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“वह ध्यान जो धोखा नहीं है” | सप्ताहांत ध्यान सँवाद | Dharmraj | Ashu Shinghal | Aranyak



वह ध्यान जो धोखा नहीं है।

 

न जाने कितना कुछ मिथ्या उस नाम के पीछे हम दुहराते रहते हैं, जिसे ध्यान कहते हैं। आशय है कि हम तथाकथित ध्यान भी आज़माते रहते हैं और जीवन उन्हीं दुःख के खाई खंदकों में ले देकर सड़ता बजबजाता रहता है।

 

निश्चित ही ध्यान की अनूठी कीमिया है, जो जीवन को न केवल तत्क्षण दुःख से मुक्त कर देती है बल्कि जीवन की पहली बार पावनता में डुबकी लगती है। आज साथ चलकर सीखते हैं, ध्यान के उस रहस्य को जो धोखा नहीं है।

 

१)  एक आरोपित की हुई चीज उसको नियंत्रित करती है जो जीवंत है, जैसे नथनी की रस्सी बैल को नियंत्रित कर लेती है। बैल नथनी से नियंत्रित होता है, क्योंकि उसको खींचने से उसे दर्द होता है। बच्चों को हम नाम की नथनी से नथ देते हैं, ताकि हम उन्हें पकड़ सकें।

 

जब आप कहते हैं की श्वसन प्रक्रिया को देखा जा रहा है, तो क्या श्वसन प्रक्रिया को देखा जा रहा है या उसके वर्चुलाइजेशन को देखा जा रहा है? यदि श्वसन प्रक्रिया को जानना है, तो आपको स्वांस ही हो जाना होगा। और यदि आप स्वांस हो गए, तो आप स्वांस क्या है उसको रिपोर्ट नहीं कर पाएंगे, क्योंकि आप स्वांस ही हो गए। एक तो श्वास की घटना घट रही है और एक उसका वर्चुलाइजेशन हो रहा है, और उस वर्चुलाइजेशन में उसको देखने वाला भी बन जाता है। असल घटना में कोई विभाजन नहीं है, पर जो उसका आभासीकरण है, उसमें विभाजन बन जाता है, एक देखने वाला और एक जिसको देखा जा रहा है।

 

क्या मैं किसी प्राकृतिक घटना का साक्षी हूं, या उसके आभासीकरण का साक्षी हूं? जो छवि को जान रहा है वह कौन है, और किस धरातल पर उस छवि को जानने की घटना घटती है? क्या वह जमीन वास्तविक है? झील का दिखना नैसर्गिक घटना है, पर ये कौन है, जो कहता है कि मैं झील को जानता हूं? ये जो जीवन घट रहा है यदि उसे हम जी रहे हैं, तो हम उसका एक क्लोन जी रहे हैं। जहां पर जीवन घट रहा है उसमें जानने वाला कोई नहीं है; केवल वर्चुअल तल पर जानने वाला पैदा होता है।

 

जानना घट रहा है ये भी क्यों कहना, क्योंकि यह कहते ही तीन चीजें आ जाती हैं, जो जान रहा है, जिसको जाना जा रहा है और जानने की घटना। जब जानने से जानने वाला और जाना जा रहा विषय निकाल दिया गया, तो कैसे कह सकते हैं कि वहां जानना घटित हो रहा है? जो भी वास्तविक है उसके बारे में आप कुछ भी नहीं कह सकते हैं, आप जो भी कुछ कहेंगे वो आभासीकरण होगा। आप किस जमीन पर खड़े होकर के कह पा रहे हैं, क्या आप खुद एक वर्चुअल चीज नहीं हैं?

 

२) यदि इस क्लोन में होश घट रहा है, तो क्लोन और मजबूत होगा, यही सबसे बड़ा धोखा है। अभी भी सामने जो कुछ भी है, क्या उनका जानना घटित हो रहा है? क्योंकि इनके वास्तव में जानने का मतलब है कि वही हो जाना। जानना एक वर्चुअल चीज है, एक आभासीय घटना है, इसको इतना महत्व देने की जरूरत ही क्या है? जिस होश में जानने वाला बचा रहा, वह होश नहीं है। जिस होश का मुझे पता चल सकता है, वह वर्चुलाइजेशन का होश है। यदि होश में विभाजन है, कोई प्रयास है, या उसको जानने वाला कोई है, तो वह होश नहीं है। हम वर्चुलाइजेशन में जो बेहोशी है, उसको ही होश समझ बैठे हैं।

