प्रश्न - बचपन में मेरे साथ घरेलू शोषण हुआ, उसका मेरे चित्त पर गहरा प्रभाव है, मैं उससे बाहर कैसे निकलूं?
- किसी भी घटना से बाहर निकलने की अपेक्षा, उसको समझना ज्यादा जरूरी होता है, कि वो घटना क्या है? किसी भी चीज को भुलाने की कोशिश में, दरअसल आप उसको याद कर रहे हैं।
- जो भी घटना हुई है, उसको विशेषणों से मुक्त कर दें। जो भी उस घटना के साथ लेवल चिपकाए हुए हैं उनको उखाड़ करके फेंक दें, तो वहां पर जो बचता है, वह केवल उसकी स्मृति है। कोई दूसरा व्यक्ति इसमें आपकी मदद नहीं कर सकता है।
- आपको उससे मुक्त होने की कोई जल्दी नहीं है, आप बस देख रहे हैं कि उस घटना की स्मृति जब घटती है तो क्या होता है, तो उससे आपकी ऊर्जा मुक्त होनी शुरू हो जाती है। सदमा यानी किसी विशेष तरीके से ऊर्जा का कहीं फंस जाना।
- वह जो घटना की स्मृति है, और अभी जो जीवन घट रहा है उसमें कोई पुल नहीं है। अभी जो जीवन घट रहा है और जो वह पहले की घटना है, उसमें क्या है जो पुल का काम करता है? इसको हम देखेंगे तो हम पाएंगे कि वह हम स्वयं ही हैं, जो इन दोनों को आपस में जोड़े हुए हैं।
इन तथ्यों के प्रति सजगता से, अभी जो जीवन बह रहा है, उसका बोध होने लगेगा। इससे आप उस घटना की स्मृति से बाहर निकल जाएंगे। इस बोथ से आप सही निर्णय ले पाएंगे कि जिसके द्वारा चोट पहुंची है, उनके साथ क्या प्रतिक्रिया होनी चाहिए। चोटिल चित्त जो भी निर्णय लेता है, वह सबसे पहले अपने आप को ही आहत करता है।
प्रश्न - मैंने बहुत गुरुओं को सुना है पर जीवन में कोई क्रांति नहीं घटी, क्या अभी भी मेरे लिए कोई अवसर है?
ऐसा लगता है कि अभी भी आपका रुख बाहर की तरफ ही है। यदि मुझे मुझ तक ही आना है, तो कौन रास्ता बता सकता है? आप जहां हैं वहीं से आपको शुरू होना है, और आप कहां है यह आप ही जान सकते हैं। जो क्रांति होनी है जीवन में वो अपने से, अपने में, और अपने द्वारा होनी है।
जीवन में जो भी दुख हो रहा है, वह इस कारण से हो रहा है क्योंकि हम अपनी जड़ से उखड़ गए हैं। हमको अपने प्रस्थान बिंदु को समझना चाहिए कि मैं जो हूं जहां हूं उसको देखूं, और उसके प्रति प्रतिक्रिया ना हो। अभी जो आपके आसपास घट रहा है, उसको सिर्फ सजगता पूर्वक देखा गया कि इस क्षण यही मैं हूं, यही क्रांति का मूल स्रोत है। ऐसे ही देखते देखते अवलोकन थिर होने लगता है, और यही थिर हो रहा अवलोकन, सारी संस्कारिता को भस्म कर देता है।
प्रश्न - मैं पिछले बारह साल से ऐसे संबंध में हूं जिससे मैं निकल भी नहीं पा रहा हूं, ना उसमें जी पा रहा हूं। दो बार आत्महत्या करने का भी प्रयास किया है। क्या जीवन में कोई ऐसा उपाय है, जिससे कुछ इसका हल निकल सकता है?
