घियना बनारस जाय
सो नैया बिच नदिया डूबी जाय
एक अचम्भा हमने देखा
गदहा के दो सींग
उसके गले में रस्सा बाँधा
खैंचत अर्जुन भीम
एक अचम्भा हमने देखा
कुआँ में लागी आग
कीचड़ काँदो सबही जरिगा
मछली खेलै फाग
एक अचम्भा हमने देखा
बंदर दूहै गाय
दूध दही सब अपना खावे
घियना बनारस जाय
सो नैया बिच नदिया डूबी जाय।
"सो", यह शब्द भी अनूठा है, जैसे भक्ति या ब्रह्म सूत्र शुरू होते हैं, "अथातो"। "सो" ब्रहमंगम दृष्टि की तरफ संकेत करता है, यानी जो ऐसी दृष्टि देख सके और दिखा सके। "सो" यानी "इस तरह", या किसी चीज को ऐसे देखा की सब कुछ स्पष्ट दिखाई पड़ने लगा। साहेब कह रहे हैं कि जो पार लगाने वाला है, उसी में सारा जीवन डूबा जा रहा है। जीवन को पार लगाने का दावा "मैं" करता है, इसी नाव में जीवन की सारी नदी डूब जाती है। जीवन की यात्रा कभी आत्यंतिक संभावना या परम खिलावट तक पहुंच ही नहीं पाती है। जीवन की सारी नदी उस नाव में डूब रही है, जो पार लगाने का दावा करती है।
एक अचम्भा हमने देखा
गदहा के दो सींग
उसके गले में रस्सा बाँधा
खैंचत अर्जुन भीम
कबीर साहब कह रहे हैं कि एक मजेदार आश्चर्य मैंने देखा की गधे के दो सींग हैं, और उसके गले में रस्सी बांधकर के दो महायोद्धा उसको खींच रहे हैं। गधे से उनका तात्पर्य मूर्ख व्यक्ति से है। यह मन सुविधा के क्षेत्र में जब काम करता है तब तो उसकी उपयोगिता है, पर जब यह मन जीवन या संबंध के क्षेत्र में प्रवेश करता है तो यह गधा है। यदि हमारे जीवन का कर्ताधर्ता गधा यानी बुद्धि, चित्त या मन होता है, तो जीवन की जैसी दशा होनी चाहिए वैसी ही है।
दो सींग का अर्थ है द्वैत, मैं, मेरा, यानी मैं हूं और मेरा विचार है। जो मूढ़ता पैदा होती है, वह दो के रूप में पैदा होती है। गधे के सींग का अर्थ होता है आभासीय स्वरूप, जो है नहीं पर दिखता है। गधे की सींग होते नहीं हैं पर गधा जब कान खड़े कर लेता है तो ऐसा लगता है कि उसके सींग हैं। द्वैत पैदा होता है मूर्खता, आभास, प्रमाद या भ्रम से, जो है नहीं, पर फिर भी दिखता है। द्वैत का अर्थ है कि मैं अलग हूं, मेरा विचार या लक्ष्य अलग है।
कृष्णमूर्ति जी की शिक्षाओं में आता है कि मैं अपने विचार से अलग हूं, यह पहला खंड है। आप आपके विचार ही हैं, यदि आपके दिमाग में पैसा भरा हुआ है, तो आप वह पैसा ही हो, फिर वह पैसा आपके रूप में जिंदा है। मेरे अंदर जो भी संस्था, विचार अभी चल रहा है, वही मैं हूं। मेरे अंदर जो दूसरे के लिए बैर, मोह या कोई भी भाव चल रहा है, वही मैं हूं। यह एक आत्यंतिक सच्चाई है। जब प्रमाद की मूढ़ता होती है, तो यह सच्चाई दिखती नहीं है, कि मैं और मेरा विचार अलग-अलग नहीं हैं।
मैं इतना सम्मानित हो जाऊं कि मेरे जैसे कोई और दूसरा ना हो। यानी एक तरफ अर्जुन खींच रहे हैं और एक तरफ भीम खींच रहे हैं। मैं कभी अपनी तरफ खींचता हूं कभी विचार अपनी तरफ खींचता है, कभी मैं विचार पर नियंत्रण करना चाहता हूं कभी विचार मुझ पर नियंत्रण कर लेता है। विचार हमको चलाने की कोशिश कर रहे हैं, और हम विचार को चलाने की कोशिश कर रहे हैं।
घियना बनारस जाय।
एक अचम्भा हमने देखा
कुआँ में लागी आग
कीचड़ काँदो सबही जरिगा
मछली खेलै फाग
इन्हीं दोहों में व्यंग्य भी है और इन्हीं में शिक्षा भी है, इन्हीं में तथ्य भी है और इन्हीं में संभावना भी अनुस्यूत है। जीवन का जल या पोषण, जहां पर कमल खिल सकता है, वहां पर आग लगी हुई है; और हम इंसान फागुन या होली खेल रहे हैं, हम उत्सव मना रहे हैं। आश्चर्य है कि चारों तरफ कुएं में आग लगी हुई है, सारी संभावनाएं जल के मर रही हैं, और हम उत्सव मना रहे हैं। जीवन जल रहा है, कहीं से कोई अंकुर नहीं निकलता, पर हम इतने प्रमाद में हैं कि हम मस्त हैं, हमें इसकी कोई परवाह ही नहीं है।
