सुबह का सत्र, 2 जनवरी 2024
दृश्य तो हमेशा नया ही होता है, हमारे द्वारा उसे देखना पुरानी दृष्टि से होता है। एक छोटे से गांव में जो अंदर जाने का रास्ता था, वो दो मकान के बीच में से था, और उसी जगह एक छोटी सी नाली भी बहती थी, जो अपनी जगह बदलती रहती थी। रात को जब कोई मजदूर गांव में आते थे तो वहां पर कोई ना कोई गिर जाता था, और उसको चोट लगती थी और वही लड़ाई झगड़ा भी होता था, जो उन मकान में रहते थे और मजदूरों के बीच में। एक बार एक बच्चे ने दिवाली में मोड़ पर दीया रख दिया, तो उस रात वहां पर कोई गिरा नहीं। उस दिन के बाद वहां पर कोई ना कोई दीया रखने लगा।
इसी तरह से जीवन में बस होश का एक दीया जल जाए, तो हम बहुत बार चोट खाने से बच जायेंगे। मनुष्य चेतना से ही संस्कार आते हैं जो कहते हैं कि हम या मैं बाकी सबसे अलग थलग हैं। जबकि मैं का विचार सबसे ज्यादा सार्वजनिक बात है।
एक बूढ़ा कौवा एक बच्चे कौवे को सीखा रहा था कि जब मनुष्य झुके तो उस समय सावधान रहना चाहिए कि कहीं वह कोई पत्थर उठाकर तुम पर ना मारे दे। बच्चे कौवे ने पूछा कि यदि उसने पत्थर अपनी जेब में रखा हो, तब क्या करें? तब बूढ़े कौवे ने कहा कि तुम्हें सीखाने की जरूरत नहीं है, तुम पहले से ही बहुत कुछ सीखे हुए हो। हमारी बुद्धि भी समय के साथ साथ ऐसे ही शातिर होती गई है।
जिन्हें हम सज्जन समझते हैं यदि उनके सामने भी कोई परेशानी वाली बात आती है, तो हम देखते हैं कि वह भी बहुत चालाकी कर सकते हैं। मनुष्य चेतना में जो भी कुछ अभी तक हुआ है, वह सब कुछ हमारे अंदर संभावना के रूप में अनुस्यूत या पिरोया हुआ है।
बुद्ध ने शिक्षा दी थी कि चार कदम से आगे मत देखना, और किसी स्त्री की तरफ मत देखना। यदि देख लिया तो स्पर्श मत करना, और यदि स्पर्श करना ही पड़ा तो होश बनाए रखना, या जागते रहना। यह सब सांकेतिक शिक्षा है जो किसी संदर्भ में दी गईं थीं। होश क्या है बुद्धि इसकी व्याख्या नहीं कर सकती है। जीवन में सबसे महत्वपूर्ण है कि जगाई या होश को अवसर देना, इससे ही बहुत सारी समस्या समाप्त हो जाती हैं। अपने जीवन में, अपने अंदर जो भी चल रहा है, वहां एक दीप रख दें। जो चल रहा है उसको बदलने की चेष्टा बिलकुल ना करें, बस उस के प्रति जागरण का दीप रख दीजिए। बस दिखाई पड़े की ऐसा चल रहा है, की ऐसी प्रतिक्रिया हो रही है।
कोई भी ढंग या ढर्रा मनुष्य चेतना का ही है, वहीं से आता है, जैसे कि ऐसी परिस्थिति में क्रोध ही आना चाहिए, ये बात एक बहुत छोटे से बच्चे में कैसे आई? अपने अंदर देखिए की व्यक्तिगत हस्तक्षेप से मुक्त होना क्या है? अंदर कोई भी चालाकी आती है, तो उस समय वहीं पर एक होश का दीप रख दीजिए। जो भी आप बुद्धि से जानते हैं, या जान सकते हैं, वो निजी नहीं है।
कविता को अपना नाम देकर झूठा नहीं करना चाहिए। नाम लिखना कभी तकनीकी कारणों से जरूरी होता है कि कहीं उसका दुरुपयोग ना हो। पर अस्तित्व में कहीं भी नाम नहीं है, अस्तित्व कहीं पर अपनी छाप या नाम नहीं छोड़ता है। कहीं पर भी अपना नाम छोड़ना उसे दूषित कर देता है। जहां भी मैं का हस्तक्षेप है, बाद वहां एक दीया रख दिया जाए।
