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Ashwin

प्रश्नोत्तर धर्मराज जी के साथ - 7 जुलाई 2024



मनुष्य चेतना अखंड है।

 

प्रश्न - कभी-कभी बिना किसी कारण के मायूसी क्यों छा जाती है?

 

पूरी मनुष्य चेतना अखंड है, हममें और आपमें जो हिंसा, क्रोध, चिंता है, वह हमारी या आपकी नहीं है। हम जो अपने को अलग थलग समझते हैं यह ढर्रा भी लाखों बार दोहराया गया है। चोट पर मरहम लगाकर के जो थोड़ी देर के लिए आराम मिलता है, वह सापेक्षिक है। कृष्णमूर्ति जी की शिक्षाओं में आता है कि हमारा जीवन ऐसा है, जैसे जेल के भीतर रहकर के हम आंदोलन कर रहे हैं कि खाने का समय सही किया जाए। हमें यह पता ही नहीं है कि जो असल जीवन है, वह जेल के बाहर है।

 

पूरी मनुष्य चेतना में जो हो रहा है वही हम भी कर रहे हैं, वही बनावट हमारे द्वारा भी व्यक्त करी जा रही है, और मैं जैसा जीवन जीता हूं वह पूरी मनुष्य चेतना में साझा होता है। पर यह भी तथ्य है कि बिना पूरी मनुष्य चेतना के प्रभाव के, दुख से मुक्त होकर के जीया जा सकता है। यदि यह देखा जा सके कि जो भी मैं करता हूं वह पूरी मनुष्य चेतना का प्रभाव है, इस अंतर्दृष्टि से, इस होश से, जीवन में एक रूपांतरण हो सकता है। यानी एक ऐसा जीवन का ढंग संभव है, जो मन और मैं के प्रभाव से मुक्त है।

 

यह गहरी समझ जीवन में कैसे उतरे की पूरी मनुष्य चेतना एक है?

 

कानों से हम देख नहीं सकते हैं, आंखों से हम सुन नहीं सकते हैं, तो इन दोनों जगहों में अंतर है या विभाजन है? आंख कान से भिन्न है, पर अलग नहीं है; गुण धर्म में अंतर है, पर कोई विभाजन नहीं है। पूरा शरीर एक इकाई है, एक ही रक्त है जो सब अंगों में बह रहा है। जबकि हम समझते हैं कि कान और आंख अलग - अलग हैं।

 

इसी तरह आप में और मुझ में अंतर है, पर वो क्या है, जो आपको हमको अलग अलग करता है? हमारे और आपके विचारों में अंतर है, पर जो विचार की प्रक्रिया, ढर्रा है, वह एक ही है। हम आप अलग नहीं हैं, पर हममें और आपमें अंतर है। फिर वह क्या है, जो हमें आपसे अलग करता है? आपके और हमारे रंग में अंतर हो सकता है, पर उससे हम अलग नहीं होते हैं।

 

क्या कोई ऐसा उत्तर आ सकता है, जो कहे कि अलगाव है? मैं रूपी संसारग्रस्तता भी भिन्न है, पर अलग नहीं है। सारे के सारे विभाजन या अलगाव, भ्रामक या आभासीय हैं, यह जानते ही भ्रम टूट गया। जब यह भ्रम टूट गया और यह दिख गया कि सभी अलगाव झूठ हैं, तो अब वहां पर क्या है, क्या वहां पर कोई मन की गतिविधि है, या वहां पर कुछ और है? जब यह दिख गया कि अलगाव भ्रम है, तब भी जीवन तो वहां पर मौजूद है। इस समझ से मन तो वहां पर रुक गया, पर अविभाजित जीवन का धरातल वहां पर पाया जाता है।

 

इस अंतर्दृष्टि से जागरण, होश, सम्यक दृष्टि वहां पर पाई जाती है, एक बार भी यदि यह अंतर्दृष्टि आ गई तो इसके बाद कभी हम भटक नहीं सकते हैं। हम पाएंगे की पूरी मनुष्य चेतना से हम हैं, और पूरी मनुष्य चेतना हममें है। I am the world, and the world is in me.

