अँधेरा घुप्प है
हवाएँ तेज हैं
फिर भी जले दीये को जलाए रखने की कोशिश जारी है
जलते-जलते दीया लड़खड़ाकर टिमटिमा जाता है
फिर भी बुझता नहीं
जलता रहता है
क्षितिज तक फैले अँधियारे में दीया जल जलकर
यह उम्मीद नहीं बुझने देता कि
उजाले होते हैं
कभी कभी चीखें भी सुनाई देती हैं कि
दीया तेरा झूठा है
पर अँधेरों से ही आती हैं वे चीखें
प्रकाश लोक से तो लिख-लिख पातियाँ आ रही हैं
जिस पर लिखा होता है
साधु साधु साधु!
कल अरण्यकोत्सव के दीये से हृदय अभिभूत हो चला है। कितने सारे हृदय गा उठे हैं। दिख रहा है, कितने सारे अधरों पर वे मुस्कानें हैं जो किसी कारण से नहीं पैदा होती! न केवल वे पैदा हुई वरन् फैलती ही जा रही हैं। अश्रु बुन्दें हैं जो अनुग्रह बोध से आपूर सिक्त हैं।
अहो! चुपचाप इस धरा पर अनुकूल हृदयों को पाकर प्रेम संक्रमित हो रहा है।
वह जो अस्तित्व ने ‘जाग’ की अलख जगाई थी, उसकी अलख गूँजने लगी है।
साधो! साधु साधु!
धर्मराज
21/04/2024
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