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Ashwin

तजि दे बुधि लरिकैयाँ खेलन की - कबीर उलटवासी का मर्म (अरण्यगीत) - धर्मराज



त्यज दे बुधि लरिकैयाँ खेलन की।

 

१) करो जतन सखि साईं मिलन की।

 

गुड़िया गुड़वा सूप सुपलिया,

त्यज दे बुधि लरिकैयाँ खेलन की।

 

देव पितर औ भुइयाँ भवानी,

यह मारग चौरासी चलन की।

 

ऊँचा महल अजब रंग बँगला,

साईं की सेज वहाँ लागी फुलन की।

 

तन मन धन अर्पण कर वहाँ,

सुरत सँभार पर पैयाँ सजन की।

 

कहैं कबीर निर्भय होय हंसा,

कुंजी बता दो ताला खोलन की।

 

२) कहैं कबीर निर्भय होय हंसा।

 

हंस का रूपक कबीर साहब ने इस्तेमाल किया है, जिसका अर्थ है कि जो दूध को पी लेता है और पानी को छोड़ देता है। अध्यात्म में भाव के रूप में जो बाधा बनती है, उसे हम भय नाम दे सकते हैं। हम एक आयोजित चीज पर भरोसा करते हैं, इसलिए भय बनता है। जिस चीज के आयोजन से हम भय मिटाना चाहते हैं, वह आयोजन ही भय का कारण बन जाता है। हम पैसा कमाते हैं ताकि भय ना रहे, और पैसा ना खो जाए, यह भय बन जाता है।

 

करो जतन सखि साईं मिलन की।

 

कबीर साहब उस अज्ञेय को साईं कहते हैं जो भय से पार है। साईं से मिलन ही एक जतन या यत्न है, जो करने जैसा है।

 

३) गुड़िया गुड़वा सूप सुपलिया,

त्यज दे बुधि लरिकैयाँ खेलन की।

 

गुड्डे गुड़िया, बांस के खिलौनों का खेल बहुत हो गया, कहां बचकानी चीजों में हम अटके हुए हैं, अब बड़े हो जाओ। कबीर साहब कह रहे हैं कि जिसको आप सार समझते हैं, वह वास्तव में निसार है।

 

इसका एक दूसरा मर्म है कि जो हमारे अंदर छवियां चलती रहती हैं, उसको कबीर साहब गुड्डे गुड़ियों का खेल कह रहे हैं। बाहर जो खेल चल रहा है, वह भीतर चल रहे गुड्डे गुड़ियों के खेल का एक ही एक प्रसार है। बाहर जब हम किसी को अपना या पराया कहते हैं, तो वह जो ढंग है, वह भीतर के गुड्डे गुड़ियों के खेल से आता है। मौलिक या भौतिक रूप से बाहर तो सिर्फ इंसान है, बाहर सिर्फ अटूट निसर्ग है, प्रकृति है।

 

कबीर साहब कहते हैं कि जो बचपन की लड़कपन की बुद्धि है, वह अभी तक भी विकसित नहीं हुई है। बचपन में हम मिट्टी या प्लास्टिक के गुड्डे गुड़ियों से खेलते थे, बड़े हो जाने पर वही बुद्धि इंसानों को गुड्डा गुड़िया बना करके खेलती है। हमारे भीतर क्या अभी भी वही नहीं चल रहा है, कि यह मेरा गुड्डा गुड़िया है, यह मेरा खिलौना है, जैसे मेरा पैसा, मेरा मान सम्मान, मेरा रुतबा, मेरा सुख, मेरी शांति, मेरा देश, जाति। दूसरों को देखते हुए दर्पण में, अपने अंदर इस तरह की बहुत सारी चीजें दिखाई देती हैं।

 

साहब कहते हैं की बहुत लड़ाई झगड़ा कर लिया, कब परिपक्व होओगे? किसी भी खेल में हाथ में लगेगा भी क्या? खेल भीतर चल रहा है, और बाहर उसका प्रसाद दिखता रहता है।

 

४) देव पितर औ भुइयाँ भवानी,

यह मारग चौरासी चलन की।

 

कबीर साहब कहते हैं कि हमारे देवी, देवता, आकाश, पितृ भी खेल ही हैं, इनको पूजना भी एक तरह से खेल ही है। कई तरह के दबाव और प्रभाव में हमारे अंदर वह छवियां और आग्रह निर्मित हो जाती हैं, और उन्हीं आग्रहों का हम अनुकरण करते हैं। कोई एक विशेष तरह का आकार तुम्हें दिखाई दे, तो वह तुम्हारा है, नहीं तो वह पराया है। वही बचपन के लड़कपन की बुद्धि, छवियों के आधार पर हमारे अंदर चल रही है। छवियों के आधार पर केवल रुपया पैसा संबंध, ही निर्धारित नहीं हुए हैं, हमारे देवी देवता पितृ, हमारा स्वर्ग नर्क सभी कुछ, केवल छवियों के आधार पर ही निर्धारित हुआ है। भुइयाँ का मतलब जमीन, और भवानी यानी उसकी मालकिन,  यह सब भी उन्हें छवियों के आधार पर निर्मित हुए हैं।