यहां संभावना भी है कि यदि इस मैं के झांसे के प्रति होश आ जाए, जो जीवन की नदी को सोख रहा है, तो भ्रम के कुएं में आग लग जाती है। इस आग में भ्रमित जीवन को पोषण देने वाली सभी चीजें जलकर भस्म हो जाती हैं। इस तरह के जलने से जीवन की मछली वहां होली खेलने लगती है, जो असल जीवंतता है वह उत्सव मानने लगती है। एक तरफ खतरा है, और एक तरफ संभावना है। जो भी मेरे अंदर अभी चल रहा है, क्या मैं उसे बिना निंदा या स्तुति के देख सकता हूं। यथावत देखने से जीवन में एक ऐसी आग लगती है, जिसमें सब कूड़ा कचरा जल जाता है।
एक अचम्भा हमने देखा
बंदर दूहै गाय
दूध दही सब अपना खावे
घियना बनारस जाय
जो चंचल चित्त है वह जीवन की गाय दुहने का प्रयास कर रहा है। हम इस प्रयास में हैं कि बुद्धि से हम जीवन का मर्म समझ लेंगे, जो की कदापि संभव नहीं है। चित्त में उठने वाले संकल्प विकल्पों से जीवन की असली सम्यक समाधि को नहीं पाया जा सकता है। जीवन की गाय होश मांगती है, जैसे-जैसे होश बढ़ता है, तो जीवन का जो प्रसाद या दूध है, वह जीवन में उतरने लगता है।
यदि जीवन में संयोग से कुछ हासिल भी हो गया, तब भी बंदर के जैसा चित्त अपनी योजनाओं और कल्पनाओं में चलता रहता है, उसको जीवन का कुछ भी अता-पता नहीं होता है; उसी में वह जीवन की संभावना को खा पी कर पर बर्बाद कर देता है। यह मन जीवन की ऊर्जा को अपने ही क्रियाकलाप में दुरुपयोग करके बर्बाद कर देता है, उस ऊर्जा का क्या सदुपयोग हो सकता है, उसका उसको कुछ पता ही नहीं है। हमारी सारी जीवन ऊर्जा खर्च होती है, और रुपैया कमा लें, बड़े आदमी बन जाएं, लोग हमें जान जाएं, इस गुरु के अनुयायी हैं आदि, यह सब बंदरों के लक्षण हैं। यह जीवन ऊर्जा की सम्यक गति नहीं है। संकल्प विकल्प बंदरो वाली जो चित्त की स्थिति है, उसी में सारी ऊर्जा नष्ट हो जाती है।
घियना का अर्थ है जो मूल है, और अवधी भाषा में बनारस जाना कहते हैं कि जहां जाकर सब समाप्त हो जाता है। बंदर जैसा मन जीवन की ऊर्जा को तितर बितर कर देता है, और जो जीवन का मर्म निकल सकता था, जो अप्रमाद को अवसर दिया जा सकता था, कोई विराट संभावना जो आ सकती थी; वह काल या मृत्यु को प्राप्त हो जाती है। जो अंकुर था हमारे भीतर, वह बिना पुष्पित पल्लवित हुए चिता में जल जाता है।
इसी पद में शिक्षा भी है कि यही बंदर जीवन की गाय दुह भी सकता है। यही मन जब देख ले की वो जीवन या संबंध के संदर्भ जो भी कुछ करता है, उसके करने से सभी कुछ और भी बिगड़ जाता है, सिवाय शमशान घाट में जाकर के जलने के सिवा कुछ नहीं मिलता है; तो यही मन एक माध्यम बन जाता है जीवन की गाय का दूध जीवन में उतरने के लिए। उसके बाद भी घियना बनारस जाता है, पर वह फिर वहां मुक्ति के लिए जाता है। मन जब यह समझ लेता है कि मैं जो कुछ भी करूंगा वह विनाश की तरफ ही ले जाता है, तो जीवन का जो प्रसाद है वह प्रकट होना शुरू हो जाता है।
जब बंदर जाग जाता है तो वह दूध दही भी खाता है, मन ही अशोक हो जाता है, फिर उसे दुख नहीं होता, और उसका अंत अपने आप सहज रूप से ही मुक्ति की ओर चला जाता है। तब उसकी मुक्ति सिद्ध हो जाती है, जब तक वह जीता भी है, वह जीवन मुक्त हो जाता है। जब तक जीवित है वह मुक्त होकर के आनंद से जीता है, और फिर से इस संकल्प विकल्प के दलदल में नहीं लौटता है। पहले उसकी नाव में जो नदी डूब जाती थी, जो सारा जीवन मुरझा जाता था, फिर ऐसा नहीं होता है। फिर उसकी नाव पार लग जाती है, फिर उसका जीवन उस ओर निकल जाता है जो अलंघ्य, अज्ञेय, अविनाशी, और अकाल है।
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