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अंत की कला: दुख, भय और चिंताओं को समाप्त करने का मार्ग (सुबह का सत्र, 23 जनवरी 2024)

अंत की कला: दुख, भय और चिंताओं को समाप्त करने का मार्ग (सुबह का सत्र, 23 जनवरी 2024)


अंत की बातें सब करें अंत ना पाया जाए रे।

जिसका अंत हो सकता है वो कभी था ही नहीं, और जो पाया गया वो ही सदा था, है और रहता है।

यदि खाना खा लिया तो बरतन धो लो, यह सुनते ही एक साधक बोध को वो प्राप्त हो गया। अंत की बात समझ ली, बात समझ आ गई तो धोओ हाथ और बढ़ो आगे। बहुत हुआ अब विदा हो जाओ यहां से, कब तक यहां रहने का विचार है।


जो भी अभी है उसको वहीं समाप्त करें, उसके साथ छेड़छाड़ नहीं करें। युद्ध में कुशल योद्धा दुश्मन को छोड़ता नहीं है, उसे पीछे छोड़िए नहीं; नहीं तो घायल दुश्मन और तेजी से वार करता है। योद्धा और प्रेमी का सम्यक मिश्रण हो, दुख को प्रेम से निहारिए और उसको बिल्कुल भी मत छोड़िए, बिना उसके साथ कोई छेड़छाड़ किए, उसका वहीं अंत होने दीजिए।


दुख से जरा सा भी भागिये मत, उसे तिल भी मत छोड़िए, पर पूरे प्रेम के साथ। जैसे भय का एहसास, अपमान या बहिस्कार का भय और उसका एहसास, इनके साथ पूरी उपस्थिति के साथ डटे रहिए, पर प्रेम भी साथ बना रहे।


चिंता ऐसी डाकिनी, काट कलेजा खाए।

वैद बेचारा क्या करे, कितना मरहम लगाए।।


अर्थ: संत कबीर जी कहते हैं कि चिंता वो अदृश्य डाकिनी है जो मनुष्य के हृदय को आघात पहुँचाती है, वह घाव किसी को नहीं दिखाई देता है। यहां तक की विश्व को कोई भी वैद्य जितना चाहे उतना मरहम लगा कर भी इसका इलाज नहीं कर सकता है।


आप भरपूर मौजूदगी में वहां पर हैं तो उस पूरे जीने में वह भय मिट जाता है। इस पूरी कीमिया में आपने अपना अंत करने की कला सीखी है। जो भी चल रहा है उसको चलने दीजिए उसको अपने से विसर्जित होने दीजिए। होश आए तो उसके साथ भी छेड़छाड़ मत करिए। सभी जटिल सड़न समाप्त हो गई, अंत खोजने में आप अंत ही गंवा आए। आपकी दुर्गंध कोई भी साझा नहीं करता है, अपनी सारी पीड़ा को आने दीजिए, बस उसके साथ प्रेम के साथ मौजूद होइए।


लड़ना एक खेल है, जो कुशल योद्धा होते हैं वो क्रोध नहीं करते। क्रोध करने से आपकी बहुत सारी ऊर्जा नष्ट हो जाती है। योद्धा तो ध्यानी होता है। जो भी है जीवन है उसका अंत करिए, उसको धोइए नहीं। किसी की भी बात स्वीकार मत करिए जब तक वो अपने जीवन में ना घट जाए।


मृत्यु का अर्थ है, जहां नैसर्गिक रूप से आप स्वयं ही समाप्त हो गए; जहां "मेरा क्या होगा" ये बात ही समाप्त हो गई। कुछ मत बदलिए बस उसे दिखते रहने दीजिए।


जो दुविधा को देख रहा है, और दुविधा भी आप खुद ही हो, अपनी दुविधा के साथ छेड़छाड़ करने से ही जो एक है वो दो हो जाता है। "इस दुविधा से कैसे बाहर निकलूं", इस बात को ही आप मूल से समाप्त कर सकते हैं। कोई भी अवस्था है, वहां जागरण मात्र है। आपके कुछ भी करने से वो बना रहता है, बस आप खुद ही वहां पर सीज हो जाओ। विचार के साथ मरने की कला यदि आप सीख गए, तो कर्तव्य विमूढ़ता के साथ क्या होता है, उसकी चिंता भी छूट जाती है।