प्रश्र - किसी ने पूछा है कि मैं आपसे जुड़ना चाहती हूं, आप मुझे सुंदर लगते हैं, और मैं आपसे संभोग करना चाहती हूं।
उत्तर - जो वास्तविक संबंध है वो टूटा ही कब है? किसी भी संबंध का टूटना क्या है? जिसको हम संबंधित होना कहते हैं, वह तो पहले से ही टूटा हुआ है। अगर टूटना संभव ही नहीं है, तो किसी से संबंधित होना एक सम्मोहन भी हो सकता है। जो अटूट है उसका अपना एक आचरण, एक व्यवहार होता है। मैं आपको सुंदर लगता हूं, इससे आपका क्या आशय है, इसका केंद्र क्या है? भविष्य में कुछ सूचना या आंकड़े बदलेंगे, तो मैं ही आपको सबसे कुरूप भी लगने लग सकता हूं। नैसर्गिक दिखने में सौंदर्य हो सकता है, देखने वाले में सौंदर्य संभव नहीं है। किसी का सुंदर लगना एक उन्माद भी तो हो सकता है।
जिसे आप संभोग कहते हैं उसमें सम्मोहन शामिल है। एक छोटी सी बात है, एक बहुत बड़े नेता थे जिनको मैं जानता था। वह दिन भर काम करके बहुत थक जाते थे। उनके पास एक टूथ पिक थी, जिससे वह इस तरीके से नाक खुजाते थे कि उससे उनको छींक आने लगती थीं। अब उस छींकने से उनकी जो इकट्ठा करी हुई थकान थी, वह काफी हद तक निकल जाती थी।
बुद्ध कहते थे काम वृत्ति में फंसना नहीं चाहिए। बुद्ध ने जिस समय यह कहा होगा उस समय की स्थिति अलग रही होगी, जिसको कहा और जो संदर्भ है वह बात बिल्कुल भिन्न है। यह बात उस समय सार्थक हो सकती है, जब वह कही गई हो। बाद में कुछ संतों के द्वारा यह कहा गया की काम वासना का दमन मत करो, उसको भोग करके, उससे मुक्त हो आओ। काम वासना की ना निंदा करो, ना ही उसमें लिप्त होना सही है।
जब कचरा भर जाता है तो उसे खाली कर देना चाहिए। जैसे वो नेता छींक कर थकान निकाल देते थे। काम वासना की ना निंदा सही है ना स्तुति, छींकने की ना प्रशंसा करनी है, ना ही उसको नकारना उचित है। वासना की प्रशंसा या निंदा दोनों एक ही बात हैं, यानी आप अभी उसमें फंसे हुए हैं। हमने जीवन में इतने सारे दुख इकट्ठे कर लिए हैं कि उससे बचने का एक उपाय, एक दुरुपयोग हम करते हैं, कामवासना के रूप में। कामवासना में एक दूसरा व्यक्ति भी शामिल होता है, और जब तक उसमें दोनों की सहमति न हो, तो वह एक हिंसा है।
जीवन में संभोग महत्वपूर्ण ही क्यों है? पुराने जमाने में मनोरंजन के उतने साधन नहीं होते थे, जितने अब हैं। पर अभी भी पोर्न इतना प्रचलित है जिसमें मनुष्य की मानसिकता के दुष्प्रभाव या काम वासना का दमन देखा जा सकता है। जो काम वासना की घटना है उस के पूर्व की स्थिति महत्वपूर्ण है। क्या कोई भी कृत्य इतना महत्वपूर्ण हो सकता है, जो हमारी बुद्धि को दमित कर दे। यदि कोई छींकने को अच्छा या बुरा कहता है, तो दोनों ही उसमें फंसे हुए हैं।
हमारा सारा जीवन या संबंध अस्त व्यस्त हैं। छींकना या काम वासना जीवन का आधार कैसे हो सकता है? यह बात भी गलत है की काम क्रिया जीवन का आधार है। काम क्रिया जीवन का आधार नहीं है, उससे पहले भी बहुत कुछ होता है, जैसे आहार, उसका रक्त बनना, वीर्य आदि। उसके बाद काम क्रिया एक छोटा सा कृत्य है। हम यह नहीं कह सकते हैं कि फल वृक्ष का आधार है, या फल का होना वृक्ष का पूरा होना नहीं है।
