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Writer's pictureDharmraj

गुरु ने पठाया बच्चा न्यामत लाना (कबीर उलटवासी का मर्म)



१) गुरु ने पठाया बच्चा न्यामत लाना।

 

पहली न्यामत आटा लाना,

गाँव नगर के पास न जाना,

हाट बाज़ार छोड़ि के बच्चा,

झोरी भर के लाना।

 

दूसरी न्यामत जल भर लाना,

कुआँ बावली के पास न जाना,

गंगा जमुना छोड़ि के बच्चा,

कमंडल भर के लाना।

 

तीसरी न्यामत कलिया लाना,

जीव जंतु के पास न जाना,

ज़िंदा मुर्दा छोड़ि के बच्चा,

हंडी भर के लाना।

 

चौथी न्यामत लकड़ी लाना,

बाग बगीचे के पास न जाना,

सूखी ओदी छोड़ि के बच्चा,

गट्ठा बाँधि के लाना।

 

कहहिं कबीर सुनो भाई साधो,

यह पद है निर्बानी,

जो यह पद को गाय बिचारे,

सोई महामुनि ज्ञानी।

 

२) गुरु ने पठाया बच्चा न्यामत लाना।

 

प्रेम, वात्सल्य के संबंध में सिर्फ देना है, वहां लेने की बात नहीं होती है। कबीर साहब करुणा, प्रेम से आपूर भरे हुए हैं, उनके पास कोई जाता है, तो कहते हैं कि बच्चा नियामत लाना। नियामत का अर्थ होता है प्रसाद, कुछ अनुग्रह बोध, कृतज्ञता, कुछ जो बिना किए मिले, या प्रसाद को अवसर देना।

 

काहे री नलिनी तूं कुम्हलानी,

तेरे ही नालि सरोवर पानी।

जल में उतपति जल में बास,

जल में नलिनी तोर निवास।

 

जीवन और संबंध तो तुम्हें मिला ही हुआ है, क्यों किसी के मिलने या बिछड़ने पर संतप्त होते हो? कमल के नीचे पानी बहता है, पर वह पानी की तलाश में उदास हो जाता है। तुम्हारे चारों तरफ प्रसाद ही प्रसाद है, पर कोई बात यदि सीधी बता दी जाए, तो वह समझ में नहीं आती है। हम किसी भी चीज को मन या बुद्धि के माध्यम से जानना चाहते हैं, हम सीधे समझने में सक्षम नहीं हैं। हम खोज की इतनी जल्दी में रहते हैं कि सीधा बताए जाने पर हम उसे स्वीकार नहीं कर पाते हैं।

 

कबीर साहब एक असंभव प्रश्न को लेकर के आते हैं, एक कीमिया को लेकर आते हैं, जो बड़े अचूक तरीके से काम करती है। "नियामत लाना", मतलब कबीर साहेब कुछ दे नहीं रहे हैं, प्रसाद लेन देन से मुक्त है। कबीर साहब ने राह भी दिखा दी और गुरु भी नहीं बने। पठाया मतलब भेजना, यानी गुरु ने कहा कि जाओ और प्रसाद लेकर के वापस आना।

 

३) पहली न्यामत आटा लाना,

गाँव नगर के पास न जाना,

हाट बाज़ार छोड़ि के बच्चा,

झोरी भर के लाना।

 

देह ऊर्जा का एक पुंज है, और जिस तरह से हम जी रहे हैं, उसमें ऊर्जा का अपव्यय हो रहा है। जो जीवन के लिए मौलिक ऊर्जा इस्तेमाल होती है, उसको उन्होंने कहा है कि आटा लाना। उस मिट्टी का पता लगाओ, जो गांव नगर, भीड़ भाड़, या सोच विचार में नहीं मिलती है। ऊर्जा का वह ढंग ढूंढो जिससे तुम बने हो, पर जो बुद्धि, सोच विचार से निर्मित नहीं होता है। उस ऊर्जा को ढूंढो जो किसी से नहीं आई है, या जो आप प्रयास करके कमा सकते हो, वह भी नहीं हो। शरीर तो प्रकृति है, जिसको हम आप जीवन समझते हैं वह किसी के द्वारा प्रदत्त है, किसी के द्वारा दिया गया है, या हमने सोच विचार के द्वारा बनाया है; यह दोनों मत लाओ पर झोली भर के लाओ।

 

जो भी चीज हमें दूसरे से मिलती है वह अधूरी होती है, भरी नहीं होती है। भरी वही चीज हो सकती है जो पहले से भरी हुई है। जो आप कमाते हैं, उसको आप गंवा भी सकते हैं। ऐसी ऊर्जा लाना जो कभी समाप्त ही ना हो, वो जीना क्या है जो आदि या अंत से मुक्त है, यह असंभव प्रश्न है; इससे मन थम जाएगा।

 

४) दूसरी न्यामत जल भर लाना,

कुआँ बावली के पास न जाना,

गंगा जमुना छोड़ि के बच्चा,

कमंडल भर के लाना।

 

