१) तोहि रोकन वाला कौन।
तोहि रोकन वाला कौन,
मगन से जाव चली।
चिउटी चाली सासुरे,
नव मन काजल लाय।
हाथी वाक़ी गोद में,
ऊँट लिया लटकाय।
अंडा था तब बोलता,
बच्चा बोलत नाहिं।
षड् दर्शन संशय पड़ी,
जीवों को ग़म नाहिं।
पहिले दही जमाइए,
पीछे दुहिए गाय।
बछड़ा वाक़े पेट में,
माखन हाट बिकाय।
पहिले तो मैं जनमिया,
पीछे बड़ा भाई।
धूमधाम से बाबा जनमे,
पीछे मोरी माई।
कहैं कबीर सुनो भाई साधो,
यह पद को अर्थाओ।
यहि पद को जो बूझ चलत है,
वही मोक्ष को पाओ।
२) कबीर साहेब एक ऋषि हैं जो एक ऐसी कीमिया या दवा साझा कर रहे हैं, जो पूरे जीवन को रूपांतरित कर देती है। इस पद के साथ यदि रहा जाए तो इसका मर्म जीवन में प्रकट हो जाता है। अर्थाओ का मतलब है इन पदों का जीवन में उतर जाना; यह कोई धारणा नहीं रह जाती है, यह हमारे जीवन का सच हो जाता है। इन पदों में कबीर साहब ब्राह्मण धर्म का संदेश दे रहे हैं, जिसका अर्थ है कि सत्य सदा ही उपलब्ध है। जबकि श्रमण धर्म कहता है कि हमें उसे पाने के लिए उद्यम करना पड़ेगा, यानी जीवन में दुख को दूर करने के लिए साधना करनी पड़ेगी।
भक्ति यानी जो बंटा हुआ नहीं है, जीवन जैसा है वैसा ही निर्विकल्प स्वीकार है। इस पद में यथावत ज्ञान और भक्ति की पराकाष्ठा का अद्भुत संगम है। यहां अंतिम छलांग की बात कही जा रही है। कबीर साहेब ने ज्ञान और भक्ति में डुबकी लगाई, जिया भी, कहा भी, गाया भी, शिक्षा भी दी, और इस अनोखे तरह से प्रस्तुत किया की उसका अर्थ उसको जीकर ही समझ में आ सकता है। इस तरह से उन्होंने विद्वानों, थोथे ज्ञानियों को दूर रखा है। कबीर साहब ने शास्त्रों के आप्त प्रमाण नहीं लिए, जो खुद ही जी रहा है वह जिस चीज को भी छूएगा, वह खुद ही एक प्रमाण हो जाएगा।
३) तोहि रोकन वाला कौन, मगन से जाव चली।
यहां कबीर साहब ने रूपक लिया है कि कोई युवती, मायके से अपने ससुराल जाना चाहती है। मायके का अर्थ है जिस तरह का धारणाओं, संस्कारों से युक्त जीवन हम जी रहे हैं। साहब कहते हैं यह जीवन है ही नहीं, और तुम्हें यहां रोकने वाला कौन है तुम तो आनंदित हो करके वहां चली जाओ। आगे के पदों में वह बताते हैं कि किस वजह से हम रुक जाते हैं, क्या बाधाएं हैं, हमारा उस तरफ जाने के लिए, उस मूल जीवन को पाने के लिए, जो प्रेम का मूल स्वरूप है, जो सम्यक है।
४) चिउटी चाली सासुरे, नव मन काजल लाय।
हाथी वाक़ी गोद में, ऊँट लिया लटकाय।
कबीर साहब कहते हैं कि चींटी जो है वह ससुराल जाना चाहती है, लेकिन हाथी को गोद में ले रखा है। हाथी एक रूपक लिया गया है, कामवासना, तृष्णा, महत्वकांक्षा के लिए। मानसिक कामनाएं की संसार में या अध्यात्म में कुछ मिल जाए। मैं वास्तव में कामना का ही दूसरा नाम है। हमारा सामर्थ तो बहुत छोटा सा है, पर हमारी कामनाएं बहुत बड़ी हैं। सबसे पहले यह देखें कि वह कौन है, जो कामनाएं करता है? यथार्थ जीवन में कामना जैसा कुछ होता ही नहीं है, एक आभासीय जीवन में हम कामना इकट्ठा करते रहते हैं।