 

५) ऊँचा महल अजब रंग बँगला,

साईं की सेज वहाँ लागी फुलन की।

 

कबीर साहब जब ऊंचा कह रहे हैं, तो वह किसी के सापेक्ष बात नहीं कर रहे हैं, वह निरपेक्ष की तरफ इशारा कर रहे हैं। उसका घर सबसे बड़ा है और उसके सापेक्ष कुछ नहीं है, तो जो कुछ भी है वह उसका ही घर है। जो भी हम हैं, जहां भी हम हैं, वह उसी का घर है; जो क्षुद्रता है उसके विसर्जन की वह बात कर रहे हैं। यदि वह सबसे बड़ा है और वह सब जगह व्याप्त है, तो हमारी निजता भंग हो जाती है; क्योंकि जब वह निरपेक्ष रूप से बड़ा है, तो हमारा कोई अलग निजी व्यक्तित्व है ही नहीं।

 

उसका रंग ढंग अनूठा और बेजोड़ है, जिसकी आप किसी भी चीज से तुलना नहीं कर सकते हैं। वह हमारी बुद्धि में नहीं समा सकता है, इसलिए अजब है। साईं का जो निवास है, उसको बुद्धि के सामर्थ्य में पकड़ा नहीं जा सकता है। जो लड़कपन की बुद्धि है उसके रंग को अच्छी तरह समझ करके, उसके विसर्जन में वह जो साईं का रंग है, जो अनूठा है, जो परम रहस्य है, वह उद्घाटित होता हुआ पाया जाता है।

 

जहां पर वह विराजमान है, जो उसका होना है, उसकी सेज फूलों की तरह अति कोमल है। वह जितना विराट है, और उतना ही कोमल भी है। वह ऐसा कोमल है, जिसमें कठोरता और कोमलता दोनों का अतिक्रमण है। बुद्धि चाहे दावा कितना भी करे, पर वह केवल कठोर को ही पकड़ सकती है; बुद्धि से जो भी चीज निर्मित होती है, वह कठोर हो जाती है। जिसे हम प्रेम समझते हैं, जिसमें हम अपनी सारी ऊर्जा डालते हैं, वह एक समय अति कठोर और निर्मम हो जाता है; इसका मतलब है कि वह प्रेम है ही नहीं। जो साईं का बेशर्त प्रेम या कोमलता है, वह कभी कठोरता में परिवर्तित नहीं होती है। उस जगह पर साईं विराजमान है, जो हमारी बुद्धि की सीमा से परे है।

 

६) तन मन धन अर्पण कर वहाँ,

सुरत सँभार पर पैयाँ सजन की।

 

आत्मा की इतनी बड़ी बड़ी बात आप करते हैं पर गागर छूने नहीं देते, बड़े करारे व्यंग्य कबीर साहब ने किए हैं।

 

हिंदू अपनी करै बड़ाई गागर छुवन न देई।

बेस्या के पायन-तर सोवै यह देखो हिंदुआई।

 

मुसलमान के पीर-औलिया मुर्गी मुर्गा खाई।

खाला केरी बेटी ब्याहै घरहिं में करै सगाई।

 

छुआछूत पैदा होता है हमारे अंदर के गुड्डा गुड़िया से, विभाजन से, अपना पराया बनाने से, निजी संपदा से। सबसे बड़ा छुआछूत है धन, आप अपने धन के आसपास किसी दूसरे को नहीं आने देते हैं, हम समझते हैं धन मेरा क्लास है। अकसर बहुत से धार्मिक, आध्यात्मिक लोग अति कृपन (कंजूस) होते हैं, वो बुद्धि से काम करते हैं, वो उसको ढकने के लिए धर्म का सहारा लेते हैं; एक साधारण व्यक्ति अधिक उदार हो सकता है। यह एक तरह से बौद्धिक छुआछूत है।

 

कबीर साहब कहते हैं यदि आप धन हैं, यदि आपके जीवन की प्राथमिकता धन है, तो उसे ही अर्पण करिए। यदि आप धन भी अर्पित नहीं कर सकते तो आप मन क्या अर्पित करेंगे, आप बस ढोंग कर रहे हैं। यदि आपके जीवन के केंद्र में धन व्याप्त है, तो आप कैसे गलेंगे, आप आर्थिक छुआछूत के शिकार हैं।

 

सुरत सँभार पर पैयाँ सजन की - वह इशारा यदि समझ में आ गया जो उस पार का है, वह क्या है जो हमारे चित्त का विषय नहीं है? आप कह सकते हैं कि जो चित्त में निर्धारित नहीं होता है वो होता ही नहीं है, ये बात सही नहीं है। पर यदि उत्तर नहीं आया, तो चित्त विसर्जित होने लगेगा, उन क्षेत्रों में जिनपर उसने अनाधिकृत रूप से कब्जा किया हुआ है; और चित्त के पार की चीज वहां जगह लेने लगेगी। मन बुद्धि चित्त अहंकार, मैं के एहसास, सोच विचार, मेरी सजगता, मेरी असजगता आदि इन सबके पार का जो इशारा है, वो जगह लेने लगेगा।

