१) अन्यथाभूत देखने से बेहोशी होती है, जिसके कारण दोहराव यानी आदत बनती हैं। हमारे अंदर एक आभासीय जीवन निर्धारित हो जाता है, जो तुलना और दोहराव पर आधारित होता है। हम एक क्लोनिंग हैं, हमारा होना आदत है, आदत नहीं है, तो हम बने ही नहीं रह सकते हैं। जब तक अंतर्दृष्टि नहीं है, मैं से मुक्ति नहीं है, तो आदत से मुक्ति नहीं मिल सकती है। जो निरंतरता है वही मैं है, वही आदत है।
मैं यानी आदत, आप चाहे राम राम भजिए या सिगरेट पीजिए, दोनों के माध्यम से आप में निरंतरता बनती है। सबसे गहरी आदत है, मैं की आदत। बेहोशी के कारण मैं की उत्पत्ति हो रही है। मैं, संस्कार, बेहोशी, आदत, कंडीशनिंग, समय, मृत्यु, क्लोनिंग, आभासीय जीवन, दुख, दुर्भाग्य, अहंकार, ये सब एक ही चीज के अलग अलग नाम हैं। ये एक ही चीज के गुण धर्म नहीं हैं, ये एक ही चीज के अलग अलग नाम हैं। कोई अलग व्यक्तित्व नहीं है जिसकी आदत है, आदत ही वह व्यक्ति है।
२) हमको लगता है कि हम आदत छोड़ सकते हैं, पर जो बेहोशी का क्रम चल रहा है, वही आप हो। जब तक आप खुद को नहीं समझते हो, आप एक आदत छोड़ कर दूसरी पकड़ लोगे। मैं बना रहूंगा और विचार शांत हो जायेंगे, ये एक सम्मोहन है, यह एक रुग्ण अवस्था है। आध्यात्मिक उपलब्धि जैसी कोई चीज होती ही नहीं है। आपको सिर्फ कोलाहल, या क्लोनिंग का पता चल सकता है, मौन का नहीं।
जहां रिकॉर्डिंग नहीं चल रही है, वहां यथार्थ जीवन घट रहा है। ये स्मृति है, जो कहती है कि यह तो कल भी हुआ था, बोध सदा ओरिजिनल या नैसर्गिक ही होता है। मन सब कुछ रिकॉर्ड करता रहता है, और उससे एक आभासीय जीवन का निर्माण कर लेता है। जो वास्तविक घटना घट रही है, उसका एक आभासीय ख्याल निर्मित होना रिकॉर्डिंग है। सूर्योदय की घटना का एक आभासीय प्रारूप मेरे मस्तिष्क में बन सकता है। इस आभासीय धरातल पर तुलना शुरू हो जाती है, यही मूल आधार है हमारे आपके होने का; मैं यहीं से पैदा होता हूं।
यथार्थ जीवन कुछ और है, पर हमारे अंदर वैसा ही एक क्लोन घट रहा है। ये एक दोहराव, एक लकीर में चलता है। जीवन में समय या दोहराव नहीं है, पर हमारी बुद्धि में समय या दोहराव है।
३) आदत यानी मैं जब तक हूं, दुख, दुर्भाग्य बना रहेगा। झूठा जीवन होना, ये दुख या बेहोशी का दूसरा नाम है। जो हमारे रूप में आभासीय और झूठा जीवन घट रहा है, वो ही बेहोशी है। हम बेहोश नहीं हैं, पर जो हमारे रूप में जीवन घट रहा है, वह बेहोशी है। मैं दुख में नहीं हूं, मैं ही दुख हूं। मैं बेहोश नहीं हूं, मैं ही बेहोशी हूं। ये समझ आते ही यहां कोई मुक्त नहीं हो सकता है, बस मुक्ति है।
किसी चीज की निंदा स्तुति करना, उस चीज को अपने से अलग करना है। यदि हम निंदा स्तुति नहीं कर रहे हैं, तो मुझमें और उस चीज में कोई अंतर नहीं है। जब तक मैं अपनी आदत से या जो मैं कर रहा हूं, उससे अलग हूं, तभी तक वो एक गति या समय पैदा करता है। इसी समय और स्थान में आभासीय जीवन जिया जाता है। मैं समय, स्थान और आदत से अलग नहीं हूं, जब मैं इससे छेड़छाड़ करता हूं, तब उसमें गति पैदा होती है। जब यह समझ में आ गया, तो सारी गति तत्क्षण रुक जाती है, और यही आदत का मूल से समाप्त होना है।
४) आदत ही समय है, इसलिए जो होश है, उसमें समय नाम की कोई चीज नहीं हो सकती है; इसलिए आप होश या सही जीवन का अभ्यास नहीं कर सकते हैं। असल जीवन घटा हुआ पाया जाता है, जब यह आभासीय जीवन बीच से हट जाता है।
हम यह सोचते हैं कि जो हम कर रहे हैं वह बुद्धिमानी है, जबकि वह बुद्धिमानी नहीं है। हम समझते हैं कि हम आदत को बदल देंगे, पर वह ऐसे ही है कि एक कंधे से हटा करके हमने बोझ को दूसरे कंधे पर रख दिया हो। मैं को बनाए रखने की आदत सबसे गहरी आदत है।
बस इतनी सी बात यदि हमने समझ ली कि मैं एक आदत हूं, तो पूरा जीवन बुद्धत्व से भर जाता है। यहां कुछ छुपा हुआ नहीं है सब कुछ प्रकट है, कोई चमत्कार नहीं है, और फिर कोई कर्म शेष नहीं रहा मेरे लिए। बेहोशी दिखती इसलिए नहीं है क्योंकि हम उसको तोड़ करके देखते हैं, कि मैं अपनी आदत से अलग हूं। सारे कर्म जो मैं कर रहा था, अपने आपको उन्नत समझ करके, वह सब खत्म हो गए।
५) मुझ में होने वाली सारी गति, आभासीय है, वह यथार्थ जीवन से टूटी हुई है। यानी जो भी आप अनुभव कर रहे हैं, वह सिर्फ आपकी अपनी आदत ही है। यदि आप समाधि, प्रेम का भी अनुभव कर रहे हैं, तो वह आभासीय, कुत्रीम आदत है। जो निसर्ग है, वह आपके द्वारा किए गए किसी भी अनुभव से परे है; जैसे ही आपने कहा कि मैंने अनुभव किया, तो वो बात ही आभासीय हो गई।
यानी जो भी देखा जा रहा है, वही देखने वाला है। और यह स्पष्ट समझ पैदा हो जाने से कि दृष्टा ही दृश्य है, तो जो भी नैसर्गिक नहीं है, वह अपने आप ही गिर जाता है। फिर जो भी है, वह भी अटूट है, अखंड है, उसमें कोई भेद नहीं है। उसे दृष्टा ही दृश्य है, यह कहना भी जरूरी नहीं है, उस पर कोई भी टिप्पणी करना आवश्यक नहीं है। मैं संबुद्ध नहीं हूं, पर संबोधि सर्वदा उपलब्ध ही है।
बाहर से कोई आदतें छोड़ी जाएं या पकड़ी जाएं, उससे कोई ज्यादा अंतर नहीं पड़ता है, यदि समूल समाधान को अवसर देना है, तो हम जो भी हैं, जैसे भी हैं, उसको यथावत देखने में उतरना पड़ेगा।
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