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Writer's pictureDharmraj

ARANYAK ARUNACHALA


संबंधों और जीवन की रंगबिरंगी चुनौतियों के दर्पण में स्वयं को देखने की कला धर्मराज जी के साथ सीखते हुए बार-बार अपनी समझदारी को मैंने तुच्छ पाया है। दूसरी तरफ़ जीवन को किसी अज्ञेय रहस्य की ओर भी आगे बढ़ता ही पाया है। अज्ञेय की ओर बढ़ना निश्चित ही किसी विराट साहस की माँग करता है। लेकिन ज्ञेय की व्यर्थता में अंतर्दृष्टि सहज ही वह शक्ति और साहस देती जा रही है, जिससे अज्ञेय की धन्यता में डुबकी लग सके।


धर्मराज जी तो अनजाने जंगल में भी निर्भीक उतरने के लिए जाने जाते हैं, तो भीतर के अज्ञेय में, असुरक्षा में जीना न केवल उनके साथ घटित होता है, वरन् उनके साथ चलने वाले के भी घटित होने लगता है। इसी रहस्यात्मकता में “आरण्यक अरुणाचला” का सहसा प्रसाद के रूप में प्रवेश हुआ। जीवन में यह तथ्य भी प्रकाशित हुआ कि किसी की धर्म और सत्य में निष्ठा कोई व्यक्ति नहीं सत्यापित कर सकता है। व्यक्ति की सोच तो सदा ही क्षुद्र को प्रमाणित करती है। यह अस्तित्व की जीवन में आशीष वर्षा ही तय करती है कि, किस जीवन में सत्य और यथार्थ धर्म को अवसर है और किस जीवन में अहंकार ही धर्म, प्रेम और ध्यान का चोला पहनकर बैठा है।


मुझे ख़ूब याद है तब जब जीवन अपने श्वेत-स्याह रंग से हमें सिखा रहा था, एक अपरिचित दंपति से धर्मराज जी का आनलाइन संवाद हुआ। पहली बार ही आनलाइन संवाद में समाधान के रूप में न जाने क्या उनके भीतर घटा कि, दूसरे ही दिन वह दंपति धर्मशाला (हिमाचल प्रदेश) मिलने आ पहुँचे। वहाँ जब उनकी समस्या पर संवाद हुआ तो मैं साक्षी थी। कुछ तो रहस्यमयी ढंग से हो रहा था कि, सँवाद के मध्य एक गहरा समाधान उन दम्पति के जीवन में घटता जा रहा था।

उस दोपहर संवाद की समाप्ति के बाद जब सब विश्राम को चले गए, तो वे दंपत्ति धर्मराज जी के कमरे में आए और उन्हें विनयपूर्वक कहा कि, हमारा आपसे एक निवेदन है। हम आप को कुछ भेंट करना चाहते हैं। हमारे पास तिरूवन्नामलाई में महर्षि रमण आश्रम के पास पावन अरुणाचल पर्वत की तलहटी में एक भूमि है, जो यदि आप अपने काम में ले लें तो हम अति अनुग्रहीत होंगे।


धर्मराज जी तो जैसा कहते ही रहते हैं कि, “जो जैसा आए जीते जाइए!” उन्हें कोई हर्ष जैसा न हुआ। जैसा कि विपरीत परिस्थितियों में उन्हें मैंने विषाद में भी नहीं देखा है। या कहें तो किसी भी परिस्थिति में उन्हें एक गहन अवलोकन और जागरण में उपस्थित देखा है।


मात्र दो हफ़्ते में वैधानिक औपचारिकता पूरी कर भूमि आरण्यक ट्रस्ट को हस्तांतरित कर दी गई। ट्रस्ट के गठन की गाथा भी रहस्य से भरी है। जिस पर हम अलग से लेख प्रस्तुत करेंगे। अज्ञेय जीवन की गति में अमूर्त प्रसादों से आपूर बह रहा जीवन कुछ मूर्त प्रसाद भी लेकर आया है। जिसमें हम सब के जीवन में “आरण्यक अरुणाचला” का घटना चामात्कारिक प्रसाद है। अत्यंत सुंदर स्थान पर जहाँ पावन अरुणाचला पहाड़ की तलहटी में उसके पीछे से सूर्योदय होता दिखाई देता है और सम्मुख ढलते सूरज के दर्शन होते हैं, यह भूमि है। महर्षि रमण के आश्रम से यह थोड़ी ही दूरी पर है।


कहना ज़रूरी न होगा कि, यह स्थान ‘आरण्यक’ के काम हेतु अरुणाचला और महर्षि रमण का पावन आशीष और प्रसाद है। अन्यथा भला इस भारत भूमि के बिल्कुल उत्तर में बैठ कर स्वप्न में भी यह सोचना सम्भव नहीं था कि, दक्षिण भारत में आरण्यक मंच के लिए कोई ऐसा पावन स्थान प्रसाद सा उपलब्ध हो जाएगा, जहाँ हम आरण्यक मित्र जीवन के गहरे प्रश्नों में साथ-साथ प्रवेश कर सकें! जो कि आरण्यक के शब्दार्थ और इसकी मूल भावना में ही निहित है।