 

बेहोशी का अर्थ है जिसमें मैं मौजूद हूं। वह क्लोन मैं हूं, उस क्लोन की वर्चुअलिटी में सारी दुनिया है, और उसमें ही सारे अनुभव हैं। वही क्लोन आकर के कहता है कि इसके प्रति मैं होश में हूं।

 

३) जो अभी दिख रहा है वह वर्चुअल ही है, जो भी मुझे दिख सकता है वह आभासीय ही है; और यदि वर्चुअल ही दिख सकता है, इसका मतलब है कि इसको देखने वाला, यानी मैं भी वर्चुअल ही हूं। यदि वर्चुअल सत्य है तो देखने वाला भी सत्य है, और यदि वर्चुअल असत्य है तो देखने वाला भी असत्य है। ध्यानी जब नहीं रहे, और केवल ध्येय रह जाए, तो वही ध्यान है। जो यथार्थ है उसको मैं जी ही नहीं सकता हूं। वर्चुलाइजेशन को वर्चुलाइजेशन की तरह देख लेना ही ध्यान है। किसी भी चीज का आभासीकरण युगपथ रूप से मुझे पैदा कर देता है, अन्यथा मेरी कोई भिन्न सत्ता नहीं है।

 

एक बार इस बात के घटने के बाद, पूरे जीवन भर क्या ध्यान भंग हो सकता है? यह बात हमेशा बनी नहीं रहती यदि आप ऐसा सोचते हैं, तो इसमें हमेशा से क्या तात्पर्य है? हमेशा या यहां वहां, यह सब आभासीकरण का हिस्सा हैं। अंतर्दृष्टि यदि मौजूद है तो हमेशा की बात ही नहीं उठेगी, क्योंकि मैं की जो निष्ठा है उससे ही मोह भंग हो गया।

 

४) यदि इस कमरे से बाहर निकलना है, तो दरवाजा सामने है यह बोध अंतर्दृष्टि है। यही अंतर्दृष्टि जीवन के संदर्भ में घट सकती है, कि मैं जो भी सोच सकता हूं या अनुभव कर सकता हूं, वह सच नहीं हो सकता है। आप जिस धरातल पर यह कहते हो कि मैं हूं, या मैं नहीं हूं, वह धरातल ही धोखा है। जीवन के अनंत आयाम हो सकते हैं, पर फिर भी आयामों में जीवन नहीं होता।

 

एक बार में ही कोई व्यक्ति जीवन के सारे दुखों से मुक्त क्यों नहीं हो जाता? मैं प्रेम करूं या घृणा करूं, पाप करूं या पुण्य करूं, सभी वर्चुअल है। यह जो भी है अनुभव में आ रहा है वह मिथ्या नहीं है, पर जैसे ही हम उसको शरीर कहते हैं, वह मिथ्या है। जो नैसर्गिक दिख रहा है उसको किस आधार पर कहा जा सकता है कि वह मिथ्या है, या भ्रम है? यह जो एजेंसी है वह वर्चुअल है, वह तथ्य को या सत्य को कभी जान ही नहीं सकती है। जो खुद माया है, वह असल को माया कह रही है।

 

यह पूरा मसला एक बार में ही क्यों नहीं समझ में आ जाता? अध्यात्म बहुत बड़ा धोखा है। संसार तो बचकानी बात है, अध्यात्म असली धोखा है। एक बार बात समझ में आ गई, उसके बाद वही चीज अध्यात्म के नाम पर फिर वर्चुअलिटी का रूप ले लेती है। फिर अध्यात्म में ही कोई रास्ता मान लिया जाता है, जबकि अध्यात्म में कोई रास्ता कहीं है ही नहीं। यह जो कृष्णमूर्ति जी ने कहा है कि संबंधों के आईने में खुद को देखना, या उपस्थिति को अवसर देना, यह सब बड़ी ही मजबूरी में कहे हुए वक्तव्य हैं।

 

बस एक ही बात आप समझ लीजिए, कि आप कुछ नहीं समझ सकते हैं, क्योंकि आप जो संस्था हो वही झूठ है। मैं कोई अपरिवर्तनीय चीज नहीं है, वह केवल एक प्रक्रिया है। जैसे ही आपने कहा कि इस आभासीय तथ्य का कुछ करना है, तो फिर वही निष्कर्ष अध्यात्म के नाम पर उस आभासीकरण को और मजबूत करता चला जाएगा।