यौन क्रिया जीवन का आधार नहीं है, ये एक छोटी सी घटना है। जिन्होंने कहा कि यौन क्रिया का दमन नहीं करना चाहिए, वो एक कांटे से कांटा निकालने वाली बात है, क्योंकि भूतकाल में यौन क्रिया का बहुत दमन हुआ है। अध्यात्म में कहा की मस्ती में झूमना होता है, तो लोग अब शराब पीकर झूमते हैं। समय के साथ कोई भी शिक्षा एक विकृत रूप ले लेती है।
काम वासना की कोई निंदा या प्रशंसा नहीं है। उसकी निंदा या स्तुति उसको महत्व देने जैसा है, जो एक सम्मोहन के रूप में अपने आप को प्रकट करती है। यदि संबंध सम्यक है तो उस में नाक खुजाना, सुंदर दिखना ठीक है। पर संबंध को एक ही आधार पर तय करना, ये बात भ्रामक हो सकती है।
जब अचेतन सहयोग करने लगे तो वो बहुत शुभ है। हम समझते हैं कि हम ध्यान का अभ्यास करेंगे और बाद में वही हमारी सहायता करेगा, पर यह बात पूरी तरह से सही नहीं है। हमारा एक हिस्सा जागना चाहता है, और नौ अचेतन हिस्से सोना चाहते हैं। सही समझ से, जीवन में होश को अवसर देने से, अचेतन भी होश में शामिल हो जाता है। असाध्य प्रश्न से होश अचेतन में चला जाता है। बिना मैं के हस्तक्षेप के ठीक से जीना क्या है? दीया रखना ही सबसे महत्वपूर्ण घटना है, उससे अचेतन अंदर से सहयोग करने लगेगा। आप को अचानक होश आने लगा, यानी अब नौ हिस्से भी सहयोग कर रहे हैं।
ये कहानी है की इंद्र अप्सराएं भेज देते थे की किसी की तपस्या भंग करी जा सके। ये सब भ्रम सम्मोहन के ही कारण हो सकते हैं। हम कूड़ा इकठ्ठा करते रहते हैं, फिर उसको भुलाना चाहते हैं। अपने जीवन में इकठ्ठे किए गए बनावटी दुख से मुक्त होने के लिए, सबसे सुलभ काम वासना ही रही है, यह धीरे धीरे इंसान के पूरे ढर्रे में समाहित हो गई। हम पहले दुख इकठ्ठा करते हैं फिर उस से सुकून खोजते हैं। यदि कूड़ा इकठ्ठा नहीं किया जाए, तो उसे बाहर निकलने का उपाय भी ढूंढने की जरूरत नहीं है। ये ऐसे है कि जैसे हमने अपने पैर के साइज से एक छोटा साइज का जूता पहन लिया है। जब हम उस जूते को उतारते हैं तो हमें आराम मिलता है, पर यह रचनात्मक खुशी नहीं है। पहले दुख इकट्ठा किया, फिर उससे बाहर निकल कर खुशी महसूस कर रहे हैं। असल खुशी रचनात्मक भी हो सकती है।
मैंने अपने अनुभव से पाया है कि जीवन में जागना एकमात्र सबसे उत्तम उपाय है। यह जानने के बाद मैंने कोई चुनाव नहीं किया। जैसे किसी प्रेम के क्षण में किसी की कोई कही हुई बात समझ में आ गई कि बेटा जागे रहना। जैसे कोई आपके घर के बड़े बुजुर्ग आपको प्रेम करते हैं और आपको सलाह देते हैं कि आप यात्रा पर जा रहे हो पर किसी अजनबी के द्वारा दी हुई कोई चीज खाना मत। आप इस सलाह से किसी ठगी से बच गए, यह बात आपके कान में पड़ गई और जीवन बदल गया। ऐसे ही मेरे जीवन में हुआ की किसी की कही हुई बात कि हर परिस्थिति में "जागते रहो", बस जीवन में यही सबसे महत्वपूर्ण बात है।
भौतिक रूप से नहीं पर हम मानसिक रूप से अपनी ही नाक खुजाते रहते हैं। जब भी हम किसी की या अपनी ही प्रशंसा या निंदा में उतरते हैं, हम नाक खुजा रहे होते हैं। उस समय जागे रहना। अब मुझे चाहे कोई चोट पहुंचाए, कोई संयोग या वियोग हो, कोई अपमान करे, निंदा करे या प्रशंसा करे, जब भी ऐसी कोई भी विषम से विषम परिस्थिति आई, वहीं जाग गया, वहीं दीप धर दिया। सिर्फ जाग गए, और कुछ नहीं करना। दूसरों की निंदा में नहीं जाना है, अपने भीतर क्या प्रतिक्रिया हो रही है, वहां दीप जलाना है। मेरे जीवन में ऐसे काम के ख्याल क्यों आ रहे हैं, ये नहीं आने चाहिए, ये भी एक झांसा है। ये काम वासना को बना कर रखने में ही सहयोग करता है।