शरीर प्रकृति के साथ जुड़ा ही हुआ है, पर आभासीय स्तर पर हम अपने आप को कुछ अलग समझते हैं, और कुछ होना चाहते हैं। यथार्थ रूप में मान सम्मान, पद प्रतिष्ठा, संपन्नता, समृद्धि जैसी कोई चीज होती ही नहीं है। वह समृद्धि जो यथार्थ के धरातल पर है, उसको हम जानते पहचानते ही नहीं हैं। किसी का सामर्थ चींटी जैसा है तो वह हाथी को गोद में लेकर के ससुराल कैसे जा सकता है, यदि जाएगा भी तो सपने में ही जाएगा। सत्य तो उपलब्ध ही है, यह हमारी कामनाएं हैं, जो उस तक पहुंचने में बाधा बन जाती हैं।
नव मन काजल लाय - नव मन का अर्थ है बहुत बड़ी मात्रा में कुछ होना। काजल का अर्थ है आंखों को सुंदर बनाना, यदि किसी चीज को हम रंग करके देखते हैं, तो सही चीज नहीं दिखाई पड़ेगी। दूसरे पर जब हमारी दृष्टि होती है, तो हम काजल लगाते हैं, कि हमें सुंदर देखा जाए। आंखों को जरूरत नहीं है काजल की, पर दूसरे हमें सुंदर समझें, इसलिए हम बहुत सारा काजल लगा लेते हैं। दुनिया का सबसे बड़ा सम्मान, धन, ऐश्वर्य मुझे मिलना चाहिए। किसी भी सम्मान का मतलब तभी तक है, जब तक दूसरा कोई है। यदि ऐसी स्थिति है, तो सत्य में प्रतिष्ठा नहीं हो सकती है; तो जो ससुराल बना ही हुआ है, वहां आप जा नहीं सकते हैं।
हमने अपने को जाना तो है नहीं और मान करके बैठे हुए की हम बहुत बड़े हैं। चींटी या मैं तो वास्तव में है भी नहीं, और कल्पना करते हैं कि हमें कुछ बनना है। मैं तो क्षणभंगुर है और उसकी हैसियत ही क्या है, हमारे जैसे करोड़ों जीव इस पृथ्वी पर आकर चले गए हैं, जिनका कुछ अता पता ही नहीं है। उन सब की भी यही आकांक्षा रही होगी कि नौ मन काजल लगाकर और हाथी को गोद में लेकर के ससुराल जाएं।
ऊँट लिया लटकाय - ऊंट यानी जो ऊपर ही देखता है, अहंकार या मैं, उसको हमने अपने गले में लटका लिया है। जबकि खुद को ऊपर रखना यह सबसे छोटी, क्षुद्र बात है। जब आप अपने आप को ऊपर रखते हैं, तो जो रित है, उसको आप पीछे कर देते हैं। यानी जो श्रेष्ठ, विराट अस्तित्व का स्वभाव है, जहां पर हम पैदा होते हैं, और जहां पर हम विलीन हो जाएंगे, उसको अपने पीछे कर दिया; और हम उसके आगे हो गए।
५) अंडा था तब बोलता, बच्चा बोलत नाहिं।
जब तक सत्य की झलक नहीं है, तब तक हमारे अंदर बहुत सारे रूपक होते हैं, सत्य या संबंध को लेकर के। जैसे कि यह जीवन का सही तरीका है, यह गलत बात है, यह धर्म है या यह अधर्म है; यह सब तब तक ही है जब तक हम जीवन के सामने उपस्थित नहीं हुए हैं। हमारी सोच विचार अंडे की तरह है, अंडे के भीतर से हमें दिखाई नहीं पड़ता है। जैसे ही जीवन में थोड़ा सा भी सम्यक दर्शन का, भक्ति का प्रवेश होता है, तब पहली बार दिखाई पड़ता है कि हम जो भी सोचते हैं समझते हैं, वह जीवन नहीं है।
