उलट सियार सिंह को खाय
जब लगि सिंह रहै बन मांहि
तब लगि वह बन फूलै नाहि
उलट स्यार सिह को खाय
तब वह बन फूलै हरियाय
ज्ञान के कारन फूलै बनराय
फल लगे पर फूले सुखाय
मृगा पास कस्तूरी बास
आप न खोजै खोजै घास
'ना कुछ' होने का सियार, होने के सिंह को खा लेता है।
किसी भी तथ्य का सत्य उसके सभी भ्रमों, दुविधाओं और सम्मोहनों से मुक्त करता है। यदि सत्य को बस देखा गया तो जितने भी झूठ हैं, उन पर प्रकाश पड़ जाता है। रात के रानी के फूलों की सुंदरता उसके नाम में नहीं है, हमारी करी हुई प्रशंसा में नहीं है। एक फूल की गंध वहीं है जहां वह जीवंत रूप से खिल रहा है, हमारे द्वारा उसको दिए गए नाम में गंध नहीं है। जीवंत फूल के सत्य का दर्शन उसके ऊपर आरोपित जितने भी हमारे भ्रामक ढंग हैं, वह उन सबको छील देता है।
सत्य का बोध हमें मुक्त करता है, ना कि सत्य के लिए किया गया हमारा प्रयास। सत्य का बोध तथ्य के ऊपर जितने भी भ्रामक चीजें हैं, उन सब को साफ कर देता है।
जब लगि सिंह रहै बन मांहि, तब लगि वह बन फूलै नाहि - जब तक एक जंगल में शेर है तब तक वह वन फलता फूलता नहीं है। जीवन के वन में जब तक अहंकार रूपी राजा, जीवन का कर्ता धर्ता या मालिक बना बैठा है, तब तक यह जीवन फल फूल नहीं सकता है। सारा समय हम अपने अनुसार जीवन को दिशा और दशा देना चाहते हैं, देते ही रहते हैं। सिंह की उपस्थिति में जीवन में कोई भी खिलावट नहीं आ सकती है। बच्चा पैदा होता है, तो प्रफुल्लित होता है, पर उम्र के साथ साथ हम हर तरह के विषाद में घिर जाते हैं।
जब तक मैं जीवन का कर्ताधर्ता हूं तब तक मैं जो कुछ भी करूंगा, वह आभासीय ही होगा, उसका यथार्थ के धरातल तक कोई प्रस्फुटन नहीं होगा। कोई व्यक्ति यदि सम्राट भी हो जाता है, तब भी उसकी तुलना उससे नहीं करी जा सकती है, जो आत्म जागृत है। इस मैं रूपी कर्ताधर्ता सिंह का जंगल से निकल जाना ही एकमात्र निदान है। कबीर साहब कहते हैं कि अब जब जीवन का फलना फूलना है, तो वहां कोई सिंह नहीं है।
उलट स्यार सिह को खाय, तब वह बन फूलै हरियाय - शेर के सामने जो कोई एक सियार सा दिखता है, शेर के सामने जिसकी कोई औकात नहीं है, जो कुछ नहीं है, जब वही पलट करके शेर को खा लेता है, तब जाकर जंगल शेर से मुक्त हो पाता है। हम हमेशा कुछ बनने की दौड़ में लगे हुए हैं, वहीं पर कुछ नहीं सा हो जाना, अपनी इस अहम की गति को समाप्त करने के लिए उद्यत या तैयार हो जाना; यह सियार के द्वारा शेर को खा लेने जैसा है।
जीवन की जो गति कुछ होने की तरफ ले जा रही है, वही गति जब ना कुछ होने की तरफ लौट जाए, जैसे ना कुछ होने वाले सियार ने शेर को खा लिया। ना कुछ होना यानी यह मांज लेना कि वह कौन है जिसको विचार आ रहे हैं, जो अनुभवों की मांग कर रहा है? जब यह प्रश्न उठाया जाता है, तो हम पाते हैं कि वहां कोई नहीं है; 'ना कुछ' होने का सियार, होने के सिंह को खा लेता है। बार - बार उस तरफ लौटने में वह अहम खत्म हो जाता है। जिस जीवन में अहंकार का प्रकोप नहीं है, उस जीवन का वन अपने आप हरा भरा होने लगता है।
