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यदि रास्ते हैं, तो वह जीवन ही नहीं है (ध्यानशाला, सुबह का सत्र, 25 अक्टूबर 2024)

Ashwin

ध्यानशाला, सुबह का सत्र, 25 अक्टूबर 2024


क्या कभी हमने इस तरह से देखा है कि जीवन जीवन ही इसलिए है, क्योंकि उसमें रास्ते नहीं हैं। यदि रास्ते हैं, तो वह जीवन ही नहीं है, क्योंकि रास्ते के साथ आदि और अंत शुरू हो जाता है। यदि रास्ते होंगे, तो रास्ते से भटकना भी होगा, और यदि रास्ते नहीं हैं, तो हम रास्ते से भटक भी नहीं सकते।


यदि कुछ अनादि है और अनंत है, तो वह अभी भी उपस्थित है। वह अनुशासनहीन नहीं है, पर अनुशासित भी नहीं है। जीवन यदि हमारे योजनाबद्ध तरीके में है, तो योजना भरपूर है, पर वह जीवन नहीं है। फूल का शव फूल नहीं है, वह मिट्टी है, जैसे इंसान का शव इंसान नहीं है, वह मिट्टी है। यदि जिंदगी विचारों के द्वारा संचालित है, तो वह जिंदगी ही नहीं है। विचार, संस्कार, भावनायें यह खांचे हैं, जो तरीके बनाते हैं, और यदि तरीके में जिंदगी है, तो वह जिंदगी नहीं है।


जिंदगी जो पता हो जाती है, वह जिंदगी नहीं रह जाती है। जानने की घटना ही आभासीय है, एक आभासीय घटना से हम असल जीवन को कैसे संचालित कर पाएंगे? क्या हम किसी को फुसला करके, या खुद फुसल करके, किसी संबंध को मीठा बना करके रख सकते हैं? हम एक फूल को उसकी डाली से तोड़कर उसके रंगों, ताजगी, जीवन को जिंदा रखने का प्रयास कर रहे हैं। फूल को तो फिर भी हम तोड़ सकते हैं, पर जीवन को हम कैसे तोड़ेंगे? जीवन को जितना हम तोड़ लेते हैं, उतना ही भ्रम पैदा कर लेते हैं।


जीवन में हम अपना एक सपना बनाते हैं, दूसरे का एक सपना बनाते हैं, और फिर ये सपने आपस में भिड़ जाते हैं। जो भी कुछ हम जानते हैं, क्या उसमें कुछ भी जीवन हो सकता है?


जब हम जब किसी चीज से आकर्षित होते हैं, तो मामला वहीं समाप्त नहीं हो जाता है, फिर हम उसे हासिल करने का उपाय करते हैं, और उसको हासिल करने की प्रक्रिया में बहुत सारे झंझट पाल लेते हैं।


यदि हम किसी के लिए काठ हो रहे हैं, तो हम जीवन के लिए भी काठ हो रहे हैं। ऐसा संभव नहीं है कि दूसरों के लिए हम काठ हो जाएं, और अपनों के लिए हम रस भरे रहें। जितना हमने जिंदगी को जीना सिखाया है, उतना ही हम जिंदगी से महरूम होते चले जा रहे हैं।


यहां कुछ नहीं है, और यह जो जानने वाला है, इस जानने वाले की गति, उपस्थिति या टिकने में भी कुछ नहीं है। अब आर के यथाभूत दर्शन के सिवा कुछ नहीं बचा। कहीं पहुंचने की बात बेमानी है, वह जीवन को जीना सिखाने वाली बात है। गति करना या थिरता यह दोनों ही मन के उत्पाद हैं। मुक्ति ना थिर है, ना गतिमान है, जो है इस आर में ही खत्म है। जो भी है, उसका सम्यक अवलोकन ही जीवन है। ऐसा नहीं है कि सम्यक अवलोकन से कुछ मिलेगा, फिर तो जीवन झांसा खा गया।


जब तक हम आप हैं, तब तक हम कुछ ना कुछ मानते ही रहेंगे, और यहां बताने वाले भी बहुत बैठे ही हुए हैं। जब तक हम हैं, तब तक हम झांसे में जाएंगे ही जाएंगे, क्योंकि हम ही झांसा हैं। क्या वास्तव में हम जानते हैं कि जिसको हम जीवन का सही ढंग कहते हैं, वही जीवन का सही ढंग है?


