आपने किसी चीज को हासिल किया, तो जब वो हासिल होगी, तब तक बेचैनी आपका स्वभाव हो जाएगी। जैसे बेचैनी से आपने घर को हासिल किया, पर फिर उसमें चैन से नहीं सो पाएंगे, तब तक बेचैनी ही आपका स्वभाव हो जाएगी। अब घर तो मिल गया पर बेचैनी वहां बनी हुई है।
चीजें तो मिल जाती हैं पर जो चीजों को हासिल करने वाला था, वह ही समाप्त हो जाता है। यह तृष्णा घातक रूप से हमारे सारे जीवन को समाप्त कर देती है। कबीर साहब का यह संदेश है की इस तृष्णा को समझने की जरूरत है, जब तक इस तृष्णा को हम नहीं समझ लेते हैं, तब तक जीवन पाया नहीं जाता है। जीवन निश्चित ही है पर जब तक हम उस जीवन को भी पाने की तृष्णा रखेंगे, तब तक वह पाया नहीं जाएगा। यानी जो है जैसा है यथावत उसको बिना छेड़छाड़ के यदि हम जीने में समर्थ हैं, उसमें राजी हैं बिना उसको तिल भर भी बदलने की आकांक्षा के; वह तृष्णा यदि समाप्त है, तो जीवन वहीं उपलब्ध हो जाएगा।
कबीर साहब कहते हैं कि इस तृष्णा से संपूर्ण मुक्ति संभव है, उस जीवन के तथ्य का या इस वास्तविकता का उन्होंने विधिवत निरूपण किया है। उसपर उन्होंने विधिवत प्रकाश डाला है, और इसपर प्रकाश पड़ने से अनायास ही आप उस जीवन की तरफ गति कर सकते हैं, जिसमें यह तृष्णा कभी व्याप्त नहीं हो सकती है। यदि यह पद ठीक से समझ लिया जाए, तो इस समझ में ही तृष्णा का संपूर्ण विलय है; यहां पर तृष्णा को समाप्त करने की तृष्णा भी समाप्त हो जाती है, तो फिर तृष्णा को कोई स्थान या जगह नहीं मिलती है, टिके रहने की।
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