 

मन के आधार पर कोई व्यक्तित्व नहीं दिखेगा, और मन के पार जो है, वहां पर भी कोई व्यक्तित्व नहीं दिखेगा। हम रंग को कपड़ा समझ बैठे हैं, हम रंग नहीं पहन सकते हैं, पहनते हम कपड़ा ही हैं। हम समझते हैं कि रंग कपड़ा है, और कपड़ा रंग है। यदि हम कपड़े को हाथ में ले लेते हैं, तो उसमें कुछ भी रंग चढ़ा हुआ हो, उससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। रंग विभाजन पैदा करता है, और सारे रंग भ्रम हैं।

 

मनुष्य चेतना का एक ही ढर्रा है।

 

प्रश्न - पूरी मनुष्य चेतना एक है, तो जो मेरे द्वारा व्यवहार हो रहा है, उसके लिए मैं जिम्मेदार कैसे हुआ?

 

अपने आप को विभाजित करके अलग रखने का जो मैं का ढर्रा है, वह बहुत सामान्य है। जब हम कहते हैं कि मैं कैसे जिम्मेदार हूं, तो वही मैं का ढर्रा काम कर रहा है, यह ही पूरी मनुष्य चेतना का ढर्रा है। इसी ढर्रे का इस्तेमाल करके हम अपने आप को अलग कर रहे हैं, और पूछ रहे हैं कि मैं कैसे जिम्मेदार हूं?

 

प्रेम स्वस्थ चित्त में उतरता है।

 

प्रश्न - यह कहा जाता है कि आपस में लड़ाई होने से प्रेम बढ़ता है, इस पर आप क्या कहना चाहेंगे?

 

जिस संबंध में हम अपने आप को चिड़ा, उलझा, डरा हुआ, शोषण करना या शोषण करवाना, ऐसा पा रहे हैं और साथ ही साथ यह भी पा रहे हैं की असहायता है कि इस संबंध के बिना मैं रह भी नहीं सकता हूं; उसको ठीक ठहराने के लिए हम यह कह रहे हैं कि लड़ाई झगड़े से प्रेम बढ़ता है।

 

किसी को यदि आप चोट पहुंचाना चाहते हैं, तो इसका अर्थ है कि आपके खुद के अंदर गहरे घाव हैं। कोई चोटिल चित्त प्रेम के लिए कैसे सुपात्र हो सकता है, प्रेम के लिए तो बड़ा स्वस्थ चित्त चाहिए। प्रेम जैसी पावनता किसी ऐसे पात्र में नहीं टिक सकती है, जिसमें कई भय, क्रोध, संदेह के छेद हैं। हमारी संस्कारग्रस्तता बहुत गहरी है, और हम अपने आप को सही सिद्ध करना चाहते हैं कि रिश्ते के ढंग का मतलब यही होता है।  इतना साहस नहीं है कि सच को उघाड़ें, झूठ को एक तरफ सरका सकें, और संबंध के उस क्षेत्र में प्रवेश करें, जो की नैसर्गिक है, जो सच में प्रेम है।

 

इसी तरह से हम अपने आप को ठीक ठहराते हैं की प्रेम है, तभी तो क्रोध किया जा रहा है। यह आत्म अवलोकन से दूर भागने का एक तरीका है। कबीर साहब कहते हैं दुई को दूर करो हृदय से, तो फिर व्यक्ति बदलने की जरूरत नहीं है, वो तो मूर्खता है; फिर हम उसी व्यक्ति के साथ संबंध का एक बिल्कुल अभिनव तल पाएंगे, जो मन से बना हुआ नहीं है। लेकिन यदि किसी रुग्ण ढंग को हमने प्रेम समझ लिया, तो फिर प्रेम को जीवन में कैसे अवसर मिलेगा?