जो हम कह रहे हैं वह जी नहीं रहे हैं, तो उसका गहरा दुष्प्रभाव हमारे जीवन पर पड़ेगा। यदि जो कहा जा रहा है वही जिया जा रहा है, तो अलग बात हो गई। यदि हम होश में जी नहीं रहे हैं, तो लोगों की नाराजगी हम झेल नहीं पाएंगे। जीसस ने अंतिम समय में अपने करीबी शिष्यों से कहा कि आप में से ही कोई मुझे धोखा दे देगा। और जिसने जीसस को धोखा दिया उसको खुद नहीं पता कि उसने उनको क्यों धोखा दिया। यदि राह देख ली गई है, पर चली नहीं गई है, जब तक सत्य जीवन में उतरा नहीं है, तब तक कुछ भी हो सकता है।


हमने अपने अंदर यह भ्रम पाल रखा है कि हम किसी को खुशी दे सकते हैं, हम किसी को प्यार कर सकते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं की जो यहां हम सीख रहे हैं, उसको यथावत देखने की बजाय, उसको सुशोभित करके इकट्ठा कर रहे हैं? नहीं तो एक तरफ ज्ञान बढ़ता जाएगा, और जीवन में हम वही वही करते जाएंगे, जो पहले से करते आ रहे हैं। यदि इन खतरों को हम साथ चलते हुए देख रहे हैं, तो जो समाधान है, वह सहज ही जीवन में उतरता चला जाएगा।


तथ्य को तथ्य की तरह देखने से पीड़ा भी निकल कर के सामने आती है। जैसे कि हमारे रहते हुए, हम किसी का सम्मान नहीं कर सकते, हम किसी को प्रेम नहीं कर सकते। मैं किसी को प्रेम नहीं दे सकता, इस तथ्य को देखना बहुत साहस की बात है। हम तो समझते हैं कि मेरे से बड़ा कल्याणकारी व्यक्ति कोई और नहीं है। इन सब चीजों को जस का तस देखना, सच्चा तप है।


कहीं ऐसा तो नहीं की कुछ सुनने के बाद, उसको समझने या व्यवस्था देने का प्रयास ही, एक नई व्यवस्था निर्मित कर दे रहा है? यह बात सुनने में ही समाप्त हो गई, तो ही शुभ है। यदि हम सुन करके उसके बारे में सोच रहे हैं, तो फिर हम उसको व्यवस्था देने का ही एक प्रयास कर रहे हैं। जो अराजकता चल रही है, क्या उसे वैसा ही देखा जा सकता है, बिना एक नई व्यवस्था या अराजकता को निर्मित किए हुए? इन बातों को कोई सोच या समझ नहीं सकता है, दिखा और तत्क्षण, बात वहीं खत्म।


जो भी दिख रहा है, कहीं हम उसको रोकने या बदलने के लिए तो उसको नहीं देख रहे हैं? यदि हम किसी चीज को रोकने के उद्देश्य से देखेंगे, तो फिर वह कभी नहीं रुकेगा। रोकने का ख्याल ही उसकी गति देगा, वह ख्याल ही गति है। मेरे द्वारा चलने या रोकने की बात ही बेमानी है, यहीं बात खत्म हो जाती है।


जो बहुत विचारशील हैं, उनके लिए सोचना ही जीवन हो गया। या फिर सोचना कैसे रोकें, यह भी एक सोचना ही है। यदि इस दुश्चक्र को समझना है, तो सोचने कि किसी पार की चीज को अभी अवसर देना होगा। जैसे आवाज का सुनाई पड़ना, प्रतिक्रिया से मुक्त सुनना, यह सोचना नहीं है। आवाज मात्र को सुनना, सीधे क्रिया में उतरना है। बिना किसी प्रतिक्रिया के सुनना क्या है, तो एक ऐसा धरातल उपलब्ध है, जो सोचना नहीं है।


बिना 'पार' रूपी विपरीत को निर्मित किए, बिना 'या' को निर्मित किए, आर में जीना या आर का होना क्या है? यदि हम यह भी सोचते हैं कि आर में कैसे जिएं, तो फिर हम आर में रहने के एक आदर्श ख्याल को निर्मित कर लेते हैं। आर में किसी आदर्श रहने के ख्याल को बनाए बिना, आर में यथावत होना क्या है? यदि कोई उत्तर आता है, तो हम आर के किसी ख्याल में चले गए, जो पार के ख्याल को पहले ही निर्मित कर चुका है। और यदि कोई उत्तर नहीं आता है, तो हम शुद्ध रूप से आर में स्थापित हैं।

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