यह 2006 की बात है, मेरे जीवन में गंभीर प्रश्न उठने शुरू हो गए थे। मैंने नौकरी, घर छोड़ने का निर्णय ले लिया था।
उस समय पूर्वांचल में एक साधु रहते थे, जिनका नाम स्वामी अड़गड़ानंद जी है। उनसे मेरा बहुत आत्मीय संबंध हो गया था।
मैं सब छोड़ छाड़ कर उनके पास चला गया। सीधे उनसे अकेले मिला और कहा कि मैं संन्यास लेना चाहता हूँ। वे काफ़ी देर तक मुझे देखते रहे और बड़े प्रेम से बोले, "अभी घर चले जाओ, तुमसे परमात्मा कुछ और कराने वाला है।" वे उन दिनों मुझे नाम जप सिखाते थे।
जो उन्होंने सिखाया था चारों चरण जप के “बैखरी, मध्यमा, पश्यति, अपरा” उसमें बड़ी तेज़ी से मेरी गति हो गई थी।
चौथी स्थिति, अपरा, बिल्कुल स्वभाव हो गई थी।
मैं उनके कहने पर लौट आया। आने के थोड़े ही समय बाद जीवन और भी बड़े उतार-चढ़ाव से गुजरने लगा! पिता की मृत्यु, घर का पूरा दायित्व सब ऊपर आ पड़ा।
स्वामी जी से हुई उस मुलाक़ात में ही मुझे लग गया था कि यहाँ से जो सीखा जा सकता था, वह पूरा हो गया।
थोड़े ही समय बाद मैंने अपने को ओशो की शिक्षा में पाया। जो अपरा की कला थी, वह ओशो की ध्यान विधियों के आस-पास नज़र आई।
कुछ महीनों में ही कृष्णमूर्ति की शिक्षा का प्रवेश हुआ। फिर उसमें सतत गिरना-उठना, सीखना चलता रहा! न जाने कितनी अंतर्दृष्टियों ने जीवन में राह दिखाई!
इन सब में जिस महत्वपूर्ण तथ्य की ओर मैं ध्यान आकर्षित कराना चाह रहा हूँ, वह है ‘कृतज्ञता!’
‘मैं’ का स्वभाव कृतघ्न होना है।
मुझे जो कुछ सिखाया है, वह कृतज्ञता के प्रसाद ने सिखाया है।
आज भी स्वामी अड़गड़ानंद के प्रति मेरे हृदय में अबाध कृतज्ञता है। उन्होंने जब पिता की मृत्यु पर अंतिम बार मुझे फ़ोन किया था और कहा था “बच्चा, आगे की देख”
वह पथ प्रदर्शक रहा! जीवन में जो भी आया, अच्छा-बुरा, वह उनका अंतिम संदेश मुझे स्नान करा कर आगे ताज़ा कर के बढ़ा देता है।
जब से मैंने उनके चरणों पर सिर रखा था, वह कभी उठा नहीं!
ओशो के प्रति, कृष्णमूर्ति के प्रति अगाध कृतज्ञता है।
सारी दुनिया भी यदि ओशो के विपरीत हो जाए, मैं उनके साथ खड़ा हूँ। कृष्णमूर्ति के विपरीत हो जाए, मैं वहाँ से न डोलूँगा! चाहे जो मेरा हित-अनहित होता रहे!
तिल भर भी जिसने आत्मपथ पर रोशनी दिखाई है, उसके प्रति स्वप्न में भी कृतघ्न न होना साधु के प्राथमिक लक्षणों में से है।
बात यह नहीं है कि किसके प्रति हम कृतज्ञ हो रहे हैं। बात है कि कृतघ्नता का कोढ़ आपके जीवन में नहीं प्रवेश कर रहा है।
इसलिए कोई असाधु भी है और हमें उससे प्रकाश मिला है, तो हमारी कृतज्ञता होनी हमारे लिए श्रेयस्कर है।
कृतघ्नता जीवन की सारी संभावना को ऐसे चाट जाती है, जैसे गलता हुआ कोढ़ पूरे शरीर को गला जाता है।
एक चमत्कार मैंने पाया अपने जीवन में इस तथ्य की कसौटी की तरह कि जीवन में आप ठीक चल रहे हैं।
आप सतत और विराट और पावन ऊर्जा के सागर में अपने को पाते हैं।
संबंधों की विषमतम और सुगमतम चुनौतियों से अस्तित्व ने गुजरने का अवसर दिया है। मुझे नहीं पता कि उसमें मैं फेल होता हूँ या पास!
लेकिन इतनी बात प्रामाणिक रूप से निवेदन कर सकता हूँ, जीवन में और विराट आशीष, और पावन सानिध्य, और श्रेष्ठ कोटि के संबंध अपने आस-पास घटता पा रहा हूँ।
अरुणाचला में जो मुझे प्रसाद के रूप में बरसा है, मनुष्य की बुद्धि उसकी कल्पना तक नहीं कर सकती!
मैं ग़लत भी हो सकता हूँ, फिर भी जो मेरी समझ है, उससे कुल मिलाकर यह कहना है कि यदि आपका जीवन सतत शुभ में, ध्यान में, प्रेम में, पावन सानिध्य में सतत बढ़ता पाया जाता हो तो आप सम्यक् पथ पर हैं।
कृतज्ञता अच्छे तो अच्छे, बुरे के भी प्रति छलक आती हो तो जीवन सम्यक् पथ पर है।
साधु 🙏❤️
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धर्मराज
आरण्यक व्हाट्सएप ग्रुप संवाद से साभार
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