 

५) साक्षी, कर्ता आदि के जानने की घटना का भी क्या आधार है? साक्षी, ध्यान, विधियां आदि अब इनका अंत होना ही चाहिए। जो जीवित या नैसर्गिक घटना है, उसका कोई अनुभव ही नहीं होता है; कुछ घट रहा होगा, वह क्या है उसके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता है। किसी भी संत के द्वारा कही हुई कोई भी बात जैसे ही वर्चुलाइजेशन में आई तो उसका ताजापन खत्म हो जाता है। किसी भी संत के द्वारा कोई भी बात किसी संदर्भ में कही गई होगी, कई साल बाद उसका कुछ का कुछ अर्थ निकालने का कोई मतलब नहीं है। होश, बोध, अनुभवकर्ता, साक्षी चुनाव रहित जागरण, यदि इन शब्दों में भी आप फंस गए तो मूल बात से चूक रहे हैं।

 

प्रश्न - क्या आंख आंख को देख सकती है?

 

आंख जब झील को देखती है, तो वह झील को नहीं देखती बल्कि उसकी छवि को देखती है, इसी तरह आंख का झील को देखना और आंख का अपनी छवि को एक शीशे में देखना, उसमें कोई फर्क नहीं है।आंख से जो दिखाई पड़ने की असल घटना है, उसका कोई पृथक अनुभव है ही नहीं; वहां पर दृष्टा दृश्य, एक अटूट घटना है। हम जिसे आंखों से देखना कह रहे हैं, या हम जिसे जानते हैं कि यह आंखों से देखना है, वह एक वर्चुअल घटना है, क्योंकि हम ही वर्चुअल हैं। आंखें मूंद लीजिए और सोचिए अपनी आंखों के बारे में, तो आपको अपनी आंखें दिखने लगेंगी। आंख तो केवल छवि ही दिखाती है, और उससे संबंधित जो भी सूचना हमारे मस्तिष्क में संकलित है, वह सब छवियां ही तो हैं। आपने एक व्यक्ति को देखा, तो आप उस असल व्यक्ति को अपने सिर के अंदर ले जाकर संचालित थोड़ी ही कर सकते हैं।

 

६) आप सिर्फ रिपोर्टिंग कर सकते हैं जो तथ्य है या सत्य है, उसको आप जान नहीं सकते हैं। जानना बड़े से बड़ा झूठ है, जीवन के नाम पर। जानना जीवन का हिस्सा नहीं है, जानना विचार से संबंधित एक सहयोगी संस्था का नाम है। जानना जीवन में सहयोग कर सकता है, पर वह जीवन नहीं है। जीवन में ना कुछ जानने जैसी चीज है, ना कोई जानने वाला है, और ना ही कुछ जानने की घटना होती है। जानना यानी रिपोर्टिंग करना ना की जीना।

 

यह जो कुछ भी घट रहा है वह इल्यूजन या मिथ्या नहीं है, पर हमारे अंदर जो उसकी व्याख्या है वह इल्यूजन है। जब यह समझ आता है कि जो जानने वाला है या जो जाना जा रहा है वह मिथ्या है, तो इसका मतलब यह नहीं की जो कुछ भी दिख रहा है या जाना जा रहा है वह सब झूठ हो गया, इसका मतलब है कि सत्य या अप्रमाद में छलांग लग गई। जहां पर यह वर्चुअल प्रक्रिया चल रही है, वह प्रमाद है, इस वर्चुअल प्रक्रिया का अंत नैसर्गिक अप्रमाद है।

 

ना दृष्टा है ना ही दृश्य है, और दृष्टा दृश्य की घटना जिस जमीन पर घट रही है, वह जमीन ही धोखा है।

 

पुरुषार्थ का अर्थ है कि वह अपनी सच्चाई को उसकी सीमा तक जा करके देख ले, की जो मैं का एहसास है वह आभासीय है। यदि कोई अपने को जान लेता है, तो उसने अपना पुरुषार्थ सिद्ध कर लिया। अपने को जानने का अर्थ यह नहीं है कि मैं साक्षी हूं, या मैं ब्रह्म हूं, पर जो तथ्य है जो सच्चाई है उसके प्रति होश को अवसर दे देना। यहां मेरी या किसी की भी कोई कही हुई बात मत मानिए, खुद ही इसको जाकर के जांचिए।

 