जल यानी जीवन का प्रवाहित स्वरूप, जो गतिमान है। "मैं हूं" थीर है, "मैं जी रहा हूं" यह गतिमान है। जीवन तो जीना, पर जो जीवन का ढर्रा, ढांचा, ढंग सीमित है, उस स्रोत के पास मत जाना। जीवन का कोई आधार मिल गया, जैसे प्रेमी, पद, पैसा, उसपर मत आश्रित होना। जो असीमित स्रोत है, उसके पास भी मत जाना।

 

हद चले सो मानवा, बेहद चले सो साध।

हद बेहद दोनों ताजे, ताको भाता अगाध॥

 

कबीर साहब अंतिम छलांग ले रहे हैं, वो अंतिम बात प्रस्तुत कर रहे हैं। जो सीमित स्रोत है वहां से पानी मत लाओ, वहां तक केवल मानव जा सकते हैं। और जो असीमित है वहां से भी मत लाओ, जहां तक कोई साधना ले जा सकती है। अगाध का मतलब जिसमें पेंदी नहीं है, वह जगह जो हद और बेहद दोनों से न्यारी है। चित्त की सारी भूमिका यहीं पर समाप्त हो जाती है। जीवन का वह प्रवाह या जीने का वह ढंग, जो सीमित या असीमित पर आधारित नहीं है; वहां से जल लाओ जो इन दोनों से न्यारा है, यानी जो पहले से ही उपलब्ध है, जो वहीं पर उपलब्ध है जहां पर तुम अभी हो। इसलिए कबीर साहब कहते हैं -

 

काहे री नलिनी तूं कुम्हलानी,

तेरे ही नालि सरोवर पानी।

जल में उतपति जल में बास,

जल में नलिनी तोर निवास।

 

जब मैं हूं तो मैं हद में जा सकता हूं एक मानव की तरह, और जब मैं हूं तो बेहद में जा सकता हूं एक साधु की तरह; पर यदि मैं ही नहीं रहूंगा, तो भी जो है उसको जाना, कहा या समझा नहीं जा सकता है। ऐसा नहीं है कि मैं रह गया और वह अज्ञेय या वो न्यारा बच गया; मैं झूठ सिद्ध हो गया और सच वहां पाया जाता है।

 

पहले कबीर साहब ने कहा कि ऐसी ऊर्जा का स्रोत ढूंढ के लाओ जो ना किसी ने दिया हो, ना कमाया जा सकता है। फिर उन्होंने कहा कि वह जीना ढूंढकर लाओ जो ना सीमित है, और ना ही असीमित है। यानी जीने की ऐसी धारा जो प्रारंभ और अंत, दोनों से परे है। यहां कबीर साहब स्वर्ग या नरक दोनों बातों का खंडन कर रहे हैं।

 

५) तीसरी न्यामत कलिया लाना,

जीव जंतु के पास न जाना,

ज़िंदा मुर्दा छोड़ि के बच्चा,

हंडी भर के लाना।

 

रस से भरे मांस या किसी रसीली चीज, जैसे आम के गुदे को कलिया कहते हैं, यानी जो खाने की चीज है और रस से भरी हुई हो। एक है होना, एक है जीना और फिर जीवन को रस से भरना।

 

रसो वै सः। रसं ह्येवायं लब्ध्वानन्दी भवति।

 

अर्थ - वह रस का स्वरूप है। जो इस रस को पा लेता है, वह आनन्द ही हो जाता है।

 

जीवन में सुख, रस, खुशी तो हो, पर वह किसी अन्य पर आश्रित ना हो; किसी दूसरे से सुख लेना हिंसा है, फिर चाहे वह सुख किसी भी रूप में हो। जो भी नैसर्गिक सुख है, वह हमारे भीतर से आता है और हम समझते हैं कि बाहर किसी परिस्थिति से हमें सुख मिल रहा है। साहब कह रहे हैं कि जीवन में रस लाने के लिए किसी दूसरे के पास मत जाना।

 

वह रस जिंदा या मुर्दा नहीं हो। जिंदा रस का मतलब है कि जो चीज अभी घट रही है, उसमें अपनी बुद्धि के अनुसार रस लेना। मुर्दा रस का अर्थ है कि कभी मैं उस पद पर था, या कभी मैं वह पद भविष्य में पाऊंगा। जो हो चुका है उसकी जुगाली करके रस मत लेना, या जो आने वाला है उसकी परिकल्पना में रस मत लेना। वर्तमान में भी जो रस ले रहे हो, वह भी अपनी ही बनावट के अनुसार ही तो रस ले रहे हो, तो ऐसा रस भी मत लेना, क्योंकि उसके लिए आपको प्रोग्राम किया गया है। उसके लिए तुम्हें बचपन से ही तैयार किया गया है, और तुम समझते हो कि यह सुख तो नैसर्गिक है। यानी जो रस मैं ले सकता हूं वह ही झूठ है, असल रस वही है जो मैं से मुक्त है। इसको ही बुद्ध "अमानुषी रति" कहते हैं।