जीवन उसके लिए अपने द्वार खोलता है, जिसने अपने बुद्धि और अहंकार की सीमा देख ली है। जैसे ही निसर्ग में जन्म हुआ, तो संत मौन हो जाते हैं, उनके सारे मजबूत आग्रह गिर जाते हैं। संत सत्य के संदर्भ में कुछ नहीं कहता है। कबीर साहब सत्य के बारे में कुछ नहीं कह रहे हैं, बल्कि जो सत्य नहीं है, जो मायके में बंधन हैं, उस पर टिप्पणी कर रहे हैं। ईश्वर है, या ईश्वर नहीं है, यह दोनों बातें ही समाप्त हो जाती हैं, क्योंकि उनको अपनी सीमा समझ में आ जाती है। मैं जो एक सोच विचार का उत्पाद है, वह विराट अस्तित्व, अपरिमेय, अज्ञेय की व्याख्या कर रहा है। जैसे ही आपके जीवन में कुछ विराट आता है, तो आप मौन हो जाते हैं।
षड् दर्शन संशय पड़ी, जीवों को ग़म नाहिं।
षड दर्शन यानी देखने का तरीका, जैसे सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदान्त, में सत्य नहीं पाया जा सकता है। सच्चा दर्शन है अपनी तरफ सीधा-सीधा देख लेने में, की अभी मैं क्या हूं। आज के दिन तो अनेकों देखने के ढंग हैं, पर वो सत्य नहीं है, जैसे पैसा कमाना, नाम कमाना, परिवार का पालन पोषण कर लेना आदि। हम लोग अनेकों दर्शन में, वाद विवाद में डूबे हुए हैं और कोई परवाह ही नहीं है कि जीवन समाप्त होता चला जा रहा है।
६) पहिले दही जमाइए, पीछे दुहिए गाय।
हम लोग हर चीज को कारण और प्रभाव से देखते हैं, कि मुझे कोई बड़ा पद, नाम, पुरस्कार मिल जाए, तब मेरे जीवन में आनंद आ जाएगा। किसी शर्त के पूरा होने के बाद जीवन में आनंद आएगा। हमारे जीवन को तर्क निर्धारित करता है कि पहले गाय, फिर बछड़ा, फिर दूध, फिर दही, फिर उसके बाद मक्खन मिलेगा। आनंद बाहर से मिल भी नहीं सकता है, आनंद सर्वदा अपने अंदर से ही स्फुरित होता है।
दही जमाने में आप कुछ भी नहीं कर सकते हैं, दही अपने से जमती है जब हम कुछ नहीं करते हैं। जो जीवन का मर्म है, इत्र है, सार है, जो श्रेष्ठतम प्रसाद है वह पहले से ही, अभी ही, उपलब्ध है। यही भक्ति है, या ब्राह्मण धर्म है, कि जो है जैसा है, वह वैसा ही निर्विकल्प रूप से स्वीकार है। उसमें मेरा कोई हस्तक्षेप नहीं है, बस दही के जमने को अवसर दिया गया है। पहले परिणाम है, बाद में कारण आता है। जीवन या प्रेम का संबंध, पहले ही उपलब्ध है। जिन संबंधों को हम बनाए रखने के लिए बहुत उपाय करते हैं, वह तो संबंध है भी नहीं; जो सच्चा संबंध है वह तो सदा ही उपलब्ध है।
जब हम कहते हैं कि "मैं हूं", तो यह कहना, या जीवन हमें प्रसाद रूप में ही मिला हुआ है। यदि हम समझते हैं कि जीवन कभी बाद में आएगा, तो वह एक भ्रम मात्र है; प्रेम, मुदिता, आनंद, अभी प्रचुर मात्रा में अभी भी उपलब्ध है। यदि हम जीवन का उत्सव अभी नहीं मना सकते, और सोचें कि कुछ हो जाएगा भविष्य में जिसके बाद हम उत्सव मनाएंगे, तो वह सब काल के गर्भ में है, और काल का गर्भ बड़ा होता जाता है। ऐसा भी नहीं है कि मैं कुछ तिकड़म लगा करके संबंध बनाने के बाद, अकेलेपन से मुक्त होऊंगा। सकल अस्तित्व के साथ संबंध पहले से ही बना हुआ है।
