प्रभु ज्यों ज्यों तुम्हारी
चौखट पर मेरे प्रत्यंग तक गल रहे हैं
मुझमें उमड़ उमड़कर
बाध कृतज्ञता हिलोरें लेती है
अपनी हर आहुति में मैं
आनंदमग्न विभोर हो जाता हूँ
उस अबाध कृतज्ञता को
अर्पित करूँ तो कैसे करूँ जिसका
मुझे बोध तक नहीं है
मेरी पूर्णाहुति की पावन संभावना
जिसका मुझे न बोध है न था न होगा
उसे तुमने कैसे
मेरे सदा विमुखमार्गी होने पर भी
सहेज कर रखा है
जीवन की उस अज्ञेय संभावना में
ले जाने के अहैतुक हेतु
अबाध कृतज्ञता उमड़ी भी जाती होगी
तो उसका मुझे बोध नहीं है
वो अबोध अर्पण
मेरी छाया से भी सदा अछूता रहता है
वह भी तुम्हें अर्पित हो चला है
गलते मिटते
विभोर हूँ
धर्मराज
3/6/2024
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