यदि किसी संत की कही हुई बातों के मर्म को पकड़ लिया, तो जीवन और ध्यान दो घटनाएं नहीं हैं, जीवन ही ध्यान है। यह जो वर्चुअल एजेंसी है जो देखती है या जो देखने का दावा करती है, यदि उसको उसकी सच्चाई में उतर करके देख लिया, फिर जो घट रहा है वही ध्यान है। महर्षि कहते हैं कि यहां कण-कण इनलाइटेंड है, यहां कुछ भी ऐसा नहीं है जो संबुद्ध नहीं है।

 

७) जब आप सत्य की तरफ जाते हो तो वह एक झांसा है, क्योंकि एक वर्चुलाइजेशन को आप सत्य समझकर उस तरफ जा रहे हो, जो की एक झूठ है। जब आप वर्चुलाइजेशन को यथावत समझते हो, तो सत्य की तरफ एक नैसर्गिक रूप से सम्यक गति होती है; जहां आभासीकरण का विसर्जन हो रहा है और साथ ही सत्य का पाया जाना घट रहा है।

 

इंद्रियों की जो सीमा है उसके आधार पर जो वास्तविक है, उसकी कल्पना की जा रही है। यदि यह विचार आ रहा है कि विचार आते ही क्यों हैं, तो इस तरह की जो भी टिप्पणियां मन लेकर के आता है, तो यह समझिए कि वह अपने आप को बचाने का प्रयास कर रहा है। मन में जो भी आता है आए, उस पर कुछ मत करना, पर जो अंतर्दृष्टि में धूल है उसे हटाते जाना। और अंतर्दृष्टि है कि आपको जो भी अनुभव होगा, जैसा भी अनुभव होगा, वह सच नहीं है।

 

कबीर साहब कहते हैं -

 

अवधू ऐसा ज्ञान विचार,

भेरें चड़े सो अद्धर डूबे,

निराधार भये पार।

 

नाव पर जो चढ़ता है, वह बीच नदी में डूबता है। ऐसा कोई बिरला होता है जिसकी आगे की योजना नहीं होती है, नहीं तो सबकी आगे की योजना खंडित ही रहती है, और हम बीच में ही मर जाते हैं। सारे आधार आभासीकरण के हैं, इसलिए जो कोई आधार नहीं लेता, उसके लिए नदी और नाव ही गायब हो जाती है।

 

८) बार-बार अन्वेषण करने की जरूरत इसलिए पड़ती है क्योंकि यह एक तप है। हमारे जो जीवन के संकलित मानसिक, भावनात्मक ढर्रे हैं, वह बार-बार इसके विरुद्ध चले जाते हैं। शरीर भी इस तरह के जीवन के लिए तैयार नहीं है, शरीर भी झंझट के लिए हमेशा तैयार रहता है। आप देखिए कितने सारे झंझट आप झेल जाते हैं, बिना झंझट के शरीर का रहना मुश्किल हो जाएगा, उसे कोई ना कोई झंझट चाहिए। वर्चुलाइजेशन सत्य नहीं है इसको हम सत्यापित नहीं कर रहे हैं, वर्चुलाइजेशन की घटना पर जो हमारी निष्ठा बनी हुई है, बस उसकी जांच कर रहे हैं, क्योंकि आभासीकरण में हमारी निष्ठा बहुत गहरी है।

 

हमारी बहुत गहरी निष्ठा बैठी हुई है की समृद्धि का मतलब है बैंक में पैसे का बढ़ते जाना, अच्छे संबंध से हम समझते हैं कि जो हमारी बुद्धि में तस्वीर रखी हुई है उसके आधार पर संबंधों का चलना आदि; इस तरह की निष्ठा के हटने में थोड़ा समय लगता है और उसमें कोई जल्दीबाजी भी नहीं करनी चाहिए। किसी चीज की जल्दीबाजी करना, या यह कहना कि सही समय आने पर अपने आप ही हो जायेगा, ये दोनों ही बातें वर्चुलाइजेशन का ही लक्षण  हैं।

 

आत्म अन्वेषण ना सतत प्रक्रिया है, ना तात्कालिक प्रक्रिया है, ना ही यह कोई प्रक्रिया है। जो भी आप समझेंगे ध्यान के बारे में, वह एक भ्रम हो सकता है। जिस जमीन पर ध्यान घटना है, उस जमीन की कोई असलियत नहीं है, और उस जमीन पर जितनी भी घटनाएं घटती हैं उनमें भी कोई सच्चाई नहीं है।


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