यह समझना होगा कि वह कौन है जो पिछले बारह साल से एक संबंध में है, और उससे तुष्ट नहीं है। वह व्यक्ति जो बारह साल से पीड़ित है, वह खुद एक हिस्सा है, इस पूरी समस्या का। उसके अंदर कोई ना कोई ऐसी गांठ है, जो उस संबंध को बराबर बांधे रखे हुए है। वह व्यक्ति उस पूरी समस्या से अलग नहीं है। जब हम समस्या से खुद को अलग कर लेते हैं, तो समस्या की संरचना ठीक से दिखाई नहीं पड़ती है।
जब आप समस्या को देखते हैं, तो उसे सीधे नहीं देखते हैं, आप उसको एक ख्याल के रूप में देखते हैं, और आप खुद उस ख्याल से अलग हो चुके होते हैं। एक तो वास्तविक घटना है, और एक उस घटना के बारे में धारणा है। एक आभासीय विचार, एक क्लोनिंग मन में चलती है कि कैसे इस घटना से मुक्त हुआ जाए। वास्तविक घटना तो आपस में जुड़ी हुई है, और ख्याल में आप अलग होना चाहते हैं। यह विरोधाभास आपके द्वारा ही रचा गया है।
इस घटना में आपको परेशानी या चिढ़ होती है, उससे तुरंत अलग मत होइए, कि यह क्यों हो रहा है मेरे साथ। उस घटना के साथ बस उपस्थित रहिए, उसको ना सही कहिए ना गलत कहिए। समस्या का यथार्थ के धरातल पर पहले ठीक से दिखना जरूरी है, ना कि उसके बारे में कोई ख्याल बना लेना। इस समझ मात्र से सबसे पहले, नैसर्गिक रूप से, आपके अंदर से वह सारे आग्रह उखड़ जाएंगे, जो किसी भी समस्या की निरंतरता बनाए रखते हैं।
यह भी हो सकता है कि उस संबंध में विष आपने ही घोला हो। कुछ कह नहीं सकते कि अवलोकन में क्या तथ्य निकल करके सामने आएगा। उस संबंध में यदि आप विष घोल रहे हैं, यह समझ आ गया, तो आप उससे मुक्त हो जाएंगे, और वह व्यक्ति भी बदल जाएगा। यदि आपने समस्या की अपनी तरफ से खूंटियां उखाड़ दीं, तो बात फिर एकतरफा हो जाएगी। दूसरे व्यक्ति की समस्या यदि आप ग्रहण नहीं कर रहे हैं, तो वह समस्या लौट करके उसी पर चली जाएगी।
यथार्थ के धरातल पर संबंध किसी एक व्यक्ति से थोड़े ही है, वह पूरी मानवता से है। आप यथार्थ के धरातल पर जीना शुरु कर देंगे, तो आपको सही दिखाई पड़ना भी शुरू हो जाएगा। और यदि आपने वहां पर कुछ आरोपित किया होगा, तो वह भी यथावत दिख जाएगा। क्या आप समस्या को अपने अंदर जांच सकते हैं, क्योंकि कोई और किसी और को समस्याग्रस्त नहीं कर सकता है। सुकरात जैसे व्यक्ति का जीवन सहज चला रहा, जबकि उनकी पत्नी उन्हें बहुत ज्यादा परेशान करती थीं, तो आप भी सम्यक समाधान निकाल लेंगे, यदि समस्या की पूरी जड़ को ठीक ठीक देख सकें।
आत्महत्या कोई निदान नहीं है। आप अपनी तरफ देखें, घटना के पूरे क्रियाकलाप को समझें, तो आपको समाधान मिल जाएगा।
प्रश्न - मेरे जीवन में बहुत सफलता है, पर फिर भी मेरे अंदर बहुत अकेलापन है, क्या कुछ ऐसा है जिससे मेरा अकेलापन दूर हो सके और मैं शांति से रह सकूं?