निंदा की भी निंदा ना करें, या स्तुति की भी स्तुति नहीं करें, एक दर्पण की तरह, जो कुछ भी संग्रहित नहीं करता है। बस इतना जागरण रहे की ऐसा हो रहा है मेरे अंदर, नाक खुजाना, काम वासना जिंदगी का आधार हैं, यह समझ समाप्त हो गई है; साथ ही हर स्थिति में दीप जलाए रखिए। पल भर भी जागना श्रेष्ठ है, और होश जो उचित है, वो करा ही देता है।
मैं या वासनाएं युग पथ बात है। इच्छा से ही मैं का निर्माण होता है, और मैं इच्छा को दृढ़ करती है। यह समझ होने से द्वैत चला जाता है। मुर्गी या अंडा दो घटना नहीं है; मुर्गी में होने वाला अंडा है, और अंडे में होने वाली मुर्गी है। बुद्धि हमेशा समय या देश में ही देख सकती है। मैं या इच्छा एक ही घटना है। कृष्ण ने भी कहा है तृष्णा से अहंकार पैदा होता है। मैं दुहराव है, और तृष्णा में भी दोहराव ही होता है। जैसे पान खाने की इच्छा दोहराव है, और दोहराव ही मैं है। मैं या इच्छा प्रथम घटना नहीं हैं, प्रथम घटना कभी भी जानी नहीं जा सकती है। मुझे पता चलना या मैं दूसरी घटना है, मैं द्वयम घटना है। प्रथम घटना का बोध होना असंभव है, पर यह भी सत्य है कि प्रथम घटना अभी भी मौजूद है। तृष्णा या मैं से मुक्त होना क्या है?
सम्मोहन कितना गहरा हो सकता है? बार बार दोहराने से जो सच लगने लगा हो, उसको सम्मोहन कहते हैं। सम्मोहन की गहराई जानने से बेहतर है, जो सम्मोहन से मुक्त है उसको जीवन में अवसर मिले। वैसे भी वो एक सम्मोहन ही होगा, जो सम्मोहन की गहराई पता लगाने जायेगा। क्रांति के लिए, स्वयं सम्मोहन से मुक्त होना पड़ेगा। मूवी में कुछ सच या झूठ नहीं होता है, मूवी खुद ही एक झूठ है। जब तक सम्मोहन से मुक्त नहीं होते, तब तक सम्मोहन क्या है उसकी गहराई नहीं जान सकते हैं।
सभी प्रश्र मनुष्य चेतना से आते हैं, उसमें कुछ अच्छा बुरा नहीं है। चित्त में बहुत आकर्षण है श्रेय लेने का, कोई आपकी झूठ मूठ प्रशंसा कर दे, तो उस में भी आप उत्सुक हो जाते हो। संपूर्ण अस्तित्व श्रेय विहीन है। संसार में श्रेय लीजिए, पर अध्यात्म में श्रेय मत लीजिए। आपके माध्यम से शुभ ऐसे हो, की उसके होने की आपको भी पता ना चले। श्रेय पतन है, परमात्मा श्रेय नहीं लेता, हीन चित्त ही श्रेय लेता है। श्रेय से हीनता पुष्ट होती है, और श्रेय नहीं लेना हीनता समाप्त कर देता है।
रहीम साहब ने कहा है:
देनहार कोई और है, देवत है दिन रैन।
लोग भरम हम पर करें, याते नीचे नैन॥
अर्थात - देने वाला तो कोई और है, जो दिन रात दे रहे हैं। लेकिन लोग समझते हैं कि मैं दे रहा हूँ, इसलिये मेरी आँखें अनायास ही शर्म से झुक जाती हैं।
जाग जाना यानी दीप जल गया। दीप जलने की कीमिया सीखने से जागा जा सकता है। यह कीमिया आपमें अनुस्यूत हो गई, तो कितनी भी विषम स्थिति हो और आप जाग गए। यही जागरण सभी दुखों का अंत है।
____________________
Ashu Shinghal
Bình luận