दुख का बोध, के कुछ मुख्य अंश - By Ashwin
धर्मराज भैया के यूट्यूब पर "स्वयं को देखने की कला", पहली बैठक,
१) बाहर जो व्यक्ति है वो केवल एक दर्पण है, उसके माध्यम से मैं क्या हूं उसका पता चलता है। मेरे अंदर जो है, वही बाहर वाले के माध्यम से वापस आ रहा है।
जो भी हम बांटते हैं, बेहोशी या होश, वही हमारे पास लौटकर आता है। या फिर यहां पर दूसरा व्यक्ति कोई है ही नहीं। हम सब साथ भी हैं और अकेले भी हैं।
२) हम स्वयं को क्यों देखें? हम अपने अंदर झांकते हैं तो वहां दुख है, तृष्णा है। हम जो जीवन जी रहे हैं वो सम्यक जीवन नहीं है, उसमें कुछ तो गड़बड़ है।
दुख क्या है? जीवन में कुछ विजातीय है, जो सहजता होनी चाहिए वो नहीं है। विजातीय से निदान के लिए सबसे पहले उसे देखना पड़ता है। यदि जीवन में कोई गलत मोड़ ले लिया है तो सबसे पहले उसे समझना होगा। आपके लिए सही क्या है वो किसी अन्य को नहीं पता है। महा पुरुष का सम्मान कर सकते हैं, लेकिन किसी भी महा पुरुष ने केवल एक संभावना की ओर ही संकेत किया है।
३) जीवन को समझने के लिए सबसे पहले जीवन को ही देखना होगा। जैसे दरवाजा बंद नहीं हो रहा है तो सबसे पहले उसका निरीक्षण करना होता है।
जब हम अपने जीवन का परीक्षण या अवलोकन करते हैं तो एक बात सामने आती है कि दुख का अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। मैं नहीं हूं तो दुख भी नहीं है, मैं नहीं हूं पर दुख है ऐसा नहीं होता। जीवन में हमने जो भी सीखा है वो मैं को जाने बिना ही सीखा है।
४) मैं को कैसे देखा जाए? क्या हमने जीवन में कोई ऐसा काम किया है जिसमें करने वाला नहीं होता है? ये दुर्भाग्य की बात है की हमारे जीवन में कोई पल भी ऐसा नहीं आता है कि जिसमें दुख ना हो, जो मैं के बोध से मुक्त हो। दुख और मैं का बोध ये दोनों चीजें अलग नहीं हैं।
क्या वो जागरण है कि जिसमें समझने वाला, समझी जानी वाली चीज से अलग नहीं है? क्या वो जागरण है, अप्रमाद है, होश है, जिसमें मैं बिना किसी नए मैं का निर्माण किए, खुद मैं अपनी पूरी प्रक्रिया को समझ सकता है? मुझे खुद को समझना है, तो इसका सबसे पहला उपाय क्या होगा? क्या जागने वाले के साथ ही शरीर में जो घट रहा है उसको भी जाना जा सकता है? या जो भी शरीर में घट रहा है उसे जानने के लिए किसी भी जानने वाले की आवश्यकता नहीं है?
क्या सुनते समय सुनने वाले की कोई जरूरत है? सुनने वाले का जन्म कब होता है? क्या वो तब प्रकट होता है जब शब्दों का अर्थ प्रकट होता है, और प्रतिक्रिया प्रकट होती है, या जब केवल ध्वनि सुनाई दे रही है तब मैं का
जन्म होता है?