हम भूल जाते हैं कि जीना क्या है, और सफलता यानी क्या? हमारा मन संसाधन जुटाने में क्यों लगा रहता है, हमारी ऊर्जा माध्यमों में क्यों उलझी रहती है? इस वजह से जीवन जीने के लिए ऊर्जा बची ही नहीं रहती है। पशु पक्षियों के पास भी जब ऊर्जा बचती है, उससे वह कुछ ऐसा करते हैं जिसका कोई कारण नहीं है, जैसे पंक्षी गीत गाते हैं।
केवल संसाधन जुटाते रहने के लिए या मनोरंजन में समय बेकार करने के लिए ऊर्जा नहीं बनी है, ऊर्जा हमारे रोम-रोम में खिलनी चाहिए, शरीर, प्राण, चित्त के तल पर ऊर्जा का अतिरेक होना चाहिए। ऊर्जा का तल यदि जीवन में बढ़े तो सृजनात्मकता, ध्यान, प्रेम, विराट दृष्टि का जन्म हो सकता है।
मकान बड़ा हो जाता है, पर दिल छोटा रह जाता है, यह सफलता नहीं है। सफलता का अर्थ है कि ऊर्जा का अपनी तरफ मुड़ जाना। अपनी तरफ देखना, निहारना शुरू करना, जो इंद्रियों पर घट रहा है, उसको बिना हस्तक्षेप के देखना मात्र। मन का एक ढंग है एक विचार से दूसरे विचार में कूदते रहना, और एक दूसरा ढंग है कि जो चल रहा है उसको बिना हस्तक्षेप के, बिना निंदा स्तुति के देखना। इससे सोच विचार से तय करी हुई जिंदगी से हटकर, जीवन के यथार्थ गहरे तलों पर उस ऊर्जा का प्रवाह शुरू हो जाता है।
इस तरह जीवन की धारा बदल जाती है फिर आपको किसी से रास्ता पूछने की जरूरत नहीं पड़ेगी, या अपने अनुभवों में आपको भटकना नहीं पड़ेगा, और बड़ी आसानी से आप जीवन का सही रास्ता पा लेंगे।
प्रश्न - दूसरों की बेहोशी या भ्रम हमें दिख जाता है पर अपना नहीं दिखता, क्या है जो हमें रोकता है?
इसका कारण है प्रेम का अभाव, आप दूसरे की तरफ तभी देखते हैं जब आप अपने अंदर से खोखले हैं। या फिर आपने अपने अंदर बहुत सारा कूड़ा, अनुभव, समझदारी, ज्ञान इकट्ठा करके रख लिया है। इन सब चीजों का होना यह प्रदर्शित करता है कि हमारे अंदर प्रेम का अभाव है। जब यह सब चीज हैं, और प्रेम नहीं है, तो हमारी दृष्टि दूसरे की तरफ होती है।
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलया कोई।
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा ना कोई।।
जिसकी नजर अपने भीतर के तथ्य पर है, उसके लिए दूसरा कोई बुरा नहीं रह जाता। मेरे भीतर जो भी चीज घट रही है, संबंधों में उसके प्रति मैं जागा हुआ हूं। अपनी तरफ देखने में जो जीवन रस से भरा हुआ है, वह खूब फलता फूलता है।
जो तोकु कांटा बुवे, ताहि बोय तू फूल।
तोकू फूल के फूल है, बाकू है त्रिशूल।।
यह कोई नैतिक वचन नहीं है, यह एकदम सनातन धर्म का वक्तव्य है। यदि मैं किसी के लिए कांटा बो रहा हूं तो वह कांटा मेरे अंदर सबसे पहले चुभेगा। उसकी जड़ उसका पोषण, वह मेरे अंदर सबसे पहले पैदा होगा।
प्रेम के अभाव को दूसरे शब्दों में कहा जाता है प्रमाद, या बेहोशी। जितना अहंकार गहन होगा, उतना ही दूसरे की तरफ देखने की इच्छा प्रबल होगी। जितना प्रकाश होगा, उतनी निगाह दूसरे से हटकर अपनी तरफ आ जाएगी।
प्रश्न - कार्य ही पूजा है, यह बात मानकर हम अपने आप को काम में ही डुबो देते हैं, सम्यक कर्म क्या है, उसकी पहचान कैसे हो?
हम मुहावरों को बिना जांचे परखे मान लेते हैं। देखें कि कौन सा कार्य पूजा है? आपने जो भी जीवन का लक्ष्य बना लिया है, उसको पूरा करने के लिए कोई भी कार्य करते जाना, पूजा कैसे हो सकता है? कहीं यह कोई सम्मोहन तो नहीं है?