यदि कौशल जगह ले रहा है, तो कंटेंट मिट जायेगा, बस आपको हस्तक्षेप नहीं करना है, और जो भी घट रहा है उसे प्यार से देखना। यानी प्यार से देखना और उसका अंत होने देना। जीवन सर्वदा निंदा स्तुति से मुक्त है, और यदि निंदा स्तुति नहीं हैं, तो कुछ भी बदलने की कोई चेष्टा भी नहीं है।


जीवन उपस्थिति मात्र है अपने से सब हो रहा है, इस कीमिया को समझ लेना ही सबसे श्रेष्ठ बात है।

विचार का दलाल विदा होने दीजिए। उत्तर आना, या कोई योजना दलाल है। उत्तर आपको नहीं आ सकता है, आपको बीच से हटना होगा, तो जीवन वहां विद्यमान है ही। यदि कोई आकृति नहीं बनी हुई है, तो केवल कनवास ही तो बचेगा। रेत पर कोई कलाकृति नहीं है तो सिर्फ रेत ही तो बचेगी। रेत सदा विद्यमान है, आकृति बनती बिगड़ती रहती हैं। जिसको आप आकृति समझते हैं, वह भी तो रेत ही है। रेत वो आधार है जिसपर आप खड़े हुए हैं।


अपना हाथ खुद ही पकड़िए और परमात्मा हो जाइए, सदा के लिए विदा हो जाइए। किसी की भी बातों से भी सम्मोहित मत होइए, मेरी बातों से भी नहीं। जिसके जीवन में गहराई होती है उसकी बातों में बहुत बल होता है, पर आप उससे भी सम्मोहित मत होइए, नहीं तो अवलोकन छूट जाएगा, फिर अवलोकन जगह नहीं ले पाएगा। कीमिया को भली भांति मांजिए, और मुक्ति को अवसर देते चलिए।

जानने में ही वो भस्म हो गया अपने से, अंत कहना भी एक भाषा की भूल है। वहीं पैदा होता है, और वहीं भस्म हो जाता है।


हमें हड़बड़ी होती है कि अभी जवाब दे दें या जो पसंद नहीं है उसको नजरंदाज करते रहते हैं। होश इन दोनों से परे है। अपमान को जी तो लेने दीजिए, देखिए उपस्थित होने में कि उसका क्या होता है? कोई छेड़छाड़ नहीं उसके साथ, बदलने की हड़बड़ी भी मत करिए। हड़बड़ी को भी बदलने का प्रयास मत करिए, बस दिखने दीजिए क्या हो रहा है। अरे जवाब नहीं दे पाए, उसको भी छोड़ दीजिए ना। ना पटकनी खाइए ना दीजिए, इसका अपना एक मजा है। गुस्से का मजा लीजिए, घृणा बैर हैं तो उससे भागीये नहीं, उसका मजा लीजिए।


चीजों को हस्तक्षेप के बिना जाने देने से, अज्ञेय में हम खुद को समाप्त होने दे रहे हैं। जो भी है बस उसके साथ जिएं और वह अपने आप समाप्त हो जायेगा। किसी भी तरह की मानसिक सुरक्षा आपको परमात्मा से वंचित करती है, जो परम असुरक्षित है उसका परमात्मा वरण कर लेता है।


निंदा स्तुति के बिना जीना ही पूरी बात है, आपका होना, यानी निंदा स्तुति ही है। ये गईं तो आप भी गए, और जीवन वहां किसी और ही रूप में पाया गया।


घट माँहे औघट लह्या, औघट माँहैं घाट।

कहि कबीर परचा भया, गुरु दिखाई बाट॥


साकार में निराकार है और निराकार में साकार। जब इन दोनों को एक साथ घोल दिया, तो कोई भेद रहा ही कहां?


जीवन को मन अलग अलग करके दिखाता है, और फिर कहता है कि अब जियो। अभी ही अपने सारे स्वरूप के साथ अंत करके विदा हो जाइए, अभी अंत करिए। जो भी आप अभी हैं, उसका अभी अंत होने दें।

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Ashu Shinghal

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