 

सुक्ष्म में भी जो मैं सोचता समझता या जानता हूं, वो बिल्कुल ना-कुछ है, वो यथार्थ नहीं है, वो आभासीय है; जबकि अस्तित्व अति विराट है। मैं सिर्फ क्लोन को ही समझ सकता हूं, क्योंकि मैं खुद ही क्लोन हूं। इस समझ के साथ जिस तरफ जीवन की धारा का रुख या दृष्टि मुड़ गई, वो अज्ञेय है, उस ध्यान की धारा को साहेब "सुरती" कह रहे हैं। जहां ज्ञात और अज्ञात की पकड़ गलने लगी, उस सुरती को संभालो। यहां यह समझ लिया गया कि असंभव प्रश्न का उत्तर बुद्धि में नहीं आ सकता और मन चुप है; मन गलना शुरू हो गया, वहां सुरती संभल गई।

 

पैर छूने का अर्थ है कि जो मेरा सबसे श्रेष्ठ है, उसे उसके सबसे निचले हिस्से पर रखता हूं, सामने कौन व्यक्ति है वह बात ही गौण है। जब बुद्धि कहती है कि मैं सब जानता हूं, और आप उसको भी समर्पित करने के लिए तैयार होते हैं, उसका जो भौतिक रूप है वह है पैर पड़ना। सजन यानी वो जो इस बुद्धि की पकड़ में नहीं आ सकता है। सुरती या उसी सजन के पांव पड़ना, यानी अहंकार या खुद को विसर्जित करने के लिए तत्पर होना।

 

कबीर साहब एक साथ दोनों बात कर रहे हैं, यह भक्ति और ज्ञान की पराकाष्ठा है। एक तरफ वो कह रहे हैं होश को अवसर दीजिए और दूसरा अर्पित हो जाइए। सुरती संभालने में आप अपने आप को ध्यानी या ज्ञानी समझ सकते हैं, उस खतरे से बचाने के लिए साहेब कह रहे हैं, कि उस होश में, जिसमें अज्ञेय का पदार्पण होता है, उसमें समर्पित या विसर्जित हो जाइए।

 

७) कहैं कबीर निर्भय होय हंसा,

कुंजी बता दो ताला खोलन की।

 

एक इतनी पावन बात पूर्व में विकसित हुई, जिसको बचाने के लिए उसमें इतने सारे खतरे लेना भी शुभ है; वह है - कुंजी बता दो ताला खोलन की।

 

जो जल बाढ़े नाव में, घर में बाढ़े दाम । दोनों हाथ उलीचिए, यही सयानो काम।।

 

जरा सा भी ध्यान या प्रेम की झलक आई, तो उसे बिल्कुल बांटिए। जरा सी भी कीमिया या कुंजी हाथ में आई, कि इस लरिकैयाँ, यह झांसा जो जीवन के नाम पर चल रहा है, उस का ताला कैसे खुलता है, तो उसे अवश्य बांटिए। बुद्ध कहते थे, जब ध्यान से उठिए तो अपना ध्यान बिखेर दीजिए, पूरे अस्तित्व में। यद्दपी यह खतरा है कि दूसरे को बताने में बड़ा रस आता है, हमें यह भ्रम हो सकता है कि हम जानते हैं, पर फिर भी यदि ध्यान जरा सा भी घटा है तो उसे बांटिए, उसे बिखेर दीजिए। जहां भी जरा सा भी कोई पात्र दिखे, तो उसके चरणों में सर रखकर उससे निवेदन करिए की कृपया इस कला को ग्रहण करिए।

 

जैसे जैसे आप इस रहस्य को बांटते चले जायेंगे, आप पाएंगे कि यह आपके जीवन में दिन दूना रात चौगुना फैलने लगा है। वह जो अज्ञेय की सुरती है, वो अपने आप उतरने लगी है, वो सुरती अपने आप संभली संभली जाती है। वह जो माथा है, वो पांवों पर अपने आप विसर्जित हुआ चला जाता है। अचानक से आप पाएंगे कि वो जो गुड्डे गुड़ियों का खेल है वो आपके जीवन से विदा हो गया। कबीर साहब कह रहे हैं कि गुड्डे गुड़ियों के खेल को छोड़ने के बजाय, परिपक्व होइए, होश संभालिए और अज्ञेय की तरफ अपने जीवन को झोंकते चले जाइए। जो जाना पहचाना जा सकता है, वो कहीं नहीं ले जाता है, वो तो बुद्धि संस्कारों की उपज है; इस समझ से वो जो अजब रंग बंगला है, उस तरफ नजर अपने आप फिरती चली जायेगी। साहेब कहते हैं, परिपक्व होइए और करो जतन सखि साईं मिलन का। कुछ जतन करने जैसा यदि यहां यदि है, तो वो है साईं से मिलन का जतन करना; और सब कुछ यहां व्यर्थ है।


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