वह नैसर्गिक कर्म क्या है, जो प्रायोजित नहीं है, जो किसी अन्य के स्वार्थ के लिए आपके ऊपर थोपा नहीं गया है? वह मूल कर्म क्या है जो संस्कारित नहीं है? मूल कर्म सिर्फ एक ही है, और वह है देखना, जागना। जागने के बाद, अपनी तरफ देखने के बाद, जो भी कर्म घटित होता है, वह ही सम्यक कर्म है।
कबीर साहब कहते हैं कि बड़े जतन से यह चादर राम के लिए बुनी है, और हाट में ले जाकर के उसे बेचते हुए कहते हैं कि हे राम तुम इसे खरीद लो। वह कर्म पूजा है, जिस कर्म में ध्यान है, प्रेम है।
साक्षी भाव को कैसे विकसित करें?
साक्षी बहुत मजबूरी में कही हुई बात है, और उसका इतना दुरूपयोग हुआ है कि उसके साथ कहीं दूर तक जाया नहीं जा सकता है। अहंकार को पूरी तरह हटाने के लिए जो उपाय खोजा गया था, उसे साक्षी कहा गया।
जब आप ये प्रयास करते हो कि मैं बिना निंदा स्तुति के देखूंगा, तो वहां भूल हो जाती है। साक्षी भाव उस जीवंत प्रक्रिया की तरफ इशारा है, जिसमें हमारी कोई भूमिका नहीं है। इस बोध में ही मेरी सारी भूमिका स्वाहा हो जाती है। क्या कोई अवलोकन ऐसा है, जो मैं नहीं साध रहा हूं? यह प्रश्न ऐसे ही है, जैसे की आप किसी वृक्ष के साथ हैं, उसकी छाया में हैं।
आदमी अपने आप से ही सम्मोहित हो जाता है, ऐसा क्यों होता है?
किसी भी सुझाव को अगर हम अपने अंदर दोहराते हैं, तो उससे सम्मोहित हो जाते हैं। सम्मोहन तोड़ने के लिए दोहराया गया कोई भी प्रयास, सम्मोहन मजबूत करता है। आत्म सम्मोहन को तोड़ने का कोई उपाय नहीं हो सकता है। मैं का एहसास आत्म सम्मोहन है, अब इस मैं के एहसास को तोड़ने के लिए यदि कुछ भी किया जाएगा, तो वह इस मैं के एहसास को और भी मजबूत करेगा।
मैं का होना ही आत्म सम्मोहन है, संबंध में इस तथ्य का पता चले, और इसके साथ कोई छेड़छाड़ ना हो, तो आत्म सम्मोहन टूट जाएगा। क्या आप इसके लिए राजी हैं कि आत्म सम्मोहन टूट जाए? आत्म सम्मोहन का ना होना, इससे जीवन में एक क्रांति का उदय हो सकता है, आपके सारे ढर्रे, सारी मान्यताएं, टूट सकती हैं।
उपस्थिति और मौजूदगी से आपका क्या तात्पर्य है?
यह देह यहां पर है, इसके लिए मैं क्या कर रहा हूं? यह जो आकाश है उसमें इस देह को बनाए रखने के लिए यह जो व्यक्ति है, वो कोई उपाय नहीं कर सकता है। इस शरीर में अपने आप को मौजूद रखने के लिए हम कुछ नहीं कर रहे हैं। इसी तरह हमारे अंदर जो मौजूदगी या उपस्थिति है, उसके लिए हमें कुछ करना नहीं पड़ता है। यह जो उपस्थिति है, यह जागी ही हुई है। उपस्थिति और जागरण एक ही चीज के दो नाम हैं। देह की उपस्थिति प्राकृतिक घटना है, चैतन्य की उपस्थिति यानी जागरण।
समस्या यह है कि हम और आप उपस्थित होने का कुछ उपाय करते हैं। जब हम होश पूर्वक जीने का संकल्प लेते हैं, तो वही एक बाधा बन जाता है। जो उपस्थिति पहले से ही है, उसको घटने का अवसर देने की बजाय, हम उपस्थिति की एक धारणा निर्मित कर रहे हैं। अनुपस्थिति आयोजित होती है, उपस्थिति या मौजूदगी हमारा स्वभाव है।
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