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क्या हम वास्तव में जानते हैं कि सत्य क्या है?(ध्यानशाला, सुबह का सत्र, 22 अक्टूबर 2024)

Ashwin

ध्यानशाला, सुबह का सत्र, 22 अक्टूबर 2024


किसी ने फल चखा होगा, तो उसकी व्याख्या को ही सुनकर बाकी लोगों ने वैसे ही कृत्रिम फल बना लिए, और यह मान लिया कि वो जानते हैं कि वास्तविक फल क्या होता है। यदि किसी ने जीवन में असली फल का जरा सा भी स्वाद चख लिया, तो वह स्वाद पूरे जीवन में व्याप्त हो जाता है।


सम्मान पाने की चाह दीनता या दरिद्रता का ही लक्षण है। हम सब जानते हैं कि सत्य क्या है, पर क्या हम वास्तव में जानते हैं कि सत्य क्या है? हमारे भीतर चौपाल, एक बाजार सजा हुआ है कि हम पहले से ही सब कुछ जानते हैं। कोई आप्त वचन बोले, उससे पहले ही हम जानते हैं कि क्या कहा जा रहा है। हम आप्त वचन जानते हैं कि दुख है, उसका कारण है, उसका उपाय है, और दुख से मुक्ति की दशा है; पर क्या हम वास्तव में यह जानते हैं? जो व्यक्ति फल के बारे में खूब जानता है, वो उसके स्वाद को नहीं जान पाएगा।


कभी कभी हम अपने को ऐसे पाते हैं, जब स्थिति आर या पार की है। पर पार वह है जिसे देखा, या बुद्धि से जाना नहीं जा सकता है। आर वो है, जो अभी हम आप जी रहे हैं। क्या बिना योजना बनाए, आर को भंग किया जा सकता है? यदि कोई पूर्व निर्धारित लक्ष्य या योजना है, तो हम एक ख्याल से दूसरे ख्याल में ही गति कर रहे हैं।


इस आर से उस पार, आर या पार में, जो ये 'या' निर्मित होता है, वो एक तिलस्म है। आर की समझ में ही आर का विसर्जन है, और यहीं वो है, जो पार है।


जरा गौर करिए जिसे हम प्रेम, मित्रता, सम्बन्ध कहते हैं, उनमें कोई गहराई नहीं है, इसलिए इनको हमने बहुत महत्व दिया हुआ है। जिससे हम प्रेम या मित्रता करते हैं, उसे ही हम नष्ट भी कर देते हैं।


हम समझते हैं बाकियों का होगा, पर मेरा प्रेम झूठा नहीं हो सकता है। जो भी चीज सोची जा सकती है, वो चीज ठीक अपने विपरीत को साथ में लिए जा रही है। जिसका हमको आपको पता चलता है, या पता चल सकता है, वो प्रेम नहीं हो सकता है। बुद्धि में चल रही है समझ, असल समझ नहीं है, समझ सीधे जीवन में उतरी हुई क्रिया है।


जिसे हम परिवार, धर्म कहते हैं, उस के पीछे एक गहरा आरोपित संस्कारित ढर्रा मौजूद है। जो भी हम सोच सकते हैं, वो पावन नहीं है। जरा आंकड़े बदल दीजिए, फिर देखिए सम्बन्ध, प्रेम का क्या होता है।


जो प्रज्ञा को प्राप्त हुआ है, उसका उसको खुद भी पता नहीं चलेगा। बुद्ध पुरुष जब चले जाते हैं, तब हमें पता चलता है कि वो बुद्ध थे। कबीर, रमन महिर्षी की शिक्षा हमें आप्त करने के लिए बहुत है, पर हम तो उनसे भी ज्यादा जाने हुए बैठे हैं, हम उनको सही से सुनते ही कहां हैं।


क्या ऐसा संभव है कि हमने सुना पर कुछ भी उसको प्रोसेस नहीं किया? ये जो भी व्रत से लेकर क्लेश तक है, इन सबमें जीवन कहीं नहीं है। मैं जो कुछ भी कर रहा हूं, उसमें जीवन नहीं है। पार तब शुरू होता है, जब पार का कोई ख्याल है। आर और आर को जो समझना हो रहा है, और पार, ये अलग अलग बातें नहीं हैं, यह एक साथ घट रहा है।


इस चित्त के धरातल पर अब तिल भर भी उम्मीद नहीं बची है। यदि हम सच में समझ रहे हैं, तो कुछ नहीं समझ रहे हैं। यदि हम समझ करके कुछ नहीं समझ रहे हैं, तो हम सही समझ रहे हैं। क्या ऐसा संभव है कि मर्म उतर जाए, पर उसका हमें पता ही ना चले। यदि ठीक से सुन नहीं रहे हैं, तो समझ भी नहीं पाएंगे। पार को हम जान नहीं सकते हैं, इसलिए "या" एक तिलस्म है।


पता होना पता ना होना, ये सब चित्त में घटने वाली बातें हैं। कुछ भी हम सोच रहे होंगे, तो हम चूक जाएंगे। चूकिए मत, नहीं तो ये बहुत बड़ा नुकसान हो जाएगा।


सत्य विपरीत को समाप्त कर देता है, वह विपरीत से पार की बात है, जबकि बुद्धि विपरीत का अतिक्रमण नहीं करती है, बुद्धि के लिए विपरीत जीवन है। सत्य में द्वैत है ही नहीं।


जो जीवन हम जी रहे हैं, उसको परखिए, जांचिए, कि कैसे आंकड़े हमको तय कर रहे हैं। वो जीवन क्या है, जो सभी आंकड़ों, सोच विचार से मुक्त है? क्या हमने देखा है कि जब हम सच में संबंधित होते हैं, तो विचार गिर जाते हैं। यदि होश है तो बिना सोचे, सीधे कर्म घट जाएगा, बाद में उसकी रिपोर्टिंग होती है, जैसे सांस, सोच विचार के अंदर बाहर नहीं आ जा रही है।


आभासीय धरातल के आधार पर हमारे सारे कर्म हो रहे हैं। जो भी हम सोच सकते हैं, जो भी सोचा जा सकता है वो सोचा जा रहा है, पर जीवन रीता, खोखला है। हम बस सुदामा की तरह, अवलोकन रूपी कृष्ण से, बस थोड़ा सा बचाते चले जा रहे हैं। यहां कुछ भी बचाया तो चूक हो जाएगी।

 
 
 

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