 

यहां यह नहीं कहा जा रहा है कि यदि सर दर्द है तो सिर को ही काट कर फेंक दो, और यह भी नहीं कहा जा रहा है कि सर दर्द के साथ रहना स्वीकार कर लें, क्योंकि एक ऐसा जीवन भी संभव है, जिसमें कोई सर दर्द नहीं है। हम विस्मृत हो गए हैं, लंबे समय तक घाव के साथ रहते रहते, हम यह समझने लगे हैं कि घाव जीवन का हिस्सा है, पर यह बात सच नहीं है।

 

प्रेम निश्चित ही जीवन में पाया जा सकता है, हमें बस देखना होगा कि यह द्वैत कहां से पैदा हो रहा है। इश्क के बिना होने का कारण है, दुई, मैं और आप का विभाजन। हमारे और आपके बीच में जो लेनदेन चल रहा है, हम समझते हैं कि वह प्रेम है, पर वास्तव में वह प्रेम नहीं है। कबीर साहेब कहते हैं कि प्रेम वहां है जहां दुई मर गया है, यानी जब तक दुई रहेगा तब तक हम इश्क से महरूम रहेंगे।

 

प्रेम जीवन में कैसे उतरे?

 

प्रश्न - यह जो द्वैत हमारे जीवन में है, उसको सरका कर प्रेम में कैसे प्रवेश किया जाए?

 

सबसे सटीक जो उपाय है, वह है खुद की तरफ देखना। दुई की जड़ है, मैं और आप अलग अलग हैं, इस दुई ने प्रेम को जड़ से उखाड़ फेंका है। कोई व्यक्ति ऊंचा पद पाकर के दुई को दूर करना चाहता है कि मैं ही मैं हूं, मेरे सामने दूसरा कोई है ही नहीं, दूसरे मेरे सामने ना के बराबर हैं; ये दुई को दूर करने का बाहरी, प्रचलित और गलत ढंग है।

 

दुई दूर करने का सबसे अचूक तरीका है, अपने अंदर देखना की मैं क्या हूं? रिश्तों, आचरण, व्यवहार में मेरी बनावट क्या है? जैसे ही यह दिखने का कौशल मिल जाता है की दुई का दूसरा सिरा क्या है, तो हम पाएंगे की दुई खत्म हो गया। यदि दुई का दूसरा सिरा देख लिया गया, तो जहां से देखा गया है, वहां से जीवन शुरू हो गया। मैं एक ध्रुव है, कि मैं हूं, और यह जीवन मेरे द्वारा जीया जा रहा है; किसी भी कला से यदि यह अंतर्दृष्टि आ गई, तो मैं के पार जो बात है, उसको जीवन में उतरने का अवसर मिल गया। मैं की संरचना का यथावत दिखने से, अंतर्दृष्टि उस तरफ आ गई, जो मैं के पार है।

 

मैं और तू दोयम हो गया, और वह प्राथमिक हो गया जिसमें यह सब दिखाई पड़ रहा है, यही दुई का अंत है, यही है इश्क मस्ताना। मेरी क्या बनावट है, कैसे अनुभव आते हैं, कैसे प्रतिक्रिया होती है, कैसे छवि बनती है, यदि इसके दिखाई पड़ने को अवसर दिया जा रहा है, तो सारी बात बस यहीं खत्म हो जाती है। मैं बचता तभी तक है जब तक उसके साथ छेड़छाड़ करी जा रही है, छेड़छाड़ उसका ईंधन है। निश्चित रूप से ऐसा जीवन संभव है, जिसमें मैं की कोई भूमिका नहीं है।

 

बस थोड़ी तत्परता, दिखाई पड़ने को, जगाई पड़ने को, उपस्थिति को अवसर देने की कला उतर जाए, कि अभी मेरे भीतर क्या चल रहा है, कैसे सुनना हो रहा है, क्या प्रतिक्रिया हो रही है, इन सब में एक साथ उपस्थिति होना बिल्कुल संभव है; और यदि यह उपस्थिति अभी है, तो बात यहीं खत्म हो जाती है। लाखों साल का पुराना कचरा, दिखाई पड़ने मात्र से, भस्मीभूत हो सकता है। जो भी अभी है, उसके प्रति उपस्थिति को अवसर देना, यानी वह उपस्थिति क्या है, जो मैं नहीं साध रहा हूं? क्या अभी यह अंतर्दृष्टि है की उपस्थिति मात्र के लिए मेरी कोई भूमिका नहीं है?