जब यह सिंह देख लेता है कि मेरी उपस्थिति ही जीवन को मुरझा देने वाली है, तो वह अपने समाप्ति की ओर उद्यत होने लगता है; उसके बाद जीवन फलना फूलना शुरू हो सकता है। यह देख लेना कि अहम के द्वारा बनाए गए जितने भी लक्ष्य हैं, वह सब आरोपित हैं, यह जीवन, प्रकृति या अस्तित्व की प्रज्ञा के द्वारा बनाए गए लक्ष्य नहीं हैं। इस बात की सच्चाई को देख लेना उस तरफ गति है, जहां आपस में कोई द्वंद या टकराहट नहीं है। किसी भी तथ्य के सत्य को देख लेना, उस तथ्य के सभी भ्रमों से मुक्त होना है।
जब तक मैं जीवन को कहीं पहुंचाना चाहता हूं, तो जो अस्तित्वगत शुभ संभावना है, उसको अवसर नहीं मिल सकता है। यदि मैं जीवन का ढंग या संबंध तय कर रहा हूं, तो संबंध की वह खुशबू उद्घाटित नहीं हो सकती है, जो नैसर्गिक है। करुणा, मुदिता, मैत्री तब तक नहीं प्रकाशित होते हैं, जब तक हम किसी को चुन रहे हैं और किसी को छोड़ रहे हैं। मेरा होना जीवन को चोट पहुंचा रहा है, वह जीवन के लिए घातक है; यह तथ्य देख लेना ही शेर का अपने आप 'ना कुछ' होने की तरफ लौट जाना है। मेरी योजनाएं जीवन की धारा को कलुषित कर रही हैं, यह समझ कर मैं अपने आग्रह समाप्त करना शुरू कर देता है।
फल लगे पर फूले सुखाय।
ज्ञान के कारन फूलै बनराय - किसी भी तथ्य का सत्य जान लेना, हमें उसके भ्रम से मुक्त कर देता है। फूल को अगर मुझे उसकी वास्तविकता में देखना है, तो मुझे फूल शब्द या उसको दिए नाम से मुक्त होना होगा। किसी चीज को उसके वास्तविक रूप में जानने के लिए, उसके ऊपर नाम, रूप, गंध, आदि की आरोपित धुंध, सूचना या ज्ञान से मुक्त होना पड़ेगा। इस धुंध के छंटने से, जो मौलिक है, वह वहां पर उद्घाटित पाया जाता है। यह बोध उस धुंध को चीर देता है, जो सम्यक दर्शन में बाधा है, और जीवन का वन फल फूल सकता है।
वह सिंह जो सोच विचार के द्वारा बना हुआ है और जिसने इस जंगल पर जबरजस्ती कब्जा किया हुआ है, जब उसको 'ना कुछ' का सियार खा जाता है, तब जंगल फलना फूलना शुरू कर देता है। हमारी बहुत सारी ऊर्जा विचार प्रक्रिया में खर्च हो रही है, जब यह समझ आ जाता है कि यहां ऊर्जा जितना भी खर्च हो जाए, उससे जीवन में कोई खिलावट नहीं आ सकती है, तो ऊर्जा नैसर्गिक रूप से अपने आप उस तरफ गति करना बंद कर देगी। हो सकता है यदि हमारा हस्तक्षेप ना रहे, तो हमारे संबंध अपने आप मीठे हो सकते हैं।
