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Ashwin

सहज मिले सो दूध है (ध्यानशाला भोर का सत्र, 21 अप्रैल 2024)

ध्यानशाला भोर का सत्र, 21 अप्रैल 2024

 

यहां जो भी हम कर रहे हैं उसका कोई अर्थ नहीं है, पर साथ ही इससे ज्यादा अर्थपूर्ण और उद्यम और कुछ नहीं हो सकता है। अस्तित्व में सब कुछ अतुल्य और ताजा ही घट रहा है।

 

सहज मिले सो दूध है, माँगि मिले सो पानि।

कहैं कबीर वह रक्त है, जामें ऐंचा-तानि॥

 

जो चीज बिना माँगे स्वतः मिल जाए, वह दूध के समान है; जो माँगकर मिले, वह पानी के समान है और कबीर साहब कहते हैं कि जो चीज जबरदस्ती लेनी पड़े उसे खून के समान मानो।

 

उन्होंने करारा व्यंग्य उनपर किया है, जो बड़ी कठिन साधना कर रहे हैं। जितना आसान आप समझ सकते हैं, सत्य उससे भी बहुत ही अधिक आसान है। जीवन में सहज हो जाइए, पर जो कला है, उसके प्रति गंभीर भी रहिए।

 

देखना यदि आ रहा है, तो वह अपने आप आपसे कर्म करा लेगा। ऐसा होगा की अपने से आपसे चीजें होती चली जा रही हैं, आप सिर्फ एक माध्यम हो। जैसे आप अभी देख सकते हैं कि बिना मेरी भूमिका के सांस का चलना क्या है?

 

कबीर साहब कहते हैं कि माई मैं दोनों कुल उजियारी। यहां के कर्म सम्यक होने लगते हैं, और उस पार का प्रसाद जीवन में उतरने लगता है।

 

बिना कोशिश के बोध का उतरना क्या है? इस प्रश्न मात्र से अपने आप संतुलन आ जायेगा, संभलते संभलते संतुलन आ ही जाता है। सभी एक्शन नैसर्गिक रूप से होते चले जा रहे हैं। प्राकृतिक तथ्य सबको वही दिखेगा, पर मानसिक तथ्य अलग अलग हो सकते हैं।

 

लगन या ललक तब पैदा होती है, जब दिखता है कि खतरा कितना बड़ा है, या हमारे जीवन में प्रेम का कितना अभाव है। मान सम्मान, अपना पराया, पद प्रतिष्ठा जैसा कुछ होता ही नहीं है, यह सब मनुष्य ने बनाया है। यदि आपका घर जल रहा है, तो आप लापरवाह नहीं रह सकते हैं।

 

ओरिजनल जीवन अनुभव से मुक्त है, मुझे जो भी समझ आ रहा है वो नकल है, झूठन है। मन एक ऐसा पात्र है जिसमें सबकी लार है, सबकी झूठन इकट्ठी हो रखी है। सारे अनुभव झूठन हैं, प्रेम की मांग, धर्म, मन से जो भी आयेगा वो दूसरा चरण है। प्रथम चरण तो पहले से आया ही हुआ है।

 

जो भी मन से प्रोसेस होगा वो द्वैत या विपरीत में ही गति करेगा, जबकि सत्य हमेशा विरोधाभास में ही प्रकट होता है। ताओ ते चिंग, में चिंग का अर्थ संकलन है।

 

मैं का एहसास और उसका ढर्रा एक जैसा ही है, पर उथले ढर्रे थोड़ा अलग अलग होते हैं। मैं मनुष्य चेतना का एक बहुत पुराना चलने वाला ढंग है। अब इसका मुंह नहीं देखेंगे यह वही ढर्रा है, जैसे औरंगजेब ने दाराशिकोह का खून करवा दिया था और उसके शव के साथ बैठकर के रो रहा था।

 

पूरी मनुष्य चेतना एक है, मैं सबसे अलग हूं यह बात भी सबसे साधारण बात है। कॉन्टेंट थोड़ा अलग होगा पर ढर्रा या पैटर्न एक जैसा ही है। यह समझते ही आप निजी एक्शन करने के मोह से बाहर हो जाओगे। मैं अहंकार को समाप्त करूंगा यह एक निजी क्रिया है, जो मुझे निजी लगता है वो वास्तव में बिल्कुल भी निजी नहीं है। जो सही करने वाला है वो ही समाप्त हो जायेगा, ऐसी क्रिया होगी जो निजी नहीं है। यानी आप काम नहीं कर रहे होगे, आप काम होने को अवसर दे रहे होगे।

 

यदि जो निजी उपस्थिति नहीं है उसको अवसर दे रहे हो, तो आप प्रथम कदम को उतरने का अवसर दे रहे हो। जब आप नहीं करते हो, तो आपके माध्यम से भी अस्तित्व ही काम कर रहा है। 

 

यहां साथ चलते चलते, हर बार कुछ नया ही निकल कर आता है, वही बात एक नए तरीके से कही जाती है, जो मन की स्थिति है उसके अनुसार वह उसको छू जाती है।

 

सत्संग की महिमा का कोई सानी नहीं है, बस वहां बना रहने से, उससे सहज ललक आ ही जाती है, हमेशा श्रेयकर धारा से जुड़े रहना चाहिए।

 

जो दैविक और आसुरी प्रवृत्तियां है उनमें एक सम्यक संतुलन बना हुआ है। पर वह धरातल ही आभासीय है, जिसपर यह सब घट रहा है। यथार्थ का धरातल इन दोनों से मुक्त है, उसकी गति में सब विपरीत शामिल है।

 

यहां जो भी कुछ है वो उत्सव मानने के लिए है, अहो भाव या कृतज्ञता यदि है, तो सब कुछ सहज ही होता चला जाता है।

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