 

जो भी रस बाहर से मिलता है, वह चला भी जाता है, और जो मिलते समय सुख मिलता है वही जाते समय दुख देता है। इसका मतलब जो रस बाहर से मिलता है, वह एक भ्रम है धोखा है, वह जीवन का स्वभाव नहीं है। साहेब कहते हैं कि अपना पात्र रस से लबालब छलकता हुआ भर के लाना; पर उस रस से मत भरना जो दूसरे पर आश्रित हो, जो जिंदा या मुर्दा हो। जब आप किसी दूसरे पर रस के लिए आश्रित होते हो, तो आपके अंदर कोई "मैं है" जो आश्रित होता है। मैं का होना यानी यथार्थ से अलग हो जाना है, जड़ों, निसर्ग से कट जाना है। जीवन में रसामक्ता तो भरपूर हो, पर किसी पर निर्भरता ना हो। जो कहीं से मिली हुई रसामक्ता नहीं है, वह कभी छूट भी नहीं सकती है।

 

यह असंभव प्रश्न की तरफ इशारा है कि ऐसी रसामक्ता है जो किसी चीज पर निर्भर नहीं है, जहां पर भी हम हैं, वहीं पर हमें जागने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। जो रस बाहर से आता है, किसी दूसरे से आता है, वह रस झूठ है।

 

६) चौथी न्यामत लकड़ी लाना,

बाग बगीचे के पास न जाना,

सूखी ओदी छोड़ि के बच्चा,

गट्ठा बाँधि के लाना।

 

भोजन की सारी तैयारी हो गई, आटा, जल, कलिया, और उसे पकाने के लिए चौथी नियामत है लकड़ी। लकड़ी का अर्थ है उद्यम, जप, तप, साधना, प्रयास, पुरुषार्थ। ओदी का अर्थ होता है गीला। साहेब कह रहे हैं की लकड़ी तो लाना जिससे की आग जल सके, अपने भीतर दीप जल सके, प्रकाश हो जाए, लेकिन वह लकड़ी ना तो गीली हो, और ना ही सुखी हो। यानी कारण और प्रभाव का वह यहां पर खंडन कर रहे हैं। जीवन में प्रकाश, ऊष्मा, गर्माहट, प्राण तो आएं, पर जो परम प्रसाद है, वह तुम्हारे किसी प्रयास का परिणाम न हो।

 

ऐसी आग जलाओ, ऐसा प्रकाश फैले, जो तुम्हारे उद्यम का परिणाम न हो और ना ही तुम्हारे नाउद्यम का परिणाम हो। यदि हमें यह लगता है कि सत्य बिना कुछ किए मिलता है, तो हम कुछ ना करें, ये भी सही नहीं है। हम कुछ करते हैं तो सूखी लकड़ी के जैसे हैं, कुछ नहीं करते तो गीली लकड़ी के जैसे हैं। वह मन के आलसी रूप और कर्मठ रूप दोनों का खंडन कर रहे हैं। बाग बगीचा यानी गुरु, शास्त्र, पुण्य, पाप आदि, यानी जीवन में जागरण, परिपक्वता तो हो, पर उसे कोई करने वाला ना हो। जीवन में जो दीपक जले, जो परिपक्वता आए, वह किसी सुनियोजित ढंग से नहीं आई हो।

 

वह परिपक्वता पूर्ण है जिसमें कुछ जोड़ा नहीं जा सकता, और हम उसी में कुछ जोड़ नहीं सकते हैं, जो हमारे या आपके बनाए जाने से मुक्त है। बुद्धि से हम जो भी जानेंगे, उसमें कुछ ना कुछ जोड़ा या घटाया जा सकता है।

 

७) कहहिं कबीर सुनो भाई साधो,

यह पद है निर्बानी,

जो यह पद को गाय बिचारे,

सोई महामुनि ज्ञानी।

 

कबीर साहब कहते हैं यह पद निर्वाण या मुक्ति का है, यानी जो मनुष्य की संभावना का चरम शिखर है। जो इस पद को गाकर के विचारता है, यानी जो इस पद का मर्म भी समझे, और साथ ही गाए भी, वही इस नियामत को जीवन में अवसर दे पाता है। कबीर साहब में ज्ञान की भी पराकाष्ठा है,और साथ ही साथ भक्ति, प्रेम की भी पराकाष्ठा है।

 

कबीर साहब ने जो इशारा किया है वो उस पार का है, सिर्फ सम्यक श्रवण से ही वह घट सकता है, वह नियामत, वह प्रसाद जीवन में उतर सकता है। इन पदों को भाषा में प्रोसेस तो किया जाए, पर उसका मर्म या अर्थ निकालने की चेष्टा ना हो; तो कबीर साहब ऐसे बदली की तरह जीवन में बरस जाएंगे कि उसके बाद कभी जीवन में मरुस्थल नहीं आएगा। वो नियामत यदि एक बार जीवन में उतरी, फिर उससे जीवन कभी वंचित नहीं होता है।


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