पहले होश को अवसर दीजिए, फिर होश में कर्म होने दीजिए। फिर आप संबंध बनाने के लिए या अपने आप को और अधिक समृद्ध बनाने के लिए कर्म नहीं कर रहे हैं। जीवन का महा प्रसाद उपलब्ध ही है, हमारे कर्म बस खेल हैं। अभी ऐसा लगता है कि यह सब कर्म बहुत गंभीर काम है, और यदि हम यह नहीं करेंगे तो हम अवसर से चूक जाएंगे। अभी हम अपने को बनाए रखने के लिए, दिखावे के लिए कर्म कर रहे हैं; पर यदि जीवन उपलब्ध ही है, तो हमें जीवन या संबंध के लिए कुछ नहीं करना है।
बछड़ा वाक़े पेट में, माखन हाट बिकाय।
इस तरह से होशपूर्वक किए गए कर्मों से कुछ ना कुछ जन्म, पैदा या सृजन होता है, जो इस अस्तित्व को और सुंदर बना देता है। इंसान भी एक फूल की तरह खिल सकता है, और इंसान जब खिलता है तो वो अद्वितीय होता है। इस तरह जो नवनीत है जीवन का, उसको बेचने की जरूरत नहीं पड़ती है, वह चारों तरफ फैलता चला जाता है। कबीर साहब की रोशनी को बुझाया नहीं जा सकता, वह अलौकिक है। तब नवनीत बंटता है, जब हम नहीं होते हैं, जब जीवन में मौलिक जगह पाता है।
७) पहिले तो मैं जनमिया, पीछे बड़ा भाई।
धूमधाम से बाबा जनमे, पीछे मोरी माई।
महर्षि रमण कहते हैं कि पहला जो विचार है, वह मैं का विचार है। जैसे ही गर्भ में बच्चा आता है, वैसे ही मां का जन्म होता है। यहां कबीर साहब का मैं से इशारा अहंकार की तरफ नहीं है, पर वह जो मौलिक अनबना स्वरूप है, जो बनावटी नहीं है, सबसे पहले उसका जन्म होता है। सृजन पहले पैदा हो जाता है उसके बाद सृजनकार पैदा होता है। यानी वह जीवन महत्वपूर्ण है जो बनावटीपन से मुक्त है। जो मौलिक स्वरूप है उसमें मैं जैसी कोई चीज होती ही नहीं है।
सत्य हमेशा विरोधाभास में होता है। कबीर साहब कह रहे हैं कि पहले मेरा जन्म हुआ, या फिर पहले मैं डूबा उसके बाद सृजन हुआ। बड़े भाई के रूप में उन्होंने बुद्धि की तरफ इशारा किया है, जो हमें रास्ता दिखाती है। साहब उस तरफ इशारा कर रहे हैं, जो मूल है, जो अनबना है, जो विचार का उत्पाद नहीं है। यदि उस तरफ दृष्टि है, तो बहुत आसानी से ससुराल की तरफ आगे बढ़ते चले जाते हैं। सत्य सदा मिला ही हुआ है, जो झूठ है वह ऊपर से आयोजित होता है। मैं बाद में पैदा होता हूं, मौलिक जीवन सदा उपलब्ध ही है।
यदि मेरे अंदर कुछ भी तृष्णा या आकांक्षा शेष है, तो मैं ससुराल नहीं जा पाऊंगा, क्योंकि जो भी मैं चाहूंगा वह हाथी बनकर गोद में बैठ जायेगा। मेरी मुक्त होने की आकांक्षा ही मेरे लिए एक बंधन बन जाती है।
८) कहैं कबीर सुनो भाई साधो, यह पद को अर्थाओ।
यहि पद को जो बूझ चलत है, वही मोक्ष को पाओ।
साहब कहते हैं कि जीवन में इस पद के मर्म को घटने दो, इसको जीवन में उतरने का अवसर दो। यहां समझ की बात नहीं हो रही है, बल्कि जो असल जीवन में, संबंधों में, आचार व्यवहार है, वहीं पर काम किया जा सकता है। बूझना जीवन में उतरने से निकल कर आ सकता है, समझना बुद्धि से पैदा होता है। इस पद को जो जीवन में उतारता हुआ चलता है, वो मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। बुद्ध ने भी कहा कि मुझे वही मिला, जो पहले से ही मिला हुआ था, बस उस पर जो बदली छाई हुई थी वह छंट गई, नया कुछ नहीं मिला।
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