सुबह का सत्र, 8 जनवरी 2024
सुविधा, संबंध के रस में विचारों की कोई भूमिका नहीं है। अभयता हमारा स्वभाव है। जन्म से पहले की स्थिति परम स्वीकार की है, थोड़ी देर आभासीय सत्ता बनती है, जिसमें सविकल्प स्वीकार भाव उत्पन्न होता है।
यदि सहज विकास होता तो जो बचपन में सीमित है उस से असीमित की ओर सहज ही गति होती, पर ऐसा दिखता नहीं है। हमें जांचना चाहिए की परिवार, संबंधों का जो प्रारूप है उस से जीवन में खिलावट है कि नहीं? विचार एक झांसा देता है सुख का, उपलब्धि का, ये एक माया है। हम झांसे में आकर उसको भूल गए जो मिला ही हुआ है, और जो आभासीय है उसको पकड़ कर के बैठे हुए हैं। हम समझते हैं कि कोई परिवार है, संस्था है, कोई संबंध है जिसमें हम जुड़े हुए हैं, पर क्या आप कभी भी किसी के हो सकते हो?
चित्त एक आभासीय दीवार खड़ी कर लेता है। यदि मृत्यु का सही बोध हो गया तो उस से आत्म बोध होना शुरू हो जायेगा।
यहां कुछ मिलता नहीं है, और जो मिला ही हुआ है उसे कितना भी खर्च करो, उसे कभी चुका नहीं सकते हैं। माया ही लीला है, झांसे से मुक्त होकर जीना ही निर्विकल्प स्वीकार है।
वास्तव में मृत्यु एक प्रसाद है, उसे शत्रु मत समझिए, वो प्रेम का द्वार है। कठो उपनिषद में मृत्यु के सत्य पर ही संवाद है। मृत्यु ही अमृत का उपदेश दे सकती है। मृत्यु का अर्थ है कि मन, जो ये अपने को अलग समझ कर जी रहा है, उसकी मृत्यु। अभी इसी समय यदि आप अपनी पूरी भूमिका के साथ समाप्त हो जाएं, वही निर्विकल्प स्वीकार, या प्रेम है। हमारा जन्म सविकल्प स्वीकार के साथ ही होता है, और निर्विकल्प स्वीकार, मैं की मृत्यु है।
मेरा जन्म तब होता है जब मैं का विकल्प पैदा होता है। अस्तित्व निर्विकल्प स्वीकार के महा रास में डूबा है, एक महा संगीत है, जबकि सविकल्प यानी मैं, एक कर्कश ध्वनि है।
क्या यह अद्भुत नहीं होगा की जीवन को मृत्यु के साथ साथ जिया जाए। हम भविष्य में जो भी जीने जा रहे हैं, जैसे इच्छा पूर्ति, कुछ पाना, संबंधों में सुधार, जीवन में सुरक्षा का भाव, मिलाप, बिछड़ना आदि इन सबके साथ अभी मृत्यु स्वीकार है।
सब जग सूता नींद भरि, संत न आवै नींद।
काल खड़ा सिर ऊपरै, ज्यौं तौरणि आया बींद॥
सारा संसार नींद में सो रहा है किंतु संत लोग जागृत हैं। उन्हें काल का भय नहीं है, काल यद्यपि सिर के ऊपर खड़ा है किंतु संत को हर्ष है कि तोरण बांध के दूल्हा खड़ा है, जो अपनी दुल्हन को उसके असली घर लेकर ही जाएगा।
काल खड़ा हुआ है और हम सो रहे हैं। अगर मृत्यु अटल है तो किसी भी क्रिया में व्यस्त रहने का ओचित्य क्या है?