 

मैं उपस्थित हूं और कोई अन्य व्यक्ति वहां पर है, क्या यह बात वास्तव में सही है, या यह एक सिद्धांत है? जब मैं उपस्थित होने का कोई प्रयास नहीं कर रहा हूं, तो क्या मैं अनुपस्थित हो गया? उपस्थिति सर्वदा विद्यमान है, यह भ्रम है कि मैं उपस्थित हूं। यदि मेरे उपस्थित या ना-उपस्थित होने से, जीवन की धारा अनुपस्थित नहीं होती है, तो यहीं बात समाप्त हो जाती है।

 

मैं और मेरा विचार इसके प्रति सजगता, या असजग होना, दोनों में प्रक्रिया तो एक ही चल रही है, केवल अवस्था बदल रही है, एक में सापेक्षिक रूप से जागृति है, एक में प्रमाद है। और क्या यह जो सापेक्षिक जागृत होना है, क्या यही मौलिक है, क्या यही आत्यंतिक है? यदि हम अपने द्वारा बनाई हुई उपस्थिति को अनुपस्थित कर लेते हैं, तो क्या जीवन समाप्त हो जाता है? सबसे बड़ा भ्रम यही है कि मैं जीवन का कर्ता धर्ता हूं, और यदि मैं कर्ता हूं तो फल भी मुझे ही मिलेंगे।

 

उपस्थिति नैसर्गिक है, उपस्थिति को बनाए रखने के लिए मुझे कुछ करने की आवश्यकता नहीं है, जीवन स्वयंभू है।

 

विचार और विचारक एक कैसे हैं?

 

प्रश्न - मैं हूं और मुझे विचार आ रहे हैं, तो यह क्यों कहा जाता है कि विचार और विचारक अलग नहीं हैं?

 

यह बात सोच विचार से समझी नहीं जा सकती है। यदि इसको बुद्धि से समझने जाएंगे, तो किसी काल्पनिक निष्कर्ष पर आकर, हम इसके पक्ष में या विपक्ष में हो सकते हैं। इस बात को जानने के लिए यथार्थ के धरातल पर उतरना होगा कि क्या यह वास्तव में सच है या नहीं है। इसका सच्चा परीक्षण हमारे अंदर ही हो सकता है।

 

दुनिया में किसी भी चीज को जानने के लिए विचारक के बने रहने से कुछ फर्क नहीं पड़ता है। पर जब विचार और विचारक की सत्यता को जानना है, तो हम ही प्रयोगशाला हैं, हम ही प्रयोग की सामग्री है, और हम ही प्रयोग कर रहे हैं। यह सवाल की क्या विचार और विचारक एक हैं, इसका परीक्षण किसी नए विचार से नहीं हो सकता है। आग यदि पेट्रोल से जल रही है, तो और पेट्रोल डाल करके आग को बुझाया नहीं जा सकता है।

 

इसका उपाय है ध्यान, आत्म अन्वेषण के लिए पूछा गया सही प्रश्न। जब हम इस प्रश्न  के साथ कुछ नहीं करते हैं की विचार और विचारक अलग हैं या एक हैं, तो वहीं अंतर्दृष्टि पाई जाती है। अन्वेषण में विचार या विचारण दोनों की कोई भूमिका नहीं है, इस अंतर्दृष्टि से वहां जीवन पाया जाता है, और वहां विचार या विचारक दोनों नहीं होते हैं।

 