फल लगे पर फूले सुखाय - एक अवस्था ऐसी भी आती है जिसमें फल जब आता है, तो सारे फूल सूख जाते हैं, यह वर्तुल का पूरा हो जाना है। एक तरफ जब ऊर्जा का अपव्यय रुका, तो जीवन में खिलावट शुरू हुई; पर जब सच में ही फूल लग जाता है, तो कुछ भी पता नहीं चलता है, यहां तक कि अपने खिले होने का भी पता नहीं चलता है। किसी भी खुशी का पता हमें तब चलता है, जब उसके सापेक्ष हमने कितना दुख झेला है, उसका हमें पता होता है। प्यास के बाद पानी पीने की खुशी लगातार बनी नहीं रहती है।
जैसे ही फल खिल जाता है, फूल खो जाता है, यानी लीला का क्रम पूरा हो गया। कबीर, मीरा के माध्यम से जितनी खिलावट हो सकती थी वो हुई, फिर शरीर पूरा हो गया; वर्तुल समाप्त होकर के अशेष या अस्तित्व में समा गया। जब फूल अपनी आत्यंतिक स्थिति, यानी फल तक पहुंच जाता है, तो फूल खो जाते हैं। यदि कोई पूर्ण बोध को उपलब्ध है, तो दूसरों को तो छोड़िए, उसे खुद भी इसका पता नहीं होगा।
जैसे ही वर्तुल पूरा हुआ वो समाप्त हो जाता है, तो हमें बुद्धत्व या बुद्ध का पता ही नहीं चल सकता है। ऐसी गाथाएं हैं कि भगवान बुद्ध स्वर्ग के द्वार पर हैं और वो कहते हैं कि मैं इसमें प्रवेश नहीं करूंगा, जब तक अंतिम व्यक्ति भी मुक्त नहीं हो जाता है। खिले हुए फूल तक, सुगंध तक तो बात कही जा सकती है, पर जैसे ही वह फल बन गया, तो उसके बारे में कुछ भी कहा नहीं जा सकता है।
हमारा चेतन मन, बुद्धि केवल फूल या खुशबू तक की संभावना को ही पकड़ सकते हैं, हम मैत्री करुणा आदि तक का अनुमान लगा सकते हैं; लेकिन यदि उसके पार की स्थिति पैदा हो गई हो, तो उसको बुद्धि से जाना नहीं जा सकता है।
फल लगे पर फूले सुखाय, यानी फिर सारे सद्गुण भी खो जाते हैं। इसको गुणातीत, विचारातीत, बोधातीत कहते हैं, जो गुणों, विचारों, पूर्ण, शून्य के भी पार की बात है।
मृगा पास कस्तूरी बास, आप न खोजै खोजै घास - मृग की नाभि में कस्तूरी होती है, जिसकी खुशबू से वह आंदोलित होता है, पर वह उसे घास में ढूंढता है। हम भी जीवन को बुद्धि, मन, विचारों में खोजते हैं। यह बुद्धि की संस्था, अवसाद या बुद्धत्व दोनों तरफ गति कर सकती है। मृग केवल घास को ही जानता है, और उसी में वह टटोलता है कि इसमें खुशबू कहां से आ रही है। हम सबके अंदर वो फूल से फल तक पहुंचने की प्यास है, पर उसे हम बाहर के संबंध, समृद्धि, यश, या बुद्धि में ढूंढते रहते हैं।
हम भी मृग की तरह बुद्धि की घास में ही खुशबू ढूंढते हैं, जो वहां है ही नहीं। यदि हम इस मैं की बनावट के प्रति जागें तो हमें पता चल सकता है कि सत्य का पुष्पित पल्लवित होना क्या है, और इस खुशबू का जीवन में अवतरण हो सकता है। कबीर साहब का सारा जीवन इसका प्रमाण है। कबीर साहब कह रहे हैं कि वो प्यास का पुष्पित पल्लवित होना उस जगह पर पहुंच सकता है, जहां पर कुछ पता नहीं चलता; उस फल तक पहुंचने में सभी तरह के फूल भी मुरझा जाते हैं।