उपरोक्त घटना के ठीक घटते समय मुझे बंगाल की सुप्रसिद्ध अनूठी बाउल परंपरा की रहस्यदर्शी संत पार्वती बाउल की अपने गुरु के लिए लिखी पुस्तक के संपादन कार्य का अवसर मिला। पुस्तक के संपादन कार्य को करते हुए मुझे भक्ति व ध्यान के विषय में गहरी अंतर्दृष्टियाँ मिली और पार्वती माँ के सानिध्य का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

उन्हें जब “आरण्यक अरुणाचला” के बारे में पता चला तो, न केवल उन्होंने कई तरीक़ों से सहयोग किया बल्कि वह स्वयं आज यहाँ आईं। उन्होंने भूमि पर पाँव रखते ही कहा कि - सुरोमिता यह अत्यंत पावन प्रसाद है। यह दैवीय योजना से आरण्यक को मिला है। उसने वहीं बैठकर कुछ पद गाये, अपने हाथ से मिट्टी खोद कर मिट्टी को प्रणाम दिया, मंगलकामना और प्रार्थना की। इन घटनाओं के अतिरिक्त हमें जीवन को देखने समझने के लिए न जाने कितने आशीष और शुभकामनाएँ प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से मिल ही रही है।


मुझे कोई संदेह नहीं है कि, आरण्यक मंच पर जो भी अभूतपूर्व आत्मअवलोकन की कीमिया हम सीख चले हैं, उस हेतु अस्तित्व का प्रसाद हमारे साथ है। हम सब मनुष्य मात्र का सब भाँति शुभ हो! हम शुभ देखें! शुभ सुनें! शुभ को घटने का अवसर दें! साधु!

- सुरोमिता


In this journey with Dharamraj Ji of exploring the art of looking at oneself in the mirror of relationships and the colorful challenges of life, I have repeatedly found the thinking-mind to be quite futile. At the same time, there has been certain movement towards an unknown mystical direction, which is so powerful that it is taking over the measured ways of life. Living with the unknown certainly demands great courage, but this insight into the futility of the thinking-mind, makes it easier to dive into the Unknowable.


Dharmraj Ji is known to wander in the unknown territory of the inner jungle fearlessly. Living with the unknown with such ease happens not only with him, but also to those who walk with him.


I remember that day very well when Dharmraj Ji had an online conversation with a couple where something mysteriously had flowered within them. The very next day they came to Dharamshala (Himachal Pradesh) to meet Dharmraj Ji. After the satsang that afternoon they came to his room to offer their land at the foothills of Arunachala mountain at Tiruvannamalai and said that they will be very grateful if he takes it for Aranyak’s use. As Dharmraj Ji always says, “Whatever comes on the way, Live as is” ​​he did the same, present in the situation in a deep observation and awareness.


In a life where all of it has been given in the hand of the Unknowable, in such choice-less offering some tangible gifts also comes along, the occurrence of “Aranyak Arunachala” suddenly entered as a blessing in our lives.


With this, another fact came to light that no person can verify one’s devotion to truth. Because a person's thinking will always be limited. It is the showering of Divine blessings that can verify who is living a life of truth and who is wearing the garb of falsehood.


In just two weeks, the legal formalities were completed smoothly and the land was transferred to Aranyak Trust. Even the story of the formation of the Trust is full of mystery, which should be shared separately.


This land, at the foothills of the Arunachala mountains is a short distance from Maharishi Ramana’s ashram, a blessing from Arunachala and Maharishi Ramana for the work of Aranyaka. Otherwise, sitting in the North of India who would have thought that this land in the South of India is going to be made available as Prasad for Aranyak, where we friends can enter together in raising the deep questions of life, something that lies in the core meaning of Aranyak.


Around the same time while all this was taking place, i got the opportunity to edit a book with Parvathy Baul, a mystic saint of the unique Baul tradition of Bengal. This experience gave me some deep insights about the path of Bhakti & Dhyan in the company of Parvathy Ma. When she came to know about Aranyaka Arunachala, she, with her all encompassing love and grace not only supported us in various ways but graced us with her presence today at the land. As soon she stepped on the ground, she said - Suromita, this is a blessing from the Divine for Aranyak, part of a bigger divine plan.


Sitting there she sang few verses of Shiva and Shakti. Digging the soil with her own hand she graced the land with her prayers and presence.

Gratitude is no longer an emotion to feel, rather this life itself is turning into gratitude as one witnesses such play of the Divine.

May we all see well! May we listen well! And allow the Divine to unfold by itself.


Sadhu

Suromita

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