यदि हम कहते हैं कि इस अन्वेषण को किस तरीके से किया जाए, तो हम फिर एक विचार की प्रक्रिया में ही उलझ जाते हैं। मैं यदि जांचने जा रहा हूं कि विचार और विचारक अलग हैं या नहीं हैं, तो यह खुद एक विचार और विचारक की प्रक्रिया हो गई, और इसी समझ से, अंतर्दृष्टि या बोथ का जन्म हो जाता है। ये दिखना या अंतर्दृष्टि कि मैं विचार और विचारक का सत्यापन नहीं कर सकता हूं, इसी बात से सिद्ध हो गया कि विचार और विचारक एक ही हैं।

 

इस अंतर्दृष्टि से सभी प्रयास छूट गए, और जीवन के धरातल पर यह सिद्ध हो गया कि विचार और विचारक एक साथ गिर जाते हैं। यह सोच समझ की बात नहीं है, यह प्रायोगिक बात है। इस अन्वेषण से यह अंतर्दृष्टि आ गई की मैं ही सोचता हूं, और जो भी सोचा जाता है उससे मैं निर्मित होता हूं। जो है नहीं उसको हम जीवन मान रहे हैं, और जो जीवन है, उसकी कोई खबर ही नहीं है।

 

क्या शुद्र को बुद्धत्व का अधिकार है?

 

प्रश्न - क्या शुद्र को बुद्धत्व का अधिकार है?

 

निश्चित रूप से है, इस धरती पर कोई भी ऐसा इंसान नहीं है जो बुद्धत्व की प्राप्ति के लिए अपात्र हो। बुद्धत्व तो बहुत दूर की बात है, प्रकृति में भी एक इंसान से दूसरे इंसान में, कोई भेदभाव नहीं है। बहुत सारे प्रमाण उपलब्ध हैं, जैसे कबीर साहब के माता-पिता का पता ही नहीं है, बड़े ही गरीब परिवार में उनका पालन पोषण हुआ। कबीर महान ऋषि हैं, वो किसी भी अवतार से कम नहीं हैं। कोई भेदभाव नहीं है बुद्ध, कृष्ण या कबीर में। अस्तित्व में कोई शर्त नहीं है कि किसको बुद्धत्व मिल सकता है, और किसको नहीं मिल सकता है।

 

हमारी जो वस्तुस्थिति है, वहीं से शुरुआत करनी चाहिए, यहां मान्यताओं, कल्पनाओं की कोई भूमिका नहीं है। जैसे अभी जो भय, चिंता है, जो मैं है, क्या वह निजी है, क्या वह नैसर्गिक है, इसकी जांच करी जा सकती है।

सूफी जिसको हकीकत कहते हैं, जो सत्य, नित्य है, वही इश्क है, जिसको किसी भी काल में झूठा नहीं किया जा सकता है।

 

होश में यह सब प्रकाशित होता हुआ पाया जाता है कि अभी बुद्धि बता रही है कि यह भूले भटके होना है, और यह जो दूसरी बात है इसका अर्थ है कि अभी रास्ते में होना है। होश में, मैं जैसी कोई सत्ता नहीं है, जो की हमेशा रास्ते पर होती है, या भूली भटकी होती है। ध्यान की जो कीमिया है, वह जो है जैसा है, उसको बस प्रकाशित करती है। भुला भटका होना या सही रास्ता जानना, दोनों केवल एक सिद्धांत ही हैं। इन दोनों ही स्थितियों में वह देखना क्या है जो नैसर्गिक है? इस दिखने मात्रा में, सही या गलत रास्ता, ये दोनों ही बातें आउटडेटेड या महत्वहीन हो जाती हैं।

 

देखने में यह देखिए कि जो अभी घट रहा है उसको क्या यह हम देख रहे हैं, कि बस दिखाई पड़ना घट रहा है? फिर हम इश्क मस्ताने का रस चख पाएंगे, और ऐसी जगह पर नहीं जाएंगे, जहां पर बाजीगरी चल रही है। हम आप जीवन में प्रेम को अवसर दे सकते हैं, फिर उससे जो क्रिया निकल कर आती है वह शुभ कर्म हो सकता है। होश या प्रेम का जीवन में सहज घटना, निश्चित रूप से संभव है।


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