जब हम कोई मूवी देखते हैं तो उसको देखते हुए उसके साथ साथ हाव भाव पैदा होते हैं, इसी को हम सत्य या जीवन समझ बैठे हैं। सारे हाव भाव मनुष्य चेतना का एक ढंग है।
जिनि हम जाए ते मुए हम भी चालनहार। हमरे पाछे पूंजरा, तिन भी बाँधा भार।।
जिन्होंने हमें जन्म दिया वह अब नहीं रहे और कुछ समय बाद इस शरीर की भी मृत्यु होने ही वाली है। जो हमारे बाद यहां आए उनको भी तो यह शरीर त्याग करके जाना ही है।
जो भी हम जी रहे हैं वो अरबों बार जिया जा चुका है, जैसे एक ट्रैवल एजेंसी के माध्यम से कितने लोग वही वही यात्रा करते रहते हैं। विचार की एजेंसी में हम नित्य दोहराव वाली यात्रा करते रहते हैं, मेरा पति पत्नी, परिवार। ना कोई पति या पत्नी हुए, सब एक विचार का झांसा है। यदि हम अपने सबसे मौलिक दायित्व को उपलब्ध हो रहे हैं, तो प्रेम मेरे माध्यम से बाहों में खेले तो ही बेहतर है।
मैं सारी चालबाजी, सयानापन विसर्जन होने दूं, तो निर्विकल्प स्वीकार में मैं एक बुलबुले की तरह पैदा होता है, और समाप्त भी हो जाता है।
एक कहानी है। एक लड़की की आंखें नहीं थीं, उसे एक लड़का बहुत प्यार करता था। उस लड़के ने उस लड़की का ऑपरेशन करवाया और लड़की को दृष्टि मिल गई। जब लड़की ने आंखें खोली और पूरी दुनिया को देखा तो पाया कि वह लड़का अंधा है। कुछ समय बाद उस लड़की ने कहा कि तुमने मेरी बहुत मदद करी है, पर अब मैं किसी और से प्यार करती हूं तुम्हारे साथ नहीं रह सकती। लड़का जाते हुए एक खत छोड़ गया, जिसमें लिखा था कि "मेरी आंखों का ख्याल रखना"।
हमारे साथ भी जीवन में कुछ ऐसा ही धोखा या घोटाला हुआ है। जिसकी ताकत से आंखें देखती हैं, जिससे यह सब मिला हुआ है, हमको उसकी ही खबर नहीं है, ये आंखें उसको ही भूल गईं। हम उस निर्विकल्प प्रेम, अज्ञेय का ही परित्याग कर बैठे हैं।
किसी कारण से भी यदि कोई निस्वार्थ प्रेम को छोड़ता है, तो यह पाप है। पाप का शमन पुण्य से नहीं हो सकता है, पाप और पुण्य दोनों की गति भिन्न भिन्न होती है। व्यापार में किए गए पाप को मंदिर में किए हुए पुण्य से साफ नहीं किया जा सकता है।
बेवफाई की ताकत भी उसी अज्ञेय या प्रेम से आई है, इस प्रत्यभिज्ञा में सविकल्प स्वीकार का पूर्ण विसर्जन हो सकता है। सविकल का विसर्जन या मृत्यु ही निर्विकल्प का सहज प्रवाह है।
वह जीना क्या है जो निर्विकल्प स्वीकार से ओत प्रोत है? जीवन या संबंध के स्तर पर विकल्प या विचार दिखा, और वहीं उसका विसर्जन हो गया; तब पहली बार वफादारी क्या है, उसका पता चलता है। जिसे हम प्रेमी कहते हैं, उस की जड़ में ही बेवफाई है।
सविकल्प कभी भी वफादार नहीं हो सकता है, उसके होने में ही बेवफाई है। जैसे ही खुद को पाइए उसे विसर्जन करते चलिए, अंत में, मैं ही मरता है, मैं का आधार नहीं मरता।
कबीर सब सुख राम हैं, औरहि दुख की रासि।