इस पद में कबीर साहब ने अंतस की यात्रा के संदर्भ में, जो भी कुछ कहा जा सकता है, वो सभी कुछ निवेदन कर दिया है। यदि हम इस पद को हृदयंगम कर लें, पर इसको सोचें ना, तो ही शुभ है। एक फूल के दर्शन में, उसके विश्लेषण की कोई आवश्यकता नहीं होती है। मैं की संरचना, और जीवन में उसकी भूमिका का समाप्त हो जाना, फूल का सम्यक दर्शन है। इस पद में अनुस्यूत सत्य के इशारे का सम्यक दर्शन है, इसको बस जीवन में उतरने भर दिया जाए, यह परम शुभ है। इसमें जो सच है, उसको हम स्वयं जांच सकते हैं, देख सकते हैं कि मैं या सिंह, जीवन का आधार नहीं हो सकता हूं।
जीवन को कहीं पहुंचाने के प्रयास में हमने द्वंद और युद्ध पैदा किए हुए हैं। जब तक मैं जीवन का कर्ताधर्ता हूं, तो बाहर की चीजें बहुत अच्छी हो सकती हैं, लेकिन जीवन अच्छा नहीं हो सकता है। इस प्रयत्न में की मैं जीवन को और कुछ अच्छा करूं, इस जीवन की पुष्पित पल्लवित होने की संभावना ही नष्ट होती जा रही है। इस सत्य को देखने में ही यह सारा प्रयत्न या कवायद स्वतः रुक जाता है। इस कवायद के रुकने में ही जीवन पुष्पित पल्लवित होता है, और एक दिन इस पुष्पित पल्लवित का भी रुक जाना हो जाता है; वर्तुल जहां से शुरू हुआ, वहीं आकर के शून्य हो गया।
हर अनुभव अपने अनुभवकर्ता को जन्म देता है, अनुभवकर्ता ही होते हुए अनुभव को जन्म देता है; यह युगपत घटनाएं हैं। हर विचार अपने विचारक को जन्म देता है, हर विचारक अपने विचार को जन्म देता है। जब विचार आता है, तब हम पैदा होते हैं, जब हम होते हैं, तभी हम विचार कर पाते हैं। इसको अभी इसी क्षण सत्यापित किया जा सकता है कि विचार ही विचारक है, दृष्टा ही दृश्य है, अनुभव ही अनुभवकर्ता है; और यह बात यहीं समाप्त हो गई। यह जो विचार और विचारक के विभाजन का तिलस्म है, वो समाप्त हो गया। तिलस्म तब तक जगह लेता है, जब तक वहां पर सत्य उद्घाटित नहीं होता है।
तिलस्म है कि विचार, विचारकर्ता से पृथक है, मैं अपने अनुभव से अलग हूं। यह सत्य प्रकाशित हुआ कि अनुभवकर्ता उसी अनुभव से बना है जिसका वो अनुभव कर रहा है; जो सोच रहा है, वो उसी चीज से बना है जिसको वो सोच रहा है, यदि सोच नहीं है तो सोचने वाला भी नहीं है। यह सच्चाई देख लेना, इस पूरी प्रक्रिया का विसर्जन है।
यही कबीर साहब इस पद में भी कह रहे हैं कि किसी भी तथ्य के सत्य को देख लेना, उस तथ्य के सभी तरह के भ्रमों से मुक्ति है। यह देख लेना कि जब तक मैं है, तब तक जीवन का जंगल फलता फूलता नहीं है। जो जीवन हमने आपने नहीं बनाया है, वो हमारी उपस्थिति की वजह से फल फूल नहीं रहा है। हमारी आपकी उपस्थिति समाप्त हो, तो जो अनबना जीवन है, जो बुद्धि से नहीं बना है, वह फूलने और फिर फलने की तरफ अग्रसर हो सकता है। यह सत्य देख लेना हमारी पूरी चेतना में एक आमूल क्रांति है, कि जब तक मैं हूं, तब तक जीवन प्रस्फुटित नहीं हो सकता है।
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