ये संभव है की यदि केवल सुना जा रहा है, उसमें तो मैं की कोई जरूरत नहीं है। जब बुद्धि मन देखने पर कुछ निंदा स्तुति आरोपण करते हैं, तब मैं का जन्म होता है, सिर्फ देखने में तो मैं की कोई भूमिका है ही नहीं। शरीर के प्रति सिर्फ जागरण के लिए तो मैं की कोई भूमिका नहीं है।
५) खुद को समझने के लिए सबसे पहली चीज आती है शरीर के प्रति जागरण, इसके लिए सिर्फ एक ही चीज की आवश्यकता है, और वो है जागरण।
जो भी मेरे अंदर चल रहा है, या विचारों को कैसे समझ पाएंगे? विचारों को तब नहीं समझा जायेगा, जब मैं ये सोचूंगा की उनको होना चाहिए या नहीं होना चाहिए, की ये अच्छे या बुरे हैं आदि। जो जागरण शरीर के प्रति था वही अब विचारों के प्रति लाना है, बस जागना मात्र है। प्रायः विचार मशीन की तरह चलते रहते हैं, जो मैंने नहीं बनाए हैं, वो बस चल रहे हैं।
विचार हमेशा अपने को मैं से अलग करके चल रहे हैं, कि ये मेरा विचार है, ये भाव रहता है। शरीर के प्रति जागरण बहुत आसान है। ये महत्वपूर्ण है कि वो कौन है कि जिसे विचार आ रहे हैं? मैं विचारों से भिन्न हूं, इसी समझ को आधार बना कर के, पहले हम विचारों के प्रति सजग होते हैं, फिर वो सत्ता, वो केंद्र क्या है जिसे ये विचार आ रहे हैं?
मैं और विचार के बीच का जो अंतराल है उसके प्रति जागें। ये होना चाहिए ये नहीं, ये बात नहीं हो रही है, हम साथ साथ एक एक कदम आगे बड़ रहे हैं। हम विचारों को देख रहे हैं और साथ ही साथ ये भी देख रहे हैं कि वो कौन है जिसको ये विचार आ रहे हैं, और इनके बीच का अंतराल क्या है?
६) इसके बाद विचारों के साथ भाव जुड़े हुए हैं, और बहुत सारी भावनाएं विचारों से नहीं भी जुड़ी होती हैं। शरीर की तरह, भावनाएं जैसी भी हैं, हम वैसा का वैसा उनको देख रहे हैं, ये नहीं सोच रहे हैं कि हमको घृणा नहीं आनी चाहिए। ये सब समाज द्वारा दी गई धारणाएं हैं। जो भी भाव आ रहे हैं उसके प्रति जाग रहे हैं, अभी मैं भावों के प्रति होश में नहीं हूं, उनमें बह जाता हूं। क्या हम सिर्फ भाव के साथ जाग सकते हैं, उसको समझने के लिए?
क्या हम भाव की संरचना के प्रति होश में आ सकते हैं, साथ ही साथ इसके प्रति भी की ये भाव किसको आ रहे हैं? भाव के साथ साथ, ये भी महत्वपूर्ण है की क्या हम उस केंद्र के प्रति होश में हैं, जिसमें ये भाव घट रहे हैं? और क्या हम दोनों के प्रति अंतराल के प्रति भी जाग रहे हैं?
७) जब हम जागरण में जाएं तो शरीर से लेकर, संवेदना, विचार, भाव आदि तक एक साथ सबके प्रति जाग सकते हैं। क्या हम अभी जाग सकते हैं? उसके लिए कोई भी प्रयत्न या कोशिश विचार की प्रक्रिया है, उसके प्रति भी जागरण संभव है।
इस तरह अपने प्रति क्या सीधे जागा जा सकता है, या ऐसा सीधा कोई उपाय ही नहीं है? यदि मैं शरीर, विचारों, भावों आदि के प्रति सीधे जाग रहा हूं, तो जागने वाला मौजूद है। इसमें भी या जागने के किसी भी प्रयास में, जो जागने वाला है वो हाथ से छूट जाता है, फिसल जाता है, या आप उसीमें खो जाते हैं। जैसे थोड़ी देर के लिए सिनेमा में खो गए, पर फिर बाहर आते ही मैं को धारण कर लिया।
इस तरह सुक्ष्म रूप से जानने के लिए किसी भी साधक की परिवक्वता का कोई मापदंड नहीं है, या तो वो समझता है या नहीं समझता है। सवाल है कि क्या मैं सीधे जाग सकता हूं, या ये जान सकता हूं की मैं बेहोश हूं? ये देखना जरूरी है कि मैं बेहोश हूं, या क्या मेरा जागना जरूरी है?
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