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बिना कविता का कवि

तालाब की कच्ची मेड़ पर मुझे

कुछ कविताएँ मिली हैं

जिन्हें शब्द देना चाहता हूँ


सारी दुनिया की भाषाएँ खंगाल डाली हैं

पर वे कविता को

वैसा नहीं रख पा रही हैं

जैसे मेड़ पर धरी थी


भाषा के कटोरे में धरने को टीस है

व्यंग है कराह है

हँसी है ख़ुशी है वाह है

बाक़ी सब कुछ धरने को जगह है

सिवाय कविता के


क्या कोई भाषा कविता धरने को बनी ही नहीं

अरे! तो क्या आदम से कवि हुआ आदमी

आज तक

एक भी कविता धर ही न पाया है


ख़ैर मैंने कविता वापस मेड़ पर धर दी है

खूब मज़ा है

मैं ख़ुद को कवि कहता हूँ

जबकि आज तक

एक भी कविता मुझसे धरी न गई है


धर्मराज

04/05/2024

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