सुर नर मुनि अरु असुर, सब पड़े काल की फांसि॥
एक सुख है अपनी मृत्यु को स्वीकार कर लेना, हम जैसे हैं वहां निर्विकल्प स्वीकार को अवसर दे सकते हैं, यानी प्रेम को अवसर देना।
क्या विकल्पों में कभी भी मानसिक सुरक्षा मिल सकती है? स्वामी अरुण सत्यार्थी जी के अंदर क्या घट रहा है, उसका हमें आभास ही नहीं है। इस शारीरिक विपदा में भी उनके भीतर अमृत है, कोई शोक नहीं है, अंदर अशोक हैं।
हम पूरा जीवन बागडोर अपने हाथ में रखते हैं, और कंत से विमुख हो जाते हैं। बाहर सब ठीक प्रतीत होता है, पर भीतर सब उजड़ा हुआ है। जो अशोक है वो मृत्यु से भी नहीं डरता, अस्तित्व जितना जिलाना है जियाए, या मारना है तो भी चिंता नहीं। यदि अभी अभय उपलब्ध है, तो गहरे तल में प्रेम भरा होगा, बस अपने भीतर आराध्य को अवसर देना है। बिना प्रेम, सुरती, ध्यान के ऐसा है कि जैसे हम कोई लाश ढोते रहते हैं।
क्या हम प्रभावित हो रहे हैं किसी गुरु के शब्दों से? किसी को भी प्रभावित करना एक पाप है। कुछ भी बनना बचकानी बातें हैं। कंत यानी प्रेमी जो पीछे बैठा है, जिसकी तरफ हमारी नजर ही नहीं है।
परिवार या किसी संस्था में प्रेम कारण, भय या स्वार्थ के कारण होता है। जबकि जो अकारण हो वही प्रेम हो सकता है। जीवन करार में क्यों है? प्रेम में तो कोई करार नहीं होता। हम परिवार में किसी व्यक्ति का खंडन नहीं कर रहे हैं, या कुछ छोड़ कर कहीं जाने की बात नहीं है। परिवार एक एजेंसी है जो बाधक है प्रेम में। निर्विकल्प स्वीकार में उसी व्यक्ति के साथ एक नैसर्गिक रिश्ता निकल कर आ भी सकता है या नहीं भी निकल सकता है, और दोनों बातें सही हैं।
अनुशासन या अनुशासन हीनता दोनों बुद्धि से पैदा होते हैं। बबुल के पेड़ में गुलाब का फूल नहीं लग सकता है। प्रेम अगाध अनुशासन है। प्रेम नहीं है तो अनुशासन या अनुशासन हीनता में ही भटकते रहेंगे। प्रेम में विनाश भी, सृजन जैसा स्वाद देता है।
प्रेम नहीं है तो अराजकता है। संबंधों में दूसरे पर नजर नहीं रखनी चाहिए, नजर सर्वदा अपने ऊपर ही रहे। जब तक निर्विकल्प स्वीकार नहीं तब तक हम ही बेबफाई हैं। परिपूर्ण मृत्यु के साथ जीना क्या है? पूर्ण संभावना के साथ मरकर के जीना क्या है?
निस्वार्थ भाव ही भगवान है। यदि कोई निस्वार्थ भाव से आपके साथ कुछ करता है, तो उसके साथ बेबफाई करना पाप है।
राम नाम जान्यो नहीं, भइ पूजा में हानि।
कहि रहीम क्यों मानिहैं, जम के किंकर कानि।।
राम-नाम रूपी सत्य को मैंने पहचाना नहीं और पूजा-पाठ करता रहा। बात बिगड़ती ही गयी, अंत समय पछताने पर भी यमदूत मेरी एक नहीं सुनेंगें।
सविकल्प स्वीकार से मुक्त जीना क्या है? जब प्रेम होगा तो हो सकता है आपके पांव कांपें, पर जीवन में अकारण नृत्य अवश्य थिरक उठेगा।
_____________________
